Book Title: Vitrag Vigyana Pathmala 3 Author(s): Hukamchand Bharilla Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 5
________________ पाठ २] पूजा विधि और फल राजू-पिताजी! आज मन्दिर में लोग गा रहे थे - “नाथ तेरी पूजा को फल पायो, नाथ तेरी .........." - यह पूजा क्या है और इसका क्या फल है ? सुबोधचन्द्र- इष्ट देव-शास्त्र-गुरु का गुण-स्तवन ही पूजा है। राजू-इष्टदेव कौन होते हैं? सुबोधचन्द्र - मिथ्यात्व, राग-द्वेष आदि का अभाव करके पूर्ण ज्ञानी और सुखी होना ही इष्ट है। उसकी प्राप्ति जिसे हो गई हो, वही इष्टदेव है। अनंत चतुष्टय के धनी अरहंत और सिद्ध भगवान ही इष्टदेव हैं और वे ही परमपूज्य हैं। राजू - देव की बात तो समझा । शास्त्र और गुरु कैसे पूज्य हैं ? सुबोधचन्द्र-शास्त्र तो सच्चे देव की वाणी होने से और मिथ्यात्व, रागद्वेष आदि का अभाव करने एवं सच्चे सुख का मार्ग-दर्शक होने से पूज्य हैं। नग्न दिगम्बर भावलिंगी गुरु भी उसी पथ के पथिक वीतरागी सन्त होने से पूज्य हैं। राजू- हमारे विद्यागुरु, माता-पिता आदि भी तो गुरु कहलाते हैं। क्या उनकी भी पूजा करनी चाहिए? सुबोधचन्द्र-लौकिक दृष्टि से उनका भी यथायोग्य आदर तो करना ही चाहिए, पर उनके राग-द्वेष आदि का अभाव नहीं होने के कारण मोक्षमार्ग में उनको पूज्य नहीं माना जा सकता । अष्ट द्रव्य से पूजनीय तो वीतरागी सर्वज्ञ देव, वीतरागी मार्ग के निरूपक शास्त्र और नग्न दिगम्बर भावलिंगी गुरु ही हैं। राजू- यह तो समझा कि देव-शास्त्र-गुरु की पूजा करना चाहिए, पर यह भी तो बताइये कि इससे लाभ क्या है? सुबोधचन्द्र - ज्ञानी जीव लौकिक लाभ की दृष्टि से भगवान की आराधना नहीं करता है, उसे तोसहज ही भगवान के प्रति भक्ति का भाव आता है। जैसे धन चाहनेवाले को धनवान की महिमा आये बिना नहीं रहती, उसीप्रकार वीतरागता के उपासक अर्थात् मुक्ति के पथिक को मुक्तात्माओं के प्रति भक्ति का भाव आता ही है। राजू-तो क्या ! भगवान की भक्तिसेलौकिक (सांसारिक) सुख नहीं मिलता? वीतराग-विज्ञान भाग -३ सुबोधचन्द्र - ज्ञानी भक्त सांसारिक सुख चाहते ही नहीं हैं, पर शुभ भाव होने से उन्हें पुण्य-बंध अवश्य होता है और पुण्योदय के निमित्त से सांसारिक भोग-सामग्री भी उन्हें प्राप्त होती हैं; पर उनकी दृष्टि में उसका कोई मूल्य नहीं। पूजा-भक्ति का सच्चा लाभ तो विषय-कषाय से बचना है। राजू-तो पूजा किसप्रकार की जाती है? सुबोधचन्द्र - दिन में छने हुए जल से स्नान करके धुले वस्त्र पहिनकर जिनमंदिर में जिनेन्द्र भगवान के समक्ष विनयपूर्वक खड़े होकर प्रासुक द्रव्य से एकाग्रचित्त होकर पूजन की जाती है। राजू-प्रासुक द्रव्य माने ............ सुबोधचन्द्र - जीव-जन्तुओं से रहित सुधे हुए अचित्त पदार्थ ही पूजन के प्रासुक द्रव्य हैं। जैसे- नहीं उगने योग्य अनाज-चावलादि, सूखे फल-बादाम आदि तथा शुद्ध छना हुआ जलादि। राजू-बिना द्रव्य के पूजन नहीं हो सकती क्या? सुबोधचन्द्र - क्यों नहीं ? पूजा में तो भावों की ही प्रधानता है। गृहस्थावस्था में किन्हीं-किन्हीं के बिना द्रव्य के भी पूजन के भाव होते हैं। किन्हीं-किन्हीं के अष्ट द्रव्यों से पूजन के भाव होते हैं और किन्हीं-किन्हीं के एक-दो द्रव्य से ही पूजन करने के भाव होते हैं। राजू- यह तो समझा, पर पूजन की पूरी विधिसमझ में आई नहीं ....। सुबोधचन्द्र-तुम तो यहीं खड़े-खड़े बातों में ही सब समझ लेना चाहते हो । कल प्रात: मेरे साथ पूजन करने मंदिरजी चलना । वहाँ देखकर पूरी विधि अपने आप समझ में आ जावेगी। राजू- हाँ ! हाँ ! अवश्य चलूँगा । मुझे मात्र विधि ही नहीं समझना है। मैं भी प्रतिदिन पूजन किया करूँगा। सुबोधचन्द्र-तुम्हारा विचार अच्छा है। सांसारिक आकुलताओं व अशुभभाव से कुछ समय बचने के लिए यह भी एक उपाय है। प्रश्न - १. पूजा किसे कहते हैं ? पूजा किसकी की जाती है और क्यों ? २. पूजा का फल क्या है ? ज्ञानी श्रावक भगवान की पूजा क्यों करता है ? ३. प्रासुक द्रव्य किसे कहते हैं? क्या बिना द्रव्य के भी पूजन हो सकती है? १. अध्यापकों को उक्त पाठ पढ़ाते समय छात्रों को यथासमय मंदिर ले जाकर पूजन की पूरी विधि प्रयोगात्मकरूप से समझाना चाहिए। 5Page Navigation
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