Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 86
________________ उपादान-निमित्त की स्वतन्त्रता 73 योग्यता है, तब फिर जहाँ तक चारित्रगुण की पर्याय में विकार होने की योग्यता होगी, वहाँ तक विकार होता ही रहेगा? ऐसा होने पर विकार को दूर करना जीव के आधीन कैसे रहा? उत्तर - प्रत्येक समय की स्वतन्त्र योग्यता है - ऐसा निर्णय किस ज्ञान में किया है ? त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख हुए बिना, ज्ञान में एक-एक समय की पर्याय की स्वतन्त्रता का निर्णय नहीं हो सकता और जहाँ ज्ञान, त्रिकाली स्वभाव के सन्मुख हुआ, वहाँ स्वभाव की प्रतीति के बल से पर्याय में से राग-द्वेष होने की योग्यता प्रतिक्षण घटती ही जाती है। जिसने स्वभाव का निर्णय किया, उसकी पर्याय में अधिक समय तक राग-द्वेष रहें, या अनन्तानुबन्धी रागद्वेष रहें; ऐसी योग्यता कदापि नहीं होती - ऐसा ही सम्यक् निर्णय का बल है और मोक्ष इसका फल है। ... कार्य में निमित्त कुछ नहीं करता तथापि उसे 'कारण' क्यों कहा गया है? कार्य के दो कारण कहे गये हैं। इनमें एक उपादानकारण ही यथार्थ कारण है, दूसरा निमित्तकारण तो आरोपित कारण है। उपादान और निमित्त, इन दो कारणों के कहने का आशय ऐसा नहीं है कि दोनों एकत्रित होकर कार्य करते हैं। जब उपादानकारण स्वयं कार्य करता है, तब दूसरी वस्तु पर आरोप करके उसे निमित्तकारण कहा जाता है किन्तु वास्तव में दो कारण नहीं हैं, एक ही कारण है । जैसे मोक्षमार्ग दो नहीं, एक ही है। प्रश्न - जब निमित्त वास्तव में कारण नहीं है, तब फिर उसे कारण क्यों कहा?

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