Book Title: Yogsara Pravachan Part 01
Author(s): Devendra Jain
Publisher: Kundkund Kahan Parmarthik Trust

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Page 13
________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) और महाविदेहक्षेत्र में लाखों केवली भी विराजते हैं। अरे...! उन लाखों केवलियों और अरहन्तों की सत्ता का स्वीकार करके अन्तर में नमन (करना), वह कोई अपूर्व बात है। समझ में आया? जो कोई 'जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं।' जो कोई अरहन्त परमात्मा विराजते हैं, वे कैसे हैं ? जिन्होंने चार घातिया कर्मों का क्षय किया है... ऐसा स्पष्टीकरण क्यों किया? क्योंकि अभी चार कर्म निमित्तरूप से बाकी हैं। अरहन्त को चार कर्म अभी बाकी हैं। जब ‘महावीर' परमात्मा यहाँ समवसरण में विराजमान थे, तब भगवान अरहन्त पद में थे, तब चार कर्मों का नाश हुआ - ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणी, मोहनीय और अन्तराय। चार कर्म बाकी थे - वेदनीय, आयु (गोत्र, नाम) । उसका भी पता नहीं होता। भगवान जाने (कितने बाकी होंगे) ! घर में गद्दों की संख्या का पता, घर में कितने हैं, वह (पता होता है), धूल का लोचा कितना, उसका इसे सब पता पड़ता है। चिमनभाई! आहा...हा...! यह चार कर्म किसने नष्ट किये? और चार कर्म किसे रहे? और आठ किसने नष्ट किये? क्या आठ होंगे? भगवान जाने! भगवान तो जानते ही हैं। कहते हैं, ओहो...! जिसने अरहन्त के द्रव्य, गुण और पर्याय को जाना, परमेश्वर त्रिलोकनाथ अरहन्त पद, जहाँ आगे वाणी उठती है, वाणी निकलती है। सिद्ध को वाणी नहीं होती, सिद्ध परमात्मा तो अशरीरी हो गये हैं, उन्हें वाणी, शरीर नहीं होता। अरहन्त को शरीर और वाणी होते हैं, क्योंकि वहाँ चार अघातिया कर्म शेष रहे हैं। भगवान अभी महाविदेहक्षेत्र में विराजमान हैं। समवसरण में इन्द्रों की उपस्थिति में भगवान की वाणी इच्छा बिना निकलती है। उन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश किया है। आहा...हा...! जिसने ऐसे अरहन्त पद के द्रव्य-गुण तो ठीक, परन्तु उनकी पर्याय की इतनी सामर्थ्य है - ऐसा जिसने ज्ञान में जाना, कहते हैं कि वह आत्मा अन्दर में अपने साथ ऐसी पर्यायवाला ऐसा आत्मा और मैं उनकी नात की जाति का आत्मा.... समझ में आया? सिद्धों का नातेदार हूँ, आता है। आया था न? उस बोल में आया था, लड़के नहीं बोलते थे? मैं सिद्ध का नातेदार हूँ। आहा...हा... ! मैं निगोद और ऐसे संसारी का नातेदार नहीं हूँ। नातेदार नहीं कहते? दशाश्रीमाली । हमारी नात पाँच-पचास करोड़ है। है हमारे नातेदार । है ? नातेदार

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