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द्रव्य से अनन्त प्रदेक्षी पुद्गलों को ग्रहण करता है। क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ़ द्रव्यों को ग्रहण करता है। इस प्रकार प्रज्ञापणा सूत्र के अठाइसवें पद के प्रथम आहारौद्देशक के अनुसार, यावत् निर्व्याघात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित तीन, कदाचित् चार और कदाचित् पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों से ग्रहण करता है।
इसी प्रकार वचन योग के द्रव्य भी ।
काययोग के द्रव्य औदारिक शरीर के समान है । विवेचन-जितने आकाश क्षेत्र में जीव रहा हुआ है, उस क्षेत्र में अन्दर रहे हुए जो पुदगल द्रव्य है वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और उससे बाहर के क्षेत्र में रहे हुए पुद्गल द्रव्य ‘अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं। वहाँ से खींच कर जीव उनको ग्रहण करता है । इस विषय में किन्हीं आचार्यों का ऐसा कहना है कि जो गतिरहित द्रव्य है-वे स्थित द्रव्य कहलाते हैं और जो गति सहित द्रव्य है वे 'अस्थित द्रव्य' कहलाते हैं । मनोयोगी, वचन योगी अवगाह क्षेत्र के भीतर रहे हुए द्रव्यों को ग्रहण करता है उससे बाहर रहे हुए द्रव्यों को नहीं करता । क्योंकि उन्हें खींचने का स्वभाव उसमें नहीं है। अथवा वह स्थित द्रव्यों को ग्रहण करता है, अस्थित द्रव्यों को नहीं। क्योंकि उनका इस प्रकार स्वभाव होता है ।
काययोगी स्थित द्रव्यों के भी ग्रहण करता है और अस्थित द्रव्यों को भी । नियांधात से छओं दिशाओं से और व्याघात हो तो कदाचित् तीन, कदाचित चार और कदाचित पांच दिशाओं से आये हुए पुद्गलों के ग्रहण करता है । .०१५ योगवर्गणा और लेश्या योगवर्गणान्तर्गतद्रव्यसाधिव्यादात्मपरिणामो लेश्या
-जैनसिदी० प्र ८ सू १७ योगवर्गणा के अन्तर्गत पुदगलों की सहायता से होनेवाले आत्मपरिणाम को लेश्या कहते है। ..२ भाषयोग (प्रायोगिक)-अरूपी है-जीव है .०२१ भाषयोग-जीष परिणाम है। .०२२ भावयोग की स्थिति
मनोयोगी व वचन योगी की स्थिति जघन्य एक समय, उत्कृष्ट अंतर्महुर्त होती है। काययोग की स्थित जघन्य अन्तर्महुर्त, उत्कृष्ट अनन्त काल की होती है। .०२३ भाषयोग और भाष
सेकिंतं जीवोदयनिप्फने, अजेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-नेरइए xxx सजोगी xxx |
-अणओ० सू १२६ पंचश्वेभाग १ । पृ० ११०
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