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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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वद्धमान महावार
निर्मल कुमार
की
दार्शनिक वार्ताओं का संकलन
निर्वाण समिति मजफ्फरनगर के सौजन्य से
नेशनल प्रिंटिंग वर्क्स (टाइम्स आफ इण्डिया प्रेस)
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मूल्य : अमूल्य
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प्राक्कथन
यह हमारे लिये अत्यन्त मौभाग्य का विषय है कि श्री निर्मल कुमार जैन भगवान महावीर के २५००वें निर्वाणोन्मव पर हमारे ही जिले में अतिरिक्त जिलाधीश (नियोजन) के रूप में रहे। ममय-ममय पर अनेकों आयोजनों में इनकी वार्ताएं सुनने को मिली जिनमे जनपद मुजफ्फरनगर के बौद्धिक जीवन के विकाम में अभूतपूर्व योगदान मिला। लोग उनके ओजपूर्ण और माग्गभिन विचारों को मनकर अक्मर अचम्भित होने है कि इतनी अल्प आयु में उन्होंने कहां से इतना ज्ञान और गहरी नज़र प्राप्त कर ली। विचारों की गहनता और अत्यन्त मौलिकना श्री जैन की विशेषता है परन्तु उनकी सबसे बड़ी विशेषता है किसी भी प्राचीन विचार को आधुनिक मंदर्भ में रखकर आज के जीवन से उसका मूल्यांकन करने की। विद्वता, महजता एवं आधुनिकता का ऐसा विचित्र ममन्वय बहुत मुश्किल में देखने को मिलता है। श्री जैन निःसंदेह देश के एक अन्यन्त उच्चकोटि के मौलिक विचारक और ओजपूर्ण वक्ता हैं जो हिन्दी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं पर ममान अधिकार रखते हैं। यह प्रशानिक सेवा का भी सौभाग्य है कि एक ऐसा सर्वथा मौलिक विचारक और अत्यन्त सहृदय मानव शासकीय सेवा को अपना जीवन अर्पित किये हुए है।
इस युवा कर्मयोगी ने हमें बताया कि किस तरह ऊंचे से ऊंचे
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विचार भी गेजमर्ग के व्यवहार में उतारे जा सकते हैं। एक सजग ग्ण-बांकुर योद्धा की नग्ह इन्होंने ममाज की नकागत्मक, निष्क्रिय और प्रमादमयी शक्तियों को ही नवजीवन और नये गप्ट का निर्माण करने वाली शक्तियों के स्रोत में बदला है । वैचारिक मौलिकता के माथ यह विलक्षण व्यवहारिक प्रतिभा देकर ईश्वर ने इन पर जो अगीम अनुकम्पा की है उसके उपयवन गष्ट्र और मनप्य जानि की सेवा का वन जगाकर पृथ्वी माना ने उन्हें उन महान गणों को बिना विचलित हुए धारण करने की योग्यता भी दी है। वृक्षारोपण अभियान में हमें इमका प्रमाण देखने का अवमा मिला । जहां दो वर्ष पूर्व केवल तीस हजार वृक्ष माल भर में लगे थे और जहां का प्रगतिशील किमान वृक्षों को बेनी का दुश्मन मममता था उम जनपद में इन्होंने एक ही वर्ष में माद पांच लाख वृक्ष लगवाये। हम लोगों ने देखा किम तरह इन्होंने गांव-गाव में घूमकर लोगों को मन्दर फलदार वृक्ष लगाने का आव्हान किया। आज इम जनपद का जनमानम जानता है कि मुन्दर प्रकृति मनुष्य के हृदय और मस्निाक के मैल धो देती है।
हमेशा प्रसिद्धि मे दूर रहने वाले, कर्तव्यनिष्ठ दम युवा अधिकारी की वार्ताएं, इनकी अपने प्रकाश को छुपाये रखने की प्रवृनि के कारण, छुपी न रह जायं इमी उद्देश्य को लेकर भारतीय साहित्य परिपद् ने सप्रू हाउम दिल्ली में अपूर्व दार्शनिक संध्या आयोजित की जिसका उद्घाटन माननीय डा. कर्णमिह (मंत्री भारत मरकार) और सभापतित्व गप्ट्रकवि श्री मोहनलाल द्विवेदी ने किया। इसमें देश के अनेक लब्ध प्रतिष्ठित विद्वानों ने भाग लिया । भारतीय साहित्य परिषद् के कुछ कर्मठ सदम्य हमारी तरह श्री निर्मल कुमार की अभूतपूर्व प्रतिभा का चमत्कार देख चुके है । अकेले निरन्तर सत्य अन्वेषण में लगी इस सर्वथा मौलिक प्रतिभा को उन्होंने प्रमुख बक्ता बनने पर मजबूर
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किया। उनकी वही वार्ता इस संकलन का प्रमुख अंग है।
हमें विश्वास है कि उनके विचारों से भगवान महावीर का चिन्तन आधुनिक युवा वर्ग के लिए ग्राह्य और अर्थपूर्ण हो सकेगा। पदाधिकारी एवं सदस्य महावीर निर्वाण समिति, मुजफ्फरनगरः
योगेन्द्र नारायण, I.A.S.. जिलाधिकारी एवं संरक्षक विद्याभूषण, अध्यक्ष मीटी बोर्ड, कार्यवाहक अध्यक्ष गुलशन राय जैन, उपाध्यक्ष उमाशंकर पाठक, परियोजना अधिकारी, मंत्री रामपाल भारद्वाज, I.A.S., कमिश्नर (रि०) जगबीर सिंह, अध्यक्ष जिला कांग्रेम शफ़कत जंग, M.P. विजयपाल सिंह, M.P. वरुण सिंह वर्मा, अध्यक्ष जिला परिषद् हुकुम सिंह, M.L.A. मलखान सिंह, M.L.A. चितरंजन स्वरूप, M.L.A. राजरूप सिंह वर्मा, मम्पादक, दैनिक देहान कुसुम शर्मा, मंत्री अन्त० महि० वर्ष ममिनि त्रिलोकचन्द्र जैन, अध्यक्ष, इन्जीनियरिंग इन्डस्ट्रीज एमोसियेशन
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कृतज्ञता इन वार्नाओं को पुम्नकाकार करने में, फाइनल प्रफ चैक करने में तथा इमके प्रिंटिंग को अपनी कुशल देखरेख में मरुचिपूर्ण और शुद्ध करने में नियोजन विभाग के श्री विषण गर्माएवम् श्री श्यामलाल जैन ने जो मगहनीय कार्य किया है उसके लिये हम उनके अत्यन्त कृतज है। ____माह रमेशचन्द्र, मैनेजर, टाइम्म आफ इण्डिया ने इन वार्नाओं के प्रकाशन में स्वयं रूचि ली है और अम्वस्थ होते हुए भी पग-पग पर इमके मन्दर प्रकाशन के लिये निर्देश दिये है। श्री निर्मल कुमार के गहन और मौलिक चिन्तन तथा विचारों को जिम मक्त हृदय में उन्होंने मगहा है वह उनकी अपनी दार्शनिक नज़र, माहित्यिक चेतना और स्वतंत्र चिन्नन की द्योतक है । उनमे अनेक म्पों में जो महयोग मिला है हम उसके लिये अत्यन्त कृतज है।
हिन्दी के लब्ध प्रतिष्ठिन उपन्यामकार एवं दार्शनिक पप्रभूषण श्री जैनेन्द्र कुमार के हम अत्यन्न अनुग्रही है । उन्होंने इन वार्ताओं को चाव मे पढ़ा और इन सर्वथा मौलिक एव मारगभित विचारों का स्वागत किया है। यह उनके हृदय की मजीवता और सत्यग्राहिता का परिचायक है।
महावीर निर्वाण समिति मुजफ्फरनगर (उ. प्र.)
