Book Title: samaysar
Author(s): Manoharlal Shastri
Publisher: Jain Granth Uddhar Karyalay

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Page 566
________________ परिशिष्टम् ] समयसारः । ५५३/ स्यात्मनि सर्वभावभवनं शुद्धस्वभावच्युतः सर्वत्रापनिवारितो गतभयः स्वैरं पशुः क्रीडति । स्याद्वादी तु विशुद्ध एव लसति स्वस्य स्वभावं भरादारूढः परभावभावविरहव्या लोकनि+ ष्कंपितः ॥ २५९ ॥ प्रादुर्भावविराममुद्रितवहन् ज्ञानांशनानात्मतानिर्ज्ञानात्क्षणभंगसंगपतितः प्रायः पशुर्नश्यति । स्याद्वादी तु चिदात्मना परिमृशंश्चिद्वस्तु नित्योदितं टंकोत्की+ र्णघनस्वभावमहिमज्ञानं भवन् जीवति ॥ २६० ॥ टंको त्कीर्णविशुद्धबोधविसराकारात्मतत्त्वाशया वांछत्युच्छलदच्छवित्परिणतेर्भिन्नः पशुः किंचन । ज्ञानं नित्यमनित्यता परि ज्ञानमात्रभावस्य जीवपदार्थस्य नयविभागेन भेदाभेदरत्नत्रयात्मकं निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गद्वयरू विश्रांतः इत्यादि । अर्थ- अज्ञानी एकांतवादी, परभावको ही अपना भाव जानसे बाह्य वस्तुओं में विश्राम करता अपने स्वभावकी महिमामें एकांतकर निश्चेतन हुआ (जड़ हुआ ) आप नाशको प्राप्त होता है । और स्याद्वादी, सभी वस्तुओंमें अपना नियमरूप स्वभावभावके भवनस्वरूप ज्ञानसे जुदा हुआ, सहज स्वभावका प्रत्यक्षः अनुभवरूप किया है प्रतीतिरूप जानपना जिसने ऐसा हुआ नाशको नहीं प्राप्त होता भावार्थ - एकांती तो परभावको निजभाव जान बाह्य वस्तुमें ही विश्राम करता हुआ आत्माका नाश करता है । और स्याद्वादी, अपने ज्ञानभावको ज्ञेयाकार होनेपर भी ज्ञानको ही अपना भाव जानता हुआ अपना नाश नहीं करता । यह अपने भावकी अपेक्षा अस्तित्वका भंग है । पुनः २५९ वां काव्य - अध्यास्य इत्यादि । अज्ञान एकांतवादी, अपने आत्मामें सब ज्ञेय पदार्थोंका होना निश्चयकर शुद्धज्ञानस्वभावसे च्युत हुआ सब पदार्थोंमें स्वेच्छाचारी हुआ क्रीडा करता है अपने भावका लोप करता है । और स्याद्वादी, अपने आपमें ही सर्वथा आरूढ हुआ परभावका अपने भावमें अभाव प्रगट है ऐसा समझ निश्चित हुआ शुद्ध ही शोभायमान है ॥ भावार्थ - एकांती तो पर भावोंको अपना जान अपने शुद्ध स्वभावसे च्युत हुआ सब जगह निःशंक ( स्वेच्छासे ) प्रवर्तता है । और स्याद्वादी परभावों को जानता है तो भी उनसे जुदा अपने आत्माको शुद्धः ज्ञानस्वभाव अनुभवता हुआ शोभता है । यह परभाव अपेक्षा नास्तित्वका भंग है ॥ पुनः २६० वां काव्य — प्रादुर्भाव इत्यादि । अर्थ - अज्ञानी एकांतवादी, उत्पाद व्ययकर प्राप्त हुए ज्ञानके अंशोंकर नाना स्वरूपके निर्णयके ज्ञानसे क्षणभंगके संगमेंपड़ा बहुधा अपना नाश करता है । और स्याद्वादी, चैतन्यस्वरूपकर चैतन्य वस्तुको नित्य उदयरूप अनुभवता टंकोत्कीर्ण घनस्वभाव महिमावाले ज्ञानरूपसे जीता है अपना नाश नहीं करता ॥ भावार्थ - एकांती तो ज्ञेयके आकारक्त् ज्ञानको उपजता विनाश होता देख क्षणभंगकी संगतिवत् अपना नाश करता है और स्याद्वादी, ज्ञेयके साथ ज्ञानके उपने विनाशः होनेपर भी चैतन्यभावका नित्य उदय अनुभवता हुआ ज्ञानी ७० समय ०

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