Book Title: Ye to Socha hi Nahi
Author(s): Ratanchand Bharilla
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 57
________________ हार में भी जीत छिपी होती है ११३ 58 सत्यान्वेषण की सूक्ष्मदृष्टि, दृढ़ संकल्प और प्राप्त ज्ञान के प्रचारप्रसार की नि:स्वार्थ पवित्र व प्रबल भावना है। इन्हीं कारणों से देशविदेश के कोने-कोने से धर्मप्रेमी लोग उससे जुड़ते जा रहे हैं।" ११२ ये तो सोचा ही नहीं बार हारा; पर निराश नहीं हआ; क्योंकि उसका एक स्वप्न था, एक लक्ष्य था कि 'मैं एक न एक दिन सर्वोच्च सत्ता हासिल करके ही रहूँगा। फलस्वरूप वह अन्त में अमेरिका जैसे समृद्ध और विकसित देश का राष्ट्रपति बना। ज्ञानेश ने भी इन घटनाओं से प्रेरणा पाकर वर्तमान में समय की स्वतंत्रता और तत्त्व प्रचार-प्रसार हेतु आर्थिक स्वतंत्रता के साथ परलोक में आत्मा की स्वतंत्रता (मुक्ति) पाने का लक्ष्य बनाया है और वह इस दिशा में पूर्ण उत्साह के साथ सक्रिय है। उसे विश्वास है कि मैं अपने लक्ष्य को पाकर ही रहूँगा। प्रथम लक्ष्य के करीब तो वह पहुँच चुका है और दूसरे एवं तीसरे लक्ष्य की ओर अग्रसर है। उसने कहीं यह पंक्ति पढ़ी थी - नर हो न निराश करो मन को। बस, फिर क्या था, वह दृढ़ संकल्प के साथ जुटा रहा और अपने लक्ष्य की ओर बढ़ता रहा। ___टन....टनन...टन...टन.......करते ज्योंही घड़ी का नौवाँ घंटा बजा, त्योंही ॐकार ध्वनि के साथ ज्ञानेश का प्रात:कालीन प्रवचन प्रारम्भ हो गया। “मन का शरीर से घना संबंध होने से यदि अन्दर में क्रोध भाव है तो मुखाकृति पर भी क्रोध की रेखायें दिखाई देने लगी हैं, भृकुटी तन जाती है, आँखें लाल हो जाती हैं, ओष्ठ फड़कने लगते हैं और काया काँपने लगती है। पर ध्यान रहे, पापबन्ध अंतरंग आत्मा में हुए क्रोध आदि मनोविकारों या भावों से ही होता है, बाह्य शारीरिक विकृति से नहीं। शारीरिक चिह्न तो मात्र अंतरंग भावों की अभिव्यक्ति करते हैं, उनसे पुण्य-पाप नहीं होता। __इसी तरह जब अन्तरंग में भगवान की भक्ति का शुभभाव होता है तो बाहर में तदनुकूल यथायोग्य अष्टांग नमस्कार आदि शारीरिक क्रियायें भी होती ही हैं।" अंतरंग-बहिरंग सम्बन्ध का ज्ञान कराते हए ज्ञानेश ने आगे कहा - “अन्तरंग में जिनके सम्पूर्ण समताभाव हो, वीतराग परिणति हो तो बाहर में उनकी मुद्रा परमशान्त ही दिखाई देगी। न हँसमुख न उदास । ऐसा ही सहज स्वतंत्र संबंध होता है अन्तरंग-बहिरंग भावों का । इसलिए कहा जाता है कि 'भावना भवनाशनी - भावना भववर्धनी' भावों से ही संसार में जन्म-मरण के दुःख का नाश होता है और भावों से ही जन्म-मरण का दुःख बढ़ता है। यह छोटी-सी ज्ञानगोष्ठी एक दिन इतना विशाल रूप धारण कर लेगी, ज्ञानेश को भी इसका पता नहीं था, पर उसका एक स्वप्न था, एक लक्ष्य था कि यह ज्ञान की धारा सारे विश्व में फैलना चाहिए। उसने मोहम्मदगौरी और अब्राहमलिंकन के इतिहास से यही सीखा कि हार में भी जीत छिपी होती है। अत: हारने से निराश नहीं होना चाहिए। बस इसी विचार से ज्ञानेश अपने लक्ष्य के प्रति सजग है। क्या ज्ञानेश के सामने समस्यायें नहीं आतीं ? पर उसके सामने भी एक लक्ष्य है। उस लक्ष्य के साथ उसकी हार्दिक लगन, व्यवस्थित मति, उदारवृत्ति, गुण-ग्राहकता, निश्छलहृदय, सरलस्वभाव, नियमित दैनिकचर्या,

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