Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ अपने-अपने भाग्य का खेल २१ परा है। 12 ये तो सोचा ही नहीं धार्मिक संस्कारों का सुयोग मिल जाता है, उनका जीवन सफल हो जाता है, धन्य हो जाता है। यही तो अपना-अपना भाग्य है। कहा भी है - जो जैसी करनी करै सो तैसो फल पाय । यद्यपि अब ज्ञानेश और धनेश की विचारधारा में जमीन-आसमान का अन्तर आ गया था, तथापि उनकी मित्रता अभी भी उनके वैचारिक मतभेदों से प्रभावित नहीं हुई; क्योंकि दोनों के विचारों में मतभेद तो था, पर मनभेद नहीं था, यह अच्छी बात थी। यही कारण था कि वे एक-दूसरे को सुधारना चाहते थे। धनेश सोचता - "ज्ञानेश की होनहार ही खोटी है। टेक्नीकल एजूकेशन के सब साधन सुलभ थे; पर उसका मन पढ़ने में लगा ही नहीं। अब दुकान पर दिन-भर गुमसुम-सा बैठा न जाने क्या सोचता रहता है ? बस, हंसने के नाम पर मन ही मन मुस्करा लेता है। न गपशप करना, न नृत्य-गान देखना-सुनना। ज्ञानेश की दुकान में भी कोई दम नहीं दिखती । कम्पिटीशन का जमाना है न! प्रतिस्पर्धा के कारण आज ईमानदारी की आजीविका दुर्लभ होती जा रही है । ईमानदारी से धंधा करने पर ग्राहकों के मन में विश्वास जम जाने पर कदाचित् ग्राहकी बढ़ भी जावे तो आस-पास के दुकानदार ईर्ष्या की आग में जलने लगते हैं। सब लोग मिलकर उसे उखाड़ने में लग जाते हैं, हो सकता है वह अस्थिर आजीविका के कारण ही परेशान रहता हो, वह अकेला भी पड़ गया है, उसे तो अब कोई ऐसा काम कर लेना चाहिए, जिसमें ईमानदारी से कुछ निश्चित, सुरक्षित और स्थाई आजीविका की व्यवस्था हो । तभी वह निश्चिन्त होकर धर्मसाधना और लोकोपकार कर सकता है। अन्यथा कैसे कटेगी इसकी इतनी लंबी जिंदगी? कभी अच्छा-सा मौका देखकर उससे बात करूँगा। देखता हूँ क्या हो सकता है ? हमउम्र होकर भी मुझ से दस-पन्द्रह वर्ष बड़ा दीखने लगा है। सच है, अधिक सोच-विचार व्यक्ति को असमय में ही बुजुर्ग बना देता है। यद्यपि उसकी उम्र अभी कोई अधिक नहीं है; पच्चीस वर्ष की उम्र भी कोई उम्र है ? ये तो खेलने-खाने के दिन हैं; पर धर्म के चक्कर में पड़ जाने से उम्र के अनुपात से उसमें प्रौढ़ता कुछ अधिक ही आ गई है। उसके चेहरे पर चिन्तन की झलक भी स्पष्ट दिखाई देने लगी है। माथे पर तीन सल तो पड़े ही रहते हैं। पेन्ट-सूट के स्थान पर कुर्ता-धोती पहनने से भी वह बुजुर्ग-सा दीखने लगा है।" जो जिस राह पर चल देता है वह उसे ही अच्छा मानता है अतः धनेश अपने मित्र को भी उसी राह पर ले जाना चाहता है; परन्तु धनेश को यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह ज्ञानेश को कैसे समझाये ? इन्हीं विचारों में डूबे धनेश को नींद आ गई।

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