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परिमहका प्रायश्चित्त चोरी करनेको पाप नहीं समझता तो उससे भूठ और चोरी पापको कोटिसे नहीं निकल जाते । ठीक इसी तरह मोह-मदिरा पीकर दृष्टिविकारको प्राप्त हुमा ससार यदि परिग्रहको पापरूपमें नही देखता
और न उसे कोई अपराध ही सममता है तो सिर्फ इतनेसे ही यह नहीं कहा जा सकता कि परिग्रह कोई पाप या अपराध ही नही रहा,
और इसलिए उसका प्रायश्चित भी न होना चाहिए। वास्तवमें मूर्या, ममत्व-परिणाम अथवा 'ममेद' ( यह मेरा ) के भावको लिए हुए परिग्रह एक बहुत बड़ा पाप है, जो प्रात्माको सब प्रोरसे पकडेजकडे रहता है और उसका विकास नही होने देता । इसीसे श्रीपूज्यपाद और अकलकदेव जैसे महान् प्राचार्योंने सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिक आदि ग्रन्थोमें 'तन्मूला सर्व दोषा', 'तन्मूला सर्वदोषानुषगा' इत्यादि वाक्योके द्वारा परिग्रहको सर्वदोषोका मूल बतलाया है । और यह बिल्कुल ठीक है-परिग्रहके होनेपर उसके संरक्षणअभिवर्धनादिकी ओर प्रवृत्ति होती है, सरक्षणादि करनेके लिये अथवा उसमें योग देते हए हिसा करनी पड़ती है, भूठ बोलना पडता है, चोरी करनी होती है, मैथुनकर्ममे चित्त देना पडता है, चित्त विक्षिप्त रहता है, क्रोधादिक कषायें जाग उठती हैं, राग-द्वेषादिक सताते हैं, भय सदा घेरे रहता है, रोद्रध्यान बना रहता है, तृष्णा बढ़ जाती है, प्रारम्भ बढ जाते है, नष्ट होने अथवा क्षति पहुँचनेपर शोक-सताप आ दबाते हैं, चिन्तामोका तांता लगा रहता है और निराकुलता कभी पास नही फटकती । नतीजा इस सबका होता है अन्तमें नरकका वास, जहाँ नाना प्रकारके दारुण दुखोंसे पाला पड़ता है और कोई भी रक्षक एवं शरण नजर नहीं आता।
१. ज्ञानाएंवमे शुभचन्द्राचार्य ने बाह्य परिग्रहको 'निशेषानर्थमन्दिर' लिखा है, क्योंकि उसके कारण विद्यमान होते हुए भी रागादिक शत्र क्षणमात्रमें उत्पन्न होकर अनिष्ट मथवा अनर्थ कर डालते हैं।