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स्वागत
हिन्दी साहित्य और विचार क्षेत्र मे इस नये हस्ताक्षर और नवीन प्रतिभा के आगमन की सूचना देने एवं स्वागत करते मझे आन्तरिक हां है। पुस्तिका यह मंक्षिप्त है, केवल दो वार्ताएं और एक काव्यकृति मकलन मे गभित है । परन्नुप्रनिभा की छटा हठात् पाठक को प्रभावित किये बिना न रहेगी।
गत दिवाली में दिवाली नक का वर्ष भगवान महावीर निर्वाण की पच्चीमवी शताब्दीका मम्पूनि मम्वत्मर था। इम महावमर को जनोने उनी उल्लाम में मनाया। गाभर का उममे योग रहा। ये वार्ता और काव्यकृति उसी उपलक्ष्य मे लेखक मे अनायामप्राप्त हुई और अब प्रकाश मे आ रही है। वार्ताकार श्री निर्मल मम्प्रदाय के नाते जैन नहीं है, इसलिए वह विशेपण उन पर तनिक भी मीमा नही लाता । उनकी विद्वत्ता अबाधिन और मौन्दर्यबोध मक्त है। उन्होंने हिन्दी में काफी लिखा है
और ममानक्षमता में अंग्रेजी में भी वह लिम्बने रहे है । एक वृहद् उपन्याम नयार है और काव्यांग की नो मीमा नही। पर उम मब मामग्री के प्रकाशन के विषय में वे ननिक भी आतुर नहीं, प्रन्यन विमग्न रहे है। अचरज होता है कि वरिष्ठ और व्यम्नप्रशामनाविकारी होने पर भी वे इनना विपुल और श्रेष्ठ माहिन्य कर्म लिम्व पाये।
में मोचने लगा था कि जैन धर्म पथ बन गया है, दर्शन मत भर रह गया है। मव नियन और नियक्त है, कुछ निगढ़ बचा नहीं है जहां में नव नवोन्मेप फूटे और नई उद्भावनाएं जगं । निर्मल जी की महावीर जीवन और तन्व की मौलिक व्याख्याओं ने मेरी धारणा को झकझोर डाला है। जैन दर्शन के अनेकानेक पारिभापिक शब्दों के प्रतीक मर्म का इम रूप में उन्होंने उद्घाटन किया है कि
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दार्थ छिलके की तरह उतर रहता और वह गूढार्थ सर्वथा सम्प्रदायनीन और मार्वजनीन हो आना है।
इन पंक्तियों में पाठक कुछ बहुत क्रान्तिकारी और चमत्कारी प्रमेय पायेंगे । लेखक का मानना है कि “मनोवैज्ञानिक मानम दार्शनिक मृत्यु के लिए विह्वल बना स्वयं आहुन होता है तो आत्मा का सूर्य उदय में आना है। यही दार्शनिक मृत्य है जिमकी स्थापना महावीर ने निर्वाण गब्द के द्वाग को"। जैन पान्थिकों के आगे उनका प्रश्न है "क्या महावीर की वाणी में मामयं नहीं है कि वह कर्मशक्ति को प्रेरित करे? फिर जैन विवेचना अममर्थ क्यों है? " "बौद्धिक ज्ञान का व्यवहारीकरण तप है"। "विपरीनों को जोनने का मार्ग विरोध नहीं। वपरीत्य को अनावश्यक बनाना है" "गहन मनोविज्ञान बतायेगा कि मांकेतिक 'गृहत्याग' मफल जीवन के लिए आवश्यक है।" "इन मांसारिक सम्बन्धों के महत्वहीन रूप को ममझो, फिर घने वनों में अपनी अकेली आत्मा पर ममम्न उपद्रवों को महो तब आत्मा में घावक जगेगा । आत्मा पगक्रमी, और तेजोमय होगी। तभी ज्ञान का यज्ञ शुरू होगा"। "एक जीवन है जो जीवशास्त्र का विषय नही, वह बढ़ने, घटने, उगने जमी क्रिया में मान है" । "यह कहना गलत होगा कि पत्थर में जीव है, तीर्थकर विचार के अधिक निकट यह है कि पत्थर स्वयं जीव है "। इस प्रकार की अनेक स्थापनाएं है जो महमा हमें चकित कर देती है। उनके मनन मे सप्ट हो जाता है कि प्रवक्ता ने पूर्व और पश्चिम दोनों के दार्शनिक मन्तव्यों का तुलनात्मक अध्ययन करके अपने निष्कर्षों को उपलब्ध किया है । मुझे विश्वास है इस लेखक की वाणी और लेखनी प्रबुद्धजनों का ध्यान आकर्षित करेगी और इस नवाविष्कृत साहित्यकार को समुचित मान्यता प्राप्त होगी।
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समपरा _मां और पिता जी को जिन्होंने संयम और शील का जीवन जोकर हम भाई-बहनों को धर्म का उपदेश कर्मों से दिया ।
ज्यों-ज्यों जीवन आगे बढ़ा
मेरे नेत्र सम्यक चरित्र के ऐसे नमने देखने को तरसने लगे। तब मैने जाना विधि ने कैसे बिन मेरे मांगे
ये मनुष्य रन हमारे ही घर मे रख दिये थे।
"निर्मल
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यह वार्ता भारतीय साहित्य परिषद् द्वारा भगवान महावीर के
२५०० वें निर्वाणोत्सव पर सपू हाउस, नई दिल्ली में दिनांक २१ जनवरी, १९७५ को आयोजित सभा में
दी गई। विशेष विवरण परिचर्चा
'वर्तमान ममाज के संदर्भ में बद्धमान महावीर और उनका दर्शन' उद्घाटन
डॉ.कर्णसिंह, मंत्री, म्वास्थ्य एवं परिवार नियोजन मुल्य अतिथि "श्री केदारनाथ साहनी, महापौर, दिल्ली अध्यक्ष
राष्ट्रकवि पं.सोहनलाल द्विवेदी, अध्यक्ष, केंद्रीय भारतीय माहित्य परिपद प्रमुख वक्ता
श्री निर्मल कुमार जैन (जैन दर्शन के मर्मज विद्वान्) सम्भागी
श्री जैनेन्द्र कुमार (प्रख्यान माहित्यकार) डॉ गमचन्द्र पाडेय (प्रसिद्ध विचारक)
श्री अक्षयकुमार जैन (प्रधान सपादक, नवमाग्न टाइम्म) अध्यक्ष
श्री यशपाल जैन (भाग्नीय माहित्य परिषद, दिल्ली प्रदेश) मंत्री
श्री जीतसिंह 'जीत' (माग्नीय माहित्य परिषद, दिल्ली प्रदेश) स्वागत समिति
श्री शान्तिलाल जैन, श्री मलेकचन्द जैन, श्री महावीर प्रमाद जैन सह-संयोजक
श्री विनोद विभाकर संयोजक
सुभाष जैन
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वर्तमान समाज के संदर्भ में वर्द्धमान महावीर और उनका दर्शन
अध्यक्ष महोदय, विद्वजन, सम्मानित देवियो और मज्जनों,
