Book Title: Yogshastra
Author(s): Padmavijay
Publisher: Nirgranth Sahitya Prakashan Sangh

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Page 598
________________ महेते नमः नवम प्रकाश अब सात श्लोकों द्वारा स्पस्थध्यान का स्वरूप कहते हैं मोक्ष-श्रीसाखानस्य विध्वस्ताखिलकर्मणः। चतुर्मुखस्य निःशेष-भुवनाभयदायिनः ॥१॥ इ. मण्डलकाराच्छन-त्रितयशालिनः । लसभामण्डलाभोगविम्बितविवस्वतः ॥२॥ विव्य-बुन्दुभिनिर्घोष-गीत-साम्राज्य-सम्पदः । रणद्विरेफझंकार-मुखराशोकशोभिनः ॥३॥ सिंहासन-निषण्णस्य, वीज्यमानस्य चामरैः । उसासरत्नदाप्रपा-नखब तेः ॥४॥ दिव्यापोत्कराकीर्णाः संकीर्णाः परिषद्भवः । उत्कन्धरमंगकुलः पाामानकलध्वनेः ॥॥ शान्तवैरेमसिंहादि-समुपासितसन्निधेः ।। प्रभोः समवसरणस्थितस्य परमेष्ठिनः ॥६॥ सतिशय तस्य, पलानभास्वतः । महतो रूपमालम्ग्य, ध्यानं रूपस्थमुच्यते ॥७॥ अर्थ-जो योगी मोमलक्ष्मी के सम्मुख पहुंच चुके हैं जिन्होंने समय कर्मों का विनाश कर दिया है, उपदेश देते समय चौमुखी हैं; समप्र लोक के प्राणिमात्र को जो अभयवान देते हैं और वनमण्डल के समान तीन उज्ज्वल छत्रों से सुशोभित है, सूर्यमंडल को प्रभा को मात करने वाला भामंडल जिनके चारों ओर देदीप्यमान है, जहाँ दिव्यधुंदुभि के माधोष हो रहे हैं ; गीतगान को साम्राज्य-संपदा हैं। गुजार करते हुए भ्रमरों की कार से जित अशोकवृक्ष से सुशोभित है, सिंहासन पर विराजमान हैं, जिनके दोनों ओर चामर दुलाये जा रहे हैं, वन्दन करते हुए सुरों और असुरों के मुकट के रत्नों की कान्ति से जिनके चरणों के

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