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युगवीर-निबन्धावली. प्रतिष्ठाचार्यका स्वरूप विवेचनीय नहीं है तथापि प्रसंगवश यहाँपर उसका किचित् दिग्दर्शन करादेना जरूरी है, जिससे, यह मासूम करके कि दूसरे शास्त्रोंमें भी प्राय यही स्वरूप प्रतिष्ठाचार्य या पूजकाचार्य का वर्णन किया है, इस विषयमें फिर कोई संदेह बाकी न रहे । सबसे प्रथम धर्मसप्रहश्रावकाचारको ही लीजिये । इस ग्रन्थके हैं वे अधिकारमे, नित्यपूजकका स्वरूप कथन करनेके अनन्तर, श्लोक न १४५ से १५२ तक आठ श्लोको मे पूजकाचार्यका स्वरूप वर्णन किया है। वे श्लोक इस प्रकार हैं -
इदानीं पूजकाचार्यलक्षण प्रतिपाद्यते । ब्राह्मण. क्षत्रियो वेश्यो नानालक्षणलक्षित ॥ १४५ ।। कुलजात्यादिसशुद्ध सदृष्टिर्देशसयमी । वेता जिनागमस्याऽनालस्य. अतबहुश्रत ॥ १४६ ।। ऋजुर्वाग्मी प्रसन्नोऽपि गभीरो विनयान्वित । शौचाऽऽचमनसात्साहो दानवान्कर्म कर्मठ ।। १४७ ।। साङ्गोपाङ्गयुत शुद्धो लक्ष्यलक्षणवित्सुधी । स्वदारी ब्रह्मचारी वा नीरोगः सकियारतः।। १४८ ।। वारिमंत्रव्रतस्नात प्रोषधव्रतधारक. । निरभिमानी च मौनी च त्रिसंध्य देववन्दक. ॥ १४६ ।। श्रावकाचारपूतात्मा दीक्षा शिक्षागुणान्वित। क्रियाषोडशभि. पूतो ब्रह्मसूत्रादिसंस्कृत ।। १५० ।। न हीनाङ्गो नाऽधिकांगो न प्रलम्बो न वामन । न कुरूपी न मूढात्मा न वृद्धो नातिबालक ॥ ५१ ॥ न क्रोधादिकषायादयो नार्थार्थी व्यसनी न च । नान्त्यास्त्रयो न तावाचौ श्रावकेव न संयमी ॥ १५२ ।।
इन उपयुक्त पूजकाचार्यस्वरूपप्रतिपादक श्लोकोमें जो-"ब्राह्मणः (ब्राह्मण हो), क्षत्रियः (क्षत्रिय हो), वैश्व. ( वेश्य हो ), नानालक्षणलक्षितः (शरीरसे सुन्दर हो), सदृष्टिः (सम्यग्दृष्टि हो), देश