आज की इस वार्ता में मेने आधनिक जीवन की कुछ बेमिक समस्याए चनी है जिनमे प्रत्येक मनष्य परेशान है और यह बताने की चेष्ठा की है कि उनका हल महावीर के विचारो में है । किसी जन्मजात विश्वास को में व्यवत नही करना चाहता । उन समस्याओं का हल ढहने की चेष्ठा सभी देशों में मनीषी कर रहे है । उनकी चेष्ठाओं की ओर भी में आपका ध्यान स्वीचगा और गहराइयो के इम मंथन में आप पहचान लेंगे कि उनके हल निदान नही है ।
आज के मानव की सबसे बडी समस्या हे व्यक्तित्व का विघटन (Loss of individuality ) | काफका टालस्टाय, दोस्तोवस्की मे लेकर हे मिग्वे, मात्र, पास्टरनेक सभी ने इस पीड़ा का अनुभव किया । कितना दामण है जीना जब भीतर जीवन एक मगठित धारा के रूप में महसूस न होकर, बिम्ब पारे जैसा लगे । ऐसा क्यों है? इसका निदान क्या है ? दुमरी समस्या जो मैंने चुनी है वह आधी मानवता की सबसे ज्वलन्त समस्या है | वह है नारी विक्षोभ । शायद पहली बार इतिहास में नारी एक सामूहिक विद्रोह की तैयारी कर रही है। लिब मुवमेण्ट, नारी शक्ति जागरण आदि लक्षण हे एक घिरकर आते भयानक तूफान के । आज हम इसकी भीषणता को नही महसूम कर रहे हैं । परन्तु शायद कोई भी वनग मनथ्य जाति पर इतना भयानक ही है जितना यह । आज नागे रुष्ट हो गई है। आज प्रश्न कर रही
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है वह धर्म, संस्कृति, दर्शन मवमे कि आखिर उसे घटिया क्यों समझा गया? उमे नरक का द्वार क्यों ममझा गया? वह पूछ रही है उमका स्थान क्या है? उसे मंनोपजनक उत्तर न मिलेगा तो उसकी संतति उमका क्लेग लेकर पैदा होगी। इम ममम्या पर महावीर के विचार बिल्कुल मौलिक और मन्य के निकट है । उनका मन्य-अन्वेषण कटुयथार्थ को ममन्विन कर रहा है । उन्होंने न तो नारी उपासकों का मार्ग चुना न उनका जिन्होंने नारी को नरक का द्वार माना। उस जिनपुरुष ने यथार्थों में मग्ख नहीं मोड़ा। उमने वे आदि भूलें बताई जिनके कारण मघर मन्य इनने कटु यथार्थों में टूट गया। यदि महावीर के नारी के प्रति विचार मही तरह से अपना लिये जाने नो आज यह स्थिति न होती। आज भी यदि उन्हें ममझ लिया जाय तो लिब मुवमेण्ट आदि के द्वाग मानवीय शक्ति व्यर्थ न होगी। इम ममम्या का, पुरुपनारी के बीच द्वैत भाव का, अन्त हो जायेगा।
एक प्रमुख प्रश्न आज मनप्य के मामने यह है कि वह है क्या? एग्जिम्टेमियलिम्ट्स (Existentialist) यह प्रश्न पूछ-पूछ कर मनम-उद्वेलिन कर रहे है । हाइनरिच हाईन ने ये प्रश्न पूछे माधारण लोगों में। और फिर्केगाड, जामपर्म, मात्र, हमर्ल ने ये प्रश्न हर साधारण क्लर्क, व्यापारी, वकील, पत्रकार के रोजाना के प्रश्न बना दिये है । शंकगचार्य ने "अहं ब्रह्मोम्मि" कहकर इम प्रग्न को हमेशा के लिये गान्त करना चाहा था। पर प्रश्न ऐमे गान्त नहीं होते। बर्फ पर फिमलती वर्फ की एक गेद की तरह मनुष्य की आत्मा उलझनों, दुर्वासनाओं, तंगियों, अपगधों का एक गोला बनती जा रही है। उसका नित्य, शुद्ध, बुद्ध रूप कही देखने में नहीं आता । इम विषय पर महावीर किम तरह सर्वथा मौलिक और यथार्थवादी हैं यह भी इस बार्ता का विषय है।
में यह भी कहना चाहूंगा कि महावीर से सात्विक विचारक नहीं है जो केवल गुणों से ही व्यक्तित्व की रचना करते हैं। वे काले
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पानी का संगम रचने वाले तीर्थकर है । वे मर्वथा व्यवहारिक है। जब जीवन दुर्गुणों से भर जाय तो कमे उन दुर्गणों में भी चरित्र का निर्माण सम्भव है-यह अनोखी कीमियागरी महावीर बता रहे है ।
आज हम जो कुछ हैं उसे नजरअन्दाज करके चरित्र का महल नहीं बनेगा । उमे मजबूत आधार देने के लिये हमें अपने दुर्गणों को दुर्गणों से अप्रभावी (Neutralize) करना होगा। विप को विष से माग्ना सीखना होगा । दुर्गुण एक दूसरे को अप्रभावी कर देते हैं तो स्वतः गुणों में रूपान्तग्नि हो जाने है।
एक और प्रमख विपय महावीर के मंदर्भ मे है अहिंमा का। मनुष्य जानिदोटकड़ों में बंटी है-मांमाहारी (carnivorous) और मनप्यभक्षी (cannibal)। कुछ नोमाम ग्यान हं पगओं का । परन्तु जो अहिंमावादी है उनमे मानमिक हिंगा है मामाहागियों के प्रति । अतः उनकी अहिमा और भी जघन्य हिमा है। वे मानमिक नल पर मामाहाग्यिों पशुवध का बदला ले रहे है। उनके प्रति तीन घणा और कोप है उनमे । इम तरह केवल पशु मांम का त्याग मनप्य को उत्कृष्ट ािन में नहीं ला मकना । यथार्थ यह है कि यह उसे और भी निकृष्ट बना रहा है । इसका कारण है कि हम अहिमा को मही अर्थों में नहीं समझ सके । मनुष्य की आत्मा आक्रामक है। दम आक्रामकता का उद्देश्य वह आदिकाल में नहीं ममझा और इमकी अभिव्यक्ति उमन परावध में दृढ ली। पशवध को उमने रोका तो यह आक्रामकता पगवध करने वालों के प्रनि प्रतिहिमा में बदल गई । महावीर कहते है कि वह जो आक्रामकता का मही इम्तेमाल करना जानता है केवल वही हिंगा में मवत हो मकना है । इम आक्रामकता का उद्देश्य है निरन्तर उच्च स्थिति के लिये आत्मा का मंघर्प। जिम नल पर वह है वहां उसे दार्शनिक मृत्यु को प्राप्त होना है जिसमे उमका पुनर्जन्म हो आन्तरिक मौन्दर्य में। इस अनोखी मृत्यु को प्लेटो ने भी जाना था। महावीर की अहिंमा केवल हिमा का निषेध नहीं, आक्रामकना का मही उपयोग है । वह सिंह
