Book Title: Varddhaman Mahavira
Author(s): Nirmal Kumar Jain
Publisher: Nirmalkumar Jain

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Page 23
________________ का दीप बुझता है तो आत्मा का सूर्य उदित हो जाता है। यही वह दाशंनिक मृत्यु हूं जिसका ज़िक्र महावीर ने निर्वाण शब्द के द्वारा किया। महावीर के दर्शन की अनोखी बात है - अपूर्ण मत्य । महावीर स्वयं अजिन हैं, दुर्जेय आत्मा को जीन चुके हैं। वे केवली हैं । परन्तु दार्शनिक तल पर जो भी चर्चा उन्होंने अपने शिष्यों में की है वह परमार्थिक नहीं है, व्यवहारिक है। पूर्ण सत्य की चर्चा नही की जानी । वह अनुभव का विषय है । बात तो करनी है केवल मार्ग की । मार्ग पर चलने वाले को मंजिल माफ नही दीखती । दूर गांव के बटोही को दूर का गांव यात्रा का पग रखने ही नही दीखता । पहले जामुन का पेड़ दीख रहा है, फिर पनघट । फिर वह मन्दिर आया जिसके बाईं ओर की पगडंडी पर उसे जाना है। कोई उसे सारे मोड़ एक साथ बना दे तो वह भ्रमित हो जायेगा । मही समझाने वाला उसे कुछ दूर तक का रास्ता ममझायेगा और कहेगा कि बाकी आगे पूछ लेना । महावीर भी यही कह रहे हैं । उन्होंने चरम सत्य की ओर शिप्यों का ध्यान नही खींचा । उन्होंने अपूर्ण सत्य बताये । उस युग में उपनिपदों के चिन्तन के बाद साधारण लोग भी जिज्ञामा करने लगे थेचलो जनक के दरबार में । वहां लोग बताते है वह प्रकाश कौन सा है जो सूर्य के भी पीछे दमक रहा है । ब्रह्म और आत्मा का निराकार रूप सर्वविदित हो चला था । उस युग में भी महावीर ने एक ऐसी बात कही जो बहुत से आधुनिक दार्शनिकों को बचकानी लगेगी। उन्होंने कहा कि जिम शरीर में आत्मा प्रवेश करती है उसी आकार की हो जाती है। यह सुनकर बहुत से तत्वज्ञ हंसे कि जो इम तरह घट-बढ़ रही है वह आत्मा नही है । महावीर सुकरात की तरह दार्शनिक विवाद नही कर रहे थे । उनका तरीका Dialectical नही था जो अधिकांश तत्वज्ञों का रहा । शंकराचार्य और नागार्जुन का तरीका भी Dialectical था। इस तरीके से उस सत्य की दिमाग़ी बहस हो सकती थी जो अन्ततः है । परन्तु 12

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