Book Title: Vastu Vigyansar
Author(s): Harilal Jain, Devendrakumar Jain
Publisher: Tirthdham Mangalayatan

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Page 104
________________ अज्ञानी को व्यवहार का सूक्ष्म..... है, उसकी अवस्था में जो वर्तमान अशुभ अवस्था होती है, उसे छोड़ने को जीव का मन होता है क्योंकि अशुभ से शुभ में वीर्य को युक्त करना, वह स्थूल कार्य है। नग्न दिगम्बर जैन साधु होकर पञ्च महाव्रत का शुभराग तथा देव-गुरु-शास्त्र की परलक्ष्यी श्रद्धा करके, उनकी कही हुई बात स्थूलरूप से ध्यान में लाने पर भी, जीव के सूक्ष्मरूप में व्यवहार की पकड़ रह गयी है, इसलिए उसे सम्यक्त्व नहीं हुआ है । 91 ज्ञान में शुभ और अशुभ दोनों को ही लक्ष्य में लेकर, जीव अपने भाव को अशुभ में से शुभ में बदल देता है, परन्तु यदि शुभराग से भी पार निज स्वभाव की ओर ढले तो व्यवहार का पक्ष छूट जाए और सम्यक्त्व हो जाए। (परन्तु यह कार्य नहीं करता ।) 'राग मेरा स्वरूप नहीं है ' - यह विकल्प भी राग है। मैं जीव हूँ, विकार मेरा स्वरूप नहीं है; इस प्रकार नव तत्त्वादिक के विकल्प में वीर्य का बल रुका रहे परन्तु स्वभाव में झुकने के लिए वीर्य की उन्मुखता काम न करे तो कहना होगा कि वह व्यवहार की रुचि में अटक रहा है; उसका झुकाव निश्चयस्वभाव की ओर नहीं है। जिस वीर्य का झुकाव निश्चयस्वभाव की ओर ढलता है, उस वीर्य में व्यवहार का पक्ष अवश्य छूट जाता है; इसलिए अनन्त तीर्थङ्करों ने निश्चय के द्वारा व्यवहार का निषेध किया है। स्वभावदृष्टि के बिना मिथ्यादृष्टि जीव यदि बहुत करे तो अशुभभाव को छोड़कर शुभभाव तक आता है और शुभभाव में ही उसके ज्ञान का लक्ष्य स्थिर हुआ है; वहाँ से हटकर त्रिकाली स्वभाव पर ज्ञान का लक्ष्य स्थिर नहीं करता; इस प्रकार जब तक स्वभाव की

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