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पुरुप कह रहा है कि आक्रामकना का मही उपयोग नहीं करोगे तो अहिमा तुम्हें और भी निम्न कोटि का हिमक बना देगी। महावीर ने मोक्ष के लिये आक्रमण किया। वे passive नहीं हैं। उन्होंने मनुष्य की आत्मा में बम इम आक्रामक तत्व को मही दिशा की ओर मोड़ा। उनकी अहिंमा का मार यही है।
___ इमी नग्ह ब्रह्मचर्य उनके लिये केवल सेक्स से विमुखता नहीं है। अपितु यह उम कौमार्य स्थिति में आत्मा का पुनः आम्द होना है जहां में वह चार निम्न स्थितियों में गिरी थी। वे थी लज्जा के द्वाग माथी को मोहित करना, फिर लज्जा का त्याग करके यौन मख पाना, फिर यौन में घृणा का भाव और उसके माथ ही यौन माथी के प्रति प्रनिहिमा । महावीर एंगे ब्रह्मचर्य को दुगग्रह मानने है । यह स्थायी नही हो मकना । गम् यौवन में आत्मा मन्दरमम्वरूप है । उमके वाद वह प्रजनन हेतु एक निम्न स्तर पर उनग्नी है। आत्मिक मुन्दरता लज्जा में बदल जाती है । लज्जा आकर्षित करनी है । यौन चरम मुख उम लज्जा की मृत्य है । महावीर कहते हैं कि आत्मा निर्लज्जता मे न नो घृणा कर न प्रनिहिमा । अपितु पुनः उसी मन्दरम् की प्राप्ति हेतु नप करे । यही मच्चा और स्थायी ब्रह्मचर्य है। यही मन्दरम् की प्राप्ति उनमे वस्त्र त्याग कराती है। महावीर का मार्ग आत्मा को निम्न तलों पर neutralize करना है जिममे वह उच्च तल पर जग सके । इमीलिये उन्होंने कहा कि इम एक दुर्जय आत्मा को जीन लेने मे सब कुछ जीत लिया जाता है।
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प्रात्मा या जीव मनुष्य के जिम व्यक्तित्व का विघटन आज पूरे बौद्धिक जगत
को क्लान्त कर रहा है वह व्यक्तित्व है क्या? शेक्मपियर ने कहा कि हम अम्नित्व का एक क्षण है जिसे अज्ञान का अधेग घेरे हए है। वैज्ञानिक दृष्टि में यदि हम देखे तो भी हम पाते है कि हमाग जीवन कुछ वर्षों की एक कहानी है। कहा मे हम आये और कहा चले गये दमका उनर हमे विज्ञान नही देना। मनोवैज्ञानिको ने विशेषकर फायड और जग ने दम प्रग्न का उना देने की भग्मक चंटा की और निःमदेह मनप्य समाज उनकी नोजो का ऋणी है । जग ने अपने क्लिनिक में की गई खोजों के आधार पर मिद्ध किया कि मनाय का व्यक्तित्व चेतन और अचेतन इन दो भागों में बटा हुआ है । चेतन नो व्यक्तित्व का वह अग है जिसे मनाय मोच-समझकर चनकर अपना बनाता है । यह उमके विचार, भावनाओ, अनभव, इच्छाओं और आकाक्षाओं का वह ममूह है जो उसने अपने लिये चनी है। अचेतन उममे मृक्ष्म रूप मे मचिन मनग्य जाति का दनिहाम है । वह मभी शक्निए जिन्होंने कभी महाभाग्न और गमायण की लटाटा लड़वाकर मनुष्य कोदाम बनाया हमारे अचेनन मेमचिन है । एक जानिने दूमरी जाति का शोषण किया-ये मभी घटनाए छोटी-बड़ी शक्तियों का एक मुप्त ममूह बनकर मनप्य के अचेनन में पड़ी है। जैसे-जैम मनप्य बडा होता जाता है उसके चेतन पर अचेतन का अमर बढने लगता है। धीरेधीरे उमका वह चेतन व्यक्तित्व जो उसने अपने लिये चना था दव जाता है । और अचेनन की गनिए विकमिन होकर उममे जोर माग्ने लगती है। यही कारण है कि मनुष्य में धार्मिक अमहिष्णुता, पारी
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वारिक कलह, जातीय बैर आदि शक्तिएं विना उमके चाहे भी शक्तिशाली हो जाती है।
मनप्य का व्यक्तित्व केवल चेनन और अचेतन में ही नही टा है। इमं एक विशाल ईश्वरीय गक्नि मर्प की नग्हलपेटे हुए है। इसका नाम जग और फायड ने लिबिडो (Libido) रखा जिमका संस्कृन पर्यायवाची जग के अनमार लोभान है । जुग कहता है कि यह वही शक्ति है जो मयं में है और जिमे ग्वेताम्वर उपनिपद् में रुद्र कहा है। यह वह शक्ति है जो गिग में प्रगट होती है तो उसके शरीरका पोपण करनी है । यवा व्यक्ति में यह शक्ति वामना, कामकता बन जानी है । यही किन कभी आगे चलकर घोर वामना विरोधी वन जानी है । यह शक्नि जब दुनियां की चोट खाकर और प्रेम में पगजिन होकर अपने ही ऊपर लौट आती है तो व्यक्तित्व रुक जाना है। घड़ी की महा चलनी है परन्तु आत्मा के लिये ममय रुक जाता है। अधिकांश लोगों का जीवन यौवन की कुछ दिनों की चहल-पहल के बगद इमी तरह बन्द हो जाता है। नव उनकी आत्मा को यह लिबिडो (Libido) एक भयानक मर्प वनकर जकड लेती है जिमके पाग में घटती हुई हमारी आत्मा हर कीमत पर मक्ति चाहती है। यदि पाप करके आनन्द को उमे कुछ मांमें मिल सकें तो वह उमके लिये भी नैयार हो जाती है। ___मनोविज्ञान मनप्य की आत्मा में केवल इननी ही गहगई तक झांक पाया है। इममे आगे अभी उमकी पहुंच नही हो मकी। परन्तु शंकराचार्य, काण्ट, प्लेटो, हिगल, ब्रेडले आदि दार्शनिकों ने एक दूसरी ही तरह की आत्मा का जिक्र किया है। उनके अनमार मनोवैज्ञानिक जुग और फायड जिसे आत्मा कह रहे है वह माया है, प्रपच है। मनुष्य की आत्मा इससे परे है और वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वभाव है । वह ब्रह्म है । वेदान्तियों को यह बात सुनने में बहुत मुन्दर लगती है और अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग आत्मा की इस परिभाषा को स्वीकार
