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पौषधव्रत-परिपालन की विधि
२८१ एक या दो पाप-व्यापारों को छोडना होता है। एक. अहोरात्र के लिए खेती, नौकरी, व्यापार-धंधा, पशुपालन एवं घर के आरम्भ समारम्भादियुक्त सभी कार्य व्यापारी को छोड़ना सर्व-व्यापारपोपध कहलाता है। ब्रह्मचर्यपोपध भी देशतः और सर्वत दोनों प्रकार से होता है। एक या दो बार से अधिक स्त्रीसेवन का त्याग करना देशतः ब्रह्मचर्यपौषध और पर दिनगतभर के लिए पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करना सर्वतः ब्रह्मचर्यगौषध है। इसी प्रकार स्नानादित्यागपोपध भी देशतः और मर्वतः दोनो प्रकार से होता है । एक या दो बार से अधिक स्नानादि शरीरसस्कार न.रने का त्याग देशतः स्नानादिपौषध और पूरे दिनरातभर स्नानादि का त्याग करना सर्वत. पोपध है । यहाँ देशत: कुव्यापार (सावधप्रवृत्ति) निषेधरूप पोपध जब करे, तब चाहे सामायिक या न करे, परन्तु गवपापघ कर तब तो अवश्य ही सामायिक करे । यदि ऐसा नहीं करेगा तो वह पौपच के फल से वंचित न्हेगा । नवंपोप जब भी करे तब उपाश्रय, जिनमन्दिर म या घर म एकान्त स्थान में कर तथा उम नमय पापधव्रत क लेने से पहले ही स्वर्ण, स्वर्ण के आभूषण, पृष्पमाला, विलसन. शस्त्र आदि का त्या करके सामायिक व्रत का अंगीकार करे । पौषध में स्वाध्याय, अध्ययन, अध्यापन, सत्साहित्यवाचन, धर्मध्यान व अनुप्रेक्षाओं (भावनाओं) पर चिन्तन कर । साथ ही यह विचार भी करे कि 'भो ! मैं !तना अभागा हूं कि अभी तक साधुत्व के गुणों को धारण करने में समर्थ नहीं हो सका।'
यहा इतनी बात खासतौर से समझ लनी चाहिए कि यदि पीपधवन भी आहारत्याग, शरीरसस्कारस्याग और ब्रह्मचर्यपालन की तरह कुव्यापारत्याग के रूप में अण्णत्थणामोगेणं यानी आगारसहित स्वीकार किया हो (आगार रखा हो), तो उसका गामायिक करना सार्थक है, वरना नहीं है। क्योंकि पौषध के नियम आगारसहित स्थूलरूप हैं, जबकि मामायिक के नियम मूक्ष्मरूप हैं। यद्यपि पौषध मे सावद्यव्यापार (प्रवृत्ति ) का सर्वथा त्याग करना आवश्यक है, तथापि सामायिक न करने से उसका लाभ नहीं मिलता। इसलिए पीपध के साथ सामायिक अवश्य करना चाहिए। थावकसमाचारो की विशेषता से यदि पापध भी सामायिक की तरह पूर्वोक्त दुविह तिबिहेण दो करण तीन योग से) स्वीकार किया गया है, तब तो मामायिक का कार्य पोपध से हो ही जाता है। अलग से मामायिकग्रहण विणेप फलदायी नही होता। फिर भी यदि श्रावक मन में यह अभिप्राय रखता है कि मैंन पौषध और सामायिक दोनों व्रत स्वीकार किये है तो उसे पौषध और सामायिक दोनों का लाभ मिलता है। अब पोषधव्रत करने वाले की प्रशसा करते है -
गहिणोऽपि हि धन्यास्ते पुण्यं ये पौषधवतम् ।
दुष्पालं पालयन्त्येव, यथा स चुलनोपिता ॥८६॥ अथ - गृहस्थ होते हुए भी वे धन्य हैं, जो चुलनापिता के समान कठिनता से पाले जा सके, ऐसे पवित्र पोषधवत का पालन करते हैं । चुलनीपिता का सम्प्रदायगम्य दृष्टान्त इस प्रकार है ..
__ श्रावकव्रतधारी चुलनीपिता को पौषध में दृढ़ता गंगानदी के किनारे विचित्र रचनाओं से मनोहर, पृथ्वी के तिलक-समान श्रेष्ठ वाराणसी नगरी में मनुष्यों में मूर्तिमान धर्म की तरह महासेठ नामक श्रेष्ठी रहता था। उसके यहाँ चुलनीपिता
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