Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 6
________________ गाथा-१ कर्मों के मल को जला डाला है। कर्म के कलंक को जला दिया है। कर्म जले, इसलिए ऐसा ध्यान हुआ है – ऐसा नहीं है। आहा...हा...! समझ में आया? 'कर्म विचारे कौन?' वे तो जड़ पदार्थ हैं, निमित्त हैं, तू विकार करे तो कर्म का आवरणरूप से निमित्त होता है और स्वरूप का ध्यान करे तो वे मिट जाते हैं। वे कर्म कहीं कन्धा पकड़कर (नहीं कहते कि) नहीं, तू ऐसा कर। ऐसा है नहीं, आहा...हा...! कहते हैं, कर्म कलंक... आहा...हा...! कर्म का कलंक है, मैल है। आठ कर्म.... यहाँ सिद्ध है न? इसलिए आठों ही कर्म कहे हैं। सिद्ध है तो सही न? आठों ही कर्मरूपी कलंक के मैल को... आठ कर्म हैं न? आठ – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, अन्तराय, नाम, गोत्र, और आयुष्य। ऐसा मल, उसे जला दिया...। डहेवि' भाषा ऐसी है। उन्होंने नाश किया, वह तो जला दिया - ऐसा कहते हैं, भाई! आहा...हा...! नाश किया ऐसा हलका शब्द नहीं डाला, जला दिया, राख कर दिया। अर्थात् ? कर्मरूप जो पर्याय थी, उसकी पर्याय दूसरे जड़, दूसरे पुद्गलरूप हुई। अकर्मरूप पर्याय हो गयी। जला डालने का अर्थ कहीं दूसरी चीज नहीं, परमाणु जल नहीं जाते। यह आत्मा अपने स्वरूप के अन्तरदृष्टि और ध्यान में स्थिर हुआ, सिद्ध भगवान का आत्मा.... तब उन्होंने कर्म के कलंक की, आठ कर्म की जो पर्याय थी, उसका व्यय हो गया, तब उन्होंने जलाया - ऐसा व्यवहार से कहने में आता है। आहा...हा...! कर्म तो उस समय टलने की योग्यता से ही टले हैं; आत्मा कहीं उन्हें टाले और कर्म को जलाये - ऐसा कभी (नहीं है)। वे तो जड़ हैं। जड़ का कर्ता-हर्ता आत्मा नहीं है परन्तु यहाँ तो यह कहा है कि जिस विकार के संग में, संग था, तब कर्म का निमित्तपने आवरण था, वह संग छूटा, इसलिए आवरण की अवस्था में दूसरी दशा हो गयी। उसे यहाँ कर्म कलंक को जलाया - ऐसा कहा जाता है। डहेवि' मूल में से जला दिया - ऐसा कहते हैं। फिर से कर्म पर्यायरूप हो - (ऐसा) अब है नहीं। फिर? दो पद हुए। 'परु अप्पा लद्धउ'. 'परु अप्पा लदउ' - क्या प्राप्त हआ? भगवान आत्मा शक्तिरूप से परमात्मा था, शक्ति के सत्व के स्वभाव के सामर्थ्यरूप से परमात्मा ही था। उसका ध्यान करके परु अर्थात् वर्तमान पर्याय में उत्कृष्टरूप से परमात्म पद को पा

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