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करता है क्योंकि इममे उन्हे गौरव का अनभव होना है । मनाय होने में सम्मान महमम होता है। मगर वास्तव में यदि हम देखेनोमाधारण मनग्य का ज्ञान आत्मा के सम्बन्ध में फ्रायड और जग मे आगे नहीं बढ़ सका। जिम पग्म मत्य स्वरूप आत्मा का जिक्र वेदान्त तथा अन्य प्रबद्ध दर्शन करने है वह मर्वमाधारण के अनभव की चीज नहीं है । माधारण व्यक्ति अपनी आत्मा को जिम रूप में महमम करता है वह वही रूप है जो फ्रायड और जुग ने देया । टममें मदेह नही कि वह मिथ्या है। वह मत्य की विकृति है। परन्तु उममे आव मीच कर हम मन्य की प्राप्ति नही कर माने । दम मिथ्या स्वम्प का लय किये बिना उम दिव्य आत्मा का माक्षात्कार अमम्भव है। यही बात कहकर महावीर इन मभी दार्शनिकों में अलग हो जाने हैं। यह बात ध्यान में रखने योग्य है कि बद्ध ने आत्मा के सम्बन्ध में अनेक विवादों को मनकर एम झगडे में पड़ने मे इन्कार कर दिया था कि आत्मा अमर है या नही । उन्होंने आत्मवादियों के मन का ग्वण्टन निम्न वाक्य में किया था, "हम उमी नदी में दो बार प्रवेग नहीं कर सकने ।" मनाय के विचार, भावनाएं, इच्छाए प्रतिपल बदलती रहती है फिर यह कहना कि उमकी आत्मा अमर है हाम्याम्पद है। भगवान महावीर ने बद्ध का मार्ग भी नही अपनाया। उन्होंने इन अनंको उग्रवादो के बीच एक ममन्वय प्रस्तुत किया जो आज भी उनना ही उपयोगी है। वाग्नव में भगवान महावीर ने विज्ञान और मनोविज्ञान की उपेक्षा करकं विगी दर्शन का मार्ग प्रशम्न नहीं किया । उनका दगंन विज्ञान और मनोविज्ञान के मार्ग पर चलकर प्राग्न की गई आगे की एक मजिल है।
इस बात को लेकर अनेकों ने जैन विचाग्याग का मजाक उड़ाया है कि जैन यह कहते है कि आत्मा जिम गरीर में होती है उमी गरीर का आकार ग्रहण कर लेती है हाथी के शरीर में हाथी जैमा और चीटी के शरीर में चीटी जमा। वेदान्नियों ने नर्क किया कि जो चीज घटनी बढ़नी है वह आत्मा हो ही नहीं सकती। यह कोई नई
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बान नहीं है। उनमे बहुन पहले वेदों में भी यह वान कही गई है। इस बान में भगवान महावीर भी बहुन अच्छी तरह परिचित थे । परन्तु फिर भी उन्होंने कहा कि आत्मा गरीर का आकार ग्रहण कर लेती है। एक जानी पुम्प जब किमी बात को कहना है तो अल्पज्ञानियों को उसकी आलोचना में जल्दबाजी नही करनी चाहिये अन्यथा ज्ञान की जगह जिदों की लड़ाई शुरू हो जाती है और उम ज्ञानी के बाद साग तेज जिदों के यद्ध में वह जाना है।।
दरअमल महावीर जिम घटने-बढ़ने वाली आत्मा का जिक्र कर रहे वह मनोवैज्ञानिक नल की आत्मा है जिमका जिक्र फायड और जग कर रहे हैं। यह गरीर में आत्ममान है, गरीर की पीड़ा को अपनी पीटा समझती है। शरीर में विचारों और शब्दों मे इम तरह जड़ी है कि गरीर के कण-कण में व्याप्त है। यह वही आत्मा है जिसे जुग ने चेतन अचेतन और लिविडो का मंगठन कहा है। बिना इमको जाने कोई उम अजर-अमर आत्मा को नहीं जान मकता । महावीर का कहना वम इतना ही है । इस तरह कहने वाले महावीर अकेले नहीं हैं । वेदान्तियों में पहले श्वनाश्वर उपनिषद् में भी इम मनोवैज्ञानिक आत्मा के लिये कहा गया--"प्रत्येक प्राणी में वह उम प्राणी के आकार के अनमार रूप धर कर छुपा है, वह परमेश्वर हम मवको अपनी गुजलक में लपेटे हुए है। उमे जाने विना हम अमरता को नहीं जान मकने।"
महावीर और उपनिषदों के महर्षि एक ही बात कह रहे हैंआज जो कुछ तुम हो, चाहे जितने भी विकृत हो, उमे बिना जाने तुम अमर आत्मा को नही जान सकते । महावीर कहते है कि इस विघटित बौर बिग्वरी हुई आत्मा के टुकड़ों को पाम-पाम रखो, मनन करो कि यह टुकड़े हुए क्यूं, कौन मे गलत रास्ते हमने चुन लिये? इम नगह नुम अपने अतीत की भूल सुधारते हो। वे शक्तिएं जो गलत गम्तों पर लग गई सही रास्ते पर आ जायेंगी। तब यह मनोवैज्ञानिक आत्मा टेगी नहीं। आत्मा का विघटन रुक जाएगा। इसके बाद वह स्थिति होगी जहां इस
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तरह एक सूत्र में पिरोई हुई यह आत्मा एक दार्शनिक मृत्यु के लिये व्यग्र हो उठेगी। यह दीप बुझ जाना चाहेगा। इमकी आकांक्षाएं. वासनायें, स्वप्न, विचार, भावनायें सभी इसके साथ लात हो जाना चाहंगी। वह क्षण होगा एक नई मुबह का । अलबर्ट स्वेत्जर आदि पाश्चात्य विद्वान निर्वाण की इम परिभाषा से बहुत परेशान हुए थे और उन्होंने महावीर के विचारों को यह कहकर ठुकरा दिया कि ये हमें शन्य की ओर ले जाना चाहते हैं। परन्तु उन्होंने गायद पढ़ने में जन्दबाजी की या वह अपने यूरोपीय क्लामिकी पाठ को बहुन जल्दी भूल गये । महावीर ने कोई नई बात नहीं कही थी। इम दार्शनिक मृत्य का जिक्र नोप्लेटोने भी किया था। इसके मायने प्लेटो ने भी बतलाये थे। उसने कहा था कि इसके मायने शून्य में खोजाना नहीं है। जमे नीचे की मंजिल में टेप बन्द कर दें तो ऊपर मंजिल में पानी नह जाता है, उमी तरह जब मनोवैज्ञानिक आत्मा एक मत्र होने के बाद म्वतः मृत्य के लिये, निर्वाण के लिये, व्यग्र हो उठे तो आत्मा का वह दीप बन जाएगा जिसे हम आज नक आत्मा के रूप में जानने रहे है । परन्तु दमके मायने यह नहीं कि आत्मा गन्य में खो जाएगी। इसके मायने है कि पानी किमी उंचे तल पर चढ़ जाएगा। प्लेटो ने कहा था कि इस तरह मरकर मेरी आत्मा मत्यं शिवं मुन्दरम् के बीच पुनर्जन्म लेगी। यही वान महावीर ने और भी मग्ल ढंग से कही थी। परन्तु इसके माथ उनकी गर्न थी कि पहले मनोवैज्ञानिक आत्मा के टुकड़ों को जोड़कर एक करना होगा । जब तक मनोवैज्ञानिक आत्मा को मूग्न जुड़कर एक नहीं हो जाती तब तक कोई भी उच्च आत्मा हममें नहीं जगमकती। क्योंकि एक होने तक मनोवैज्ञानिक आत्मा में एक ही नड़प रहेगी वह यह कि किम तरह मै एक हो जाऊं। उसमे आगे की वान, निर्वाण की वान, वह मोच भी नहीं मपनी जबतक उसके टुकड़े जुड़ न जायं । उमके टुकड़े जुड़ने है मम्यक् दर्शन, मम्यक् ज्ञान और मम्यक् चारित्र्य मे। भगवान महावीर कहते है कि मत्यग्राही बनो। यह टूटी हुई आत्मा आप ही बताती चलेगी कि किस तरह उसे
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जोडा जाय । यह आप ही बनानी चलेगी कि रिम ममय क्या धर्म है, क्या मच्चा दर्शन और क्या चरित्र है। __परन्तु गायद पिछले ढाई हजार वर्षों में बद्धिजीवियों के लिये इतना घेयं रखना बहुत कठिन रहा होगा और उन्हे मविन के लिये छलांग लगाना ज्यादा धेयाकर लगा। उन्हें लगा कि महावीर का मयम बहुत कठिन है । और जब आत्मा ही ब्रह्म है और मर्वथा गद्ध और बद्ध है तो फिर इतना कठिन श्रम करने की जरूरत क्या है ? ग्मिी और छोटे गम्न में उमं जर लाया जा सकता है । उन्होंने कोशिश की । परन्तु उनकी कोगिग भाग्न की गलामी, दरिद्रता, गोपण और मग्ल दीन लोगो पर अत्याचार की कहानी बन गई । कापालिक, अघोरी तथा अन्य नात्रिक विद्याप प्रचढ होनी गई । मामाजिक जीवन में, व्यापार में, ननिकना क्षीण होनी गई। दनना बलिदान देकर भी वह अजर अमर आत्मा न मिल मकी । अब दो भयानक विश्वयद्धों के बाद मनप्य आत्मा की भीषण ट-कट का अध्ययन करके फायट और जग ने गेमाचक नथ्य प्रस्तुत किये । इम पाटमि में पहली बार महावीर को मही ढग मे ममझनं का हमें अवमर मिला है।
एक वान और मामने आती है वह यह कि महावीर कही पर आत्मा गब्द का प्रयोग कर रहे है और वहीं पर जीव शब्द का और दोनो गब्दो के अर्थ एक ही लगा रहे है । तो क्या वे जीव को आत्मा कह रहे हैं ? जीवित प्राणियो को इतना अधिक महत्व महावीर क्यों दे रहे हैं ? वेदान्तियो ने नो जीवन को मृत्य की नग्ह एक म्वान कहा है फिर जीव आत्मा कमे हो मक्ता है ? यहा पर भी यह बात बहुत मे श्रोताओ को शायद आश्चर्यमिश्रित प्रमन्नता दे कि ढाई हजार वर्ष पूर्व महावीर ने वह मन्दर ममन्वय आत्मा और जीव का प्रस्तुत किया था जो पाश्चात्य जगत प्लेटो और बर्गमा जैमी शक्तिशाली चिन्तन शक्तियों के बावजूद आज तक नहीं कर मका । प्लेटो ने भी वेदान्तियों की तरह उस अजर-अमर शाश्वत आत्मा पर जोर दिया ।
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उनका मार्ग जीवन मे दार्शनिक मत्रों मे, मध्मनाओ मे जाकर खो गया था। नीन्मे ने पहली बार इम अब्मट्रक्शन. ममता प्रेम, का विरोध किया। यह विरोध बर्गमा के दलानवाइटल, जीवन प्रवाह, में स्पष्ट रूप में मखरित हुआ और यगेप के विद्वानो के मग्निाको में नट्टानो पर गिग्ने प्रपात की तरह खिलना चला गया । बर्गमा ने कहा 'टो तुम्हे जीवन में मध्म निर्जीव नन्वो की ओर ले जाता है और उन्हें मन्य कहता है । मैं तुम्हे उन मध्म, बेजान तन्वो में जीवन की ओर आने का आव्हान करता हू । लाइवनीज ने भी अपने मोनेन्म का जोम्प बनाया वह आत्मा नही जीव के निकट था।
आज पश्चिम अपनी क्लामिकी दुनिया में अलग हो गया है। एक नाममा विद्रोह ने पश्चिम की प्रतिभा को खा लिया है । जिम आत्मा को प्लेटो और अग्म्टोटल मन्य कहते है उनके विरोध में नीन्मे, बर्गमा, फायड, जग द्वाग बनाई गई आत्मा खड़ी है जो वाग्तव में जीव है । क्लान्न थका हुआ, दृट्टा, हाग, वामनाओ में जर्जर, इच्छाओं और विचारों में घिग हुआ आज का यगेप उमजीव को यथार्थ ही नही सन्य मानकर दमकी अभिव्यक्ति में जी जान में लगा है। कोथिवम और आधनिक यवा वर्ग का विद्रोह दमी परम्पग में एक और चरण है।
यह हमाग मौभाग्य है कि हमारी दानिक परम्पग में महावीर ढाई हजार वर्ष पूर्व हो चक्र है और उमी गमय उन्होंने इन दोनों विचारधागओं का मगम बना दिया था जिमम ये हमारी जाति में कभी भी नलवार लेकर एक दूसरे में यद्ध न करे । जीव ही आत्मा है और आत्मा ही जीव है। दननी मग्लना मे हम दम बान को कह मकने है। जब तक मनोवैज्ञानिक आन्मा एक रूप में मर्गाठन नहीं हुई है और जब तक उमम म्वय मिट जाने की आग नहीं जगी है नव नक वह जीव है। और जब ममम्त इच्छाए, विचार, ग्वान आदि एक मूत्र में पिरोये जा चुके है और मनोवैज्ञानिक आन्मा दार्गनिक मृन्य के लिये विव्हल होकर जल जानी है नो जीव की जगह आत्मा प्रगट हो जाती है । जीव
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का दीप बुझता है तो आत्मा का सूर्य उदित हो जाता है। यही वह दाशंनिक मृत्यु हूं जिसका ज़िक्र महावीर ने निर्वाण शब्द के द्वारा किया।
महावीर के दर्शन की अनोखी बात है - अपूर्ण मत्य । महावीर स्वयं
अजिन हैं, दुर्जेय आत्मा को जीन चुके हैं। वे केवली हैं । परन्तु दार्शनिक तल पर जो भी चर्चा उन्होंने अपने शिष्यों में की है वह परमार्थिक नहीं है, व्यवहारिक है। पूर्ण सत्य की चर्चा नही की जानी । वह अनुभव का विषय है । बात तो करनी है केवल मार्ग की । मार्ग पर चलने वाले को मंजिल माफ नही दीखती । दूर गांव के बटोही को दूर का गांव यात्रा का पग रखने ही नही दीखता । पहले जामुन का पेड़ दीख रहा है, फिर पनघट । फिर वह मन्दिर आया जिसके बाईं ओर की पगडंडी पर उसे जाना है। कोई उसे सारे मोड़ एक साथ बना दे तो वह भ्रमित हो जायेगा । मही समझाने वाला उसे कुछ दूर तक का रास्ता ममझायेगा और कहेगा कि बाकी आगे पूछ लेना । महावीर भी यही कह रहे हैं । उन्होंने चरम सत्य की ओर शिप्यों का ध्यान नही खींचा । उन्होंने अपूर्ण सत्य बताये । उस युग में उपनिपदों के चिन्तन के बाद साधारण लोग भी जिज्ञामा करने लगे थेचलो जनक के दरबार में । वहां लोग बताते है वह प्रकाश कौन सा है जो सूर्य के भी पीछे दमक रहा है । ब्रह्म और आत्मा का निराकार रूप सर्वविदित हो चला था । उस युग में भी महावीर ने एक ऐसी बात कही जो बहुत से आधुनिक दार्शनिकों को बचकानी लगेगी। उन्होंने कहा कि जिम शरीर में आत्मा प्रवेश करती है उसी आकार की हो जाती है। यह सुनकर बहुत से तत्वज्ञ हंसे कि जो इम तरह घट-बढ़ रही है वह आत्मा नही है । महावीर सुकरात की तरह दार्शनिक विवाद नही कर रहे थे । उनका तरीका Dialectical नही था जो अधिकांश तत्वज्ञों का रहा । शंकराचार्य और नागार्जुन का तरीका भी Dialectical था। इस तरीके से उस सत्य की दिमाग़ी बहस हो सकती थी जो अन्ततः है । परन्तु
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महावीर व्यवहारिक चिन्तक थे । उन्हें अपने समय में व्याप्त मानवीय मनम की उलझनों, दुविधाओं का ज्ञान था। वे मनग्य को उन मानसिक द्वन्द्वों से मुक्त कर एकता में स्थित कर देना चाहते थे। उसी को उन्होंने ध्यान कहा । दिमाग को हठ द्वारा किसी केन्द्र पर लगा देने को उन्होंने ध्यान नही माना । जीवन में जो द्वन्द्व आज है वे एकत्व में अपना समायोजन करते चलें इसी को उन्होंने घ्यान कहा । महावीर ने जिम घटने बढ़ने वाली आत्मा का जिक्र किया वह मनोवैज्ञानिक आत्मा है। जिमे फ्रायड ने साइक्लोजिकल मेल्फ कहा । यह दुर्जेय और जिद्दी है। यह खरबूजे की तरह खरबूजों को देखकर रंग पलट देती है। महावीर ने कहा विनय, सदाचार, व्यवहारिक चिन्तन मे इम सहस्रमन्त्री मानमिक आत्मा को एकाग्र कर लो। इमे अनेक स्थलों पर मर जाने दो ताकि भीतर मुन्दरम् के बीच इमका पुनर्जन्म हो । जब ऐमा होगा तो यह आत्मा एक वायुविहिन स्थान पर निर्विघ्न जलनी लो की तरह हो जायेगी। इम आत्मा के मंयमिन, एकाग्र हो जाने पर आगे का मार्ग उमे आप दीव जायेगा । मानमिक यात्रा में बहुन मोड़ है। व्याम ने दम पथ को गहगई में जाने वाली मछलियों के मार्ग की नगह बनाया है जिम ट्रेम नहीं किया जा मकना । कही अचानक मोड़ है, वही अचानक मूल्य विपरीत हो जाते हैं। यह निरन्तर उर्ध्वना नहीं है। इमलिये महावीर ने पहले से वह आगे का मार्ग नहीं बनाया केवल उनना बताया जितना विना उलझाये बनाया जा मकना था और बाकी व्यक्ति पर छोड़ दिया। वह जव मार्ग पर लग जायेगा नोम्बयं उमी में वह दीप जल जायेगा जो आगे का मार्ग दिग्वायेगा। अभी तो जरूरी है कि वह प्रार्गम्भक दीप जल जाये । लोग आत्मा के उम विकृत रूप को अपने भीनर पकड़ मके जो वह हो गई है और उमे गद्ध करने का यन्न गर कर दे।
महावीर ने इम आत्मा को अन्यन्त दुर्जेय भी कहा है-"दुग्नयं चैव अप्पाणं । मब्वमप्पे जिए जियं"-क आन्मा को जीन लेने पर सब कुछ जीना जा सकता है। उन्होंने आत्मा को निन्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त
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म्वभाव नहीं कहा। यह दुर्जेय है। इन्द्रियों के द्वाग विषयों में प्रवृत्त है। इमं जीतना है। आज की दुनियाँ जान गई है कि अमर, गाश्वत, शुद्ध, बद्ध आमा की बात करना निग्यक है। इस परम पुनीन आत्मा का जिक्र एनन्वन हजागें वर्षों में करने आ रहे हैं। परन्तु मनुष्य म्वभाव दिन पर दिन कुटिर और दुम्ह होता जा रहा है। फिर दम दार्शनिक विवेचन से उपलब्धि क्या हुई? महावीर और बद्ध ने दम व्यर्थना को जान लिया था। पूगं मन्य की बात करना अपूर्ण जीवन में जीवन को प्रमादी बना देना है। वह पूर्ण मन्य उपलब्धि में पर है यह जानते ही हम हाथ-पाव माग्ना भी बन्द कर देंगे। हम मब डायगनीज बन जायेगे और टब मे पड़े रहेंगे या चरम और मादक वस्तुओं द्वारा चनना का विस्तार करने की नको रे दहने रहेंगे ताकि इम कनवेम पर वह विगट झलकता रहे। महावीरन अर्ग मन्यों की बात कही। अनेकान्तवाद बनाया। फिर भी कहा कि अपने मार्ग पर दृढ रहो क्योंकि अपूर्ण मत्य ही तुम्हे मिल सकता है। उमे ही लंकर तुम्हारी आत्मा व्यवहारिक पथ पर चले । उमी अपूर्ण मन्य को विकमिन और एकाग्र करनी चले । पूर्ण मन्य को न वह मममेगी न पाने की चेष्टा करेगी Inferiority महम्म कर प्रमादी जरूर हो जायगी।
हजारों वर्षों के मनप्य जीवन ने उपलब्धि क्या की ? आज भी हम में मनायों का गोपण करने, मनायों पर शामन करने की अमानवीय वृत्तिया क्यों है ? प्रजानत्र का यग आ गया-एक ऐमा विलक्षण युग जब सैनिक क्रान्ति के बाद मैनिक गामक गामन न करके प्रजानत्र की स्थापना कर रहे है। एक ऐमी अनहोनी बात जिसे प्राचीनकाल के लोग सुनकर चकिन हों और हमारे युग की प्रशमा करने न थकें । एक ऐमे युग में भी मनुष्य क्यों मनुष्य का गोपण उमी तन्मयता मे कर रहा है जिम तन्मयता में प्राचीनकाल में करता था? आज भी मनायों की नीलामी क्यों की जानी है ? एक फर्म में काम करने वाली प्राइवेट सैक्रेट्री को क्यों मालिक मन ही मन अपनी दामी से अधिक कुछ नही
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ममझता? एक बडा अधिकारी छोटे को क्यो दाम मे अधिक नहीं ममझता जिमे जुबान खोलने के लिये भी उमकी इजाजत चाहिये । फर्क मिर्फ इतना है कि वह बात जो पुगने जमाने में दमन कही जाती थी आज अनगामन है । एक बड़ा ममद्ध देग क्यो आज भी नही गर्माना छोटे देगों की नीलामी करता हुआ, उनकी आग खरीदना हुआ? इमका कारण यी है कि जिम मानवीय आत्मा को हम पवित्र, निन्य, गद्ध, बद्ध, मक्त ममनने न्हे और कत्ने रहे कि वह पतित नहीं होती, वह व्यवहार में पतित हो जाती है। जो ममाज ग व्यवहारिक दुम्बद मग्ण को लेकर नही चलेगा वह मनग्य के लिये भविष्य की रचना नही कर सकेगा। महावीर ने यथार्थ के नेत्रों में घग है। उम वीर जिन पुरुष ने ममम्न कट यथार्थो मे हाथ मिलाया है। नीत्मे की नम्ह महावीर कहना है-मने हाथ मिलाया है बन्यो गीत ऋतु में और उम मद में मेरे हाथ नीले हुए है। महावीर का दर्शन मनग्य में कहना है व्यवहारिक बनो। जो मन्य व्यवहार की म्थलना में महमम नहीं किया जा मकना वह मत्य नहीं है।
महावीर की यही श्रेष्ठता है कि वे मन्दर, मोहक, बौद्धिक वातावरण ग्चकर धूप और पवित्र मगन्धो मे ममित की गई, हाथी दान की बनी आध्यात्मिक मीनार में नहीं रहतं न किमी योग के द्वाग उम आध्यात्मिक भ्रम को स्थाई करने ह । व घल पर चलन है। नब भी जब रत्नजटित इन्द्रों के माट उनके मम्मान में सक्नं थे, जब चक्रवर्ती मम्राट कतार बाघ कर अपना पौरुप उनके चरणों में अर्पित कर रहे थे, नव भी देख मकने थे हम निग्रंन्य नाथ पुत्र को द्वार-द्वार जाने, नन नयन, विनीत, कि एक ग्राम भिक्षा का कोई उनकी अजली में दे दे। वह वीर पुरप मनाय की व्यथा में कम अछना रहना । टमी व्यथा ने उमे नप के लिये उद्वेलिन किया । नप मे जब वह लौटा तो फिर उमी त्रस्त मानव ममह के बीच विचग। उन्ही की भाषा ली। उन्ही की ममम्याए। उन्हें अन्तिम मत्यों पर प्रवचन नही दिया। उनकी व्याधियं पकड़ी और उन्हें बताया
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कमे मच्चे मनप्य बनो। जव उनना बन जाओगे, जब यह दुर्जेय आत्मा जीत लोगेनो अमर जीवन का विहान होगा। एक और ही दीप जलेगा हृदय में । गायद यह वह आत्मा होगी जिमका वेदान्तियो ने जिक्र किया। पर आज ही उमका जिक्र कर देना उमे हमेशा के लिये खो देना है। दार्शनिक "मंकटेगर्ट" का कहना था कि आत्मा एक जीन है जिसको हरदम उद्यम के माथ हम मन्य आचरण द्वागजीने रखना है अन्यथा वह उठ जायेगी। जमे चाग डालकर चिडियो को फमाया जाता है उमी तरह जव मानमिक आत्मा मन्कर्म करनी है, द्वन्द्वो को लीन कर एकत्व प्राप्त कर लेनी है तो वह स्वय वह चाग डालना मीख जाती है जिस पर सनानन मुक्न आत्मा जाकर बैठ मके।
महावीर ने "माइक्लोजिकल मेल्फ" को आत्मा कहा और उसे मोल्ड (Mould) करने के लिये कहा। उमकी प्रवृत्ति है एक में अनेकों में फैलने की-कोह बहुम्याम् । च कि वह दिव्यो मे जन्मी है, अतः यह दिव्यों की आदत हमारे शरीर में ले आई है। महावीर कहते है कि पृथ्वी पर उमका पृथ्वीकरण कगे। यहा बडे-बडे अवतार आकर भी मृत्यलोक का धर्म निभाने है। यहा वे अपना विष्णत्व प्रकट नहीं करने । माधारण पुरुषों के बीच मघर्ष करके महान बनने है। इमी तरह इस माठवलोजिकल सेल्फ को स्वर्ग की आदत छोडनी होगी और पार्थिव होना होगा। इसे फिर अपने खेल ममेटना मिखाओ। यह ईश्वर की नकल न करे । एक से अनेक न बने । जमे बच्चे मम्मी और देटी बनकर छोटे-छोटे गड़ियों के खेल करते है ऐमेही खेल यह माइक्लोजिकल मेत्फ करती है। दमी कारण एक मे अनेकहो जाती है। पर ये खेल खेलने की भी एक उम्र होती है। न जाने कितने जन्मोमे आत्मा यही खेल खेल रही है। यही चौगमी लाख योनियो मे इमका भ्रमण है। अब यह मनग्य योनि में है अब तुम्हारी बात समझ सकती है। अब उमे ममझना है कि उसे ये खेल छोटने है । ईश्वर की, पिता की नकल करता रहा तो वच्चा मीग्वेगा क्या? पृथ्वी पर आने के बाद इस आत्मा को समझना है कि यहा विकास का सिद्धात विपरीत
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(reverse)है। महावीर उसी साइक्लोजिकल मेल्फ से कहते है किजो यह तुम्हारी एक से अनेक में unfolding हुई है इमे वापिस ले जाओ। यह चौरासी लाख योनियों का विस्तार लौटाओ। एक माइक्लोजिकल सेल्फ ही इन चौरासी लाख अनेकों में बदल गया है। उन अनेकों का लय फिर एक में कर दो। यही भव चक्र मे मुक्ति है। इसके उपगन्न ही तुम उस अजर-अमर आत्मा की बात समझ मकन हो। जब तक इन अनेको का विलय नही करोगे तुम्हें उम अजर-अमर आत्मा का अनभव नहीं हो सकता। जब तक उसका अनुभव ही नहीं होगा तब तक हम उमे गलत समझते रहेंगे । साइक्लोजिकल मेल्फ ही वह रूप घर लेगी जो तुम आत्मा को attribute करोगे क्याकि उमे अभिनय का शौक है। जब यह अनेक मे फिर एक बन जायगी तब तुम ममझ मकोगे कि इमकी दार्शनिक मृत्यु क्या है ? इम दीप को बझाना होगा। पाश्चात्य विद्वानों को बड़ी परेशानी हुई थी यह जानकर कि जैन और बौद्ध निर्वाण को सर्वश्रेष्ठ पद मानते है जो है मर जाना, दीप का बझ जाना । उनका ख्याल था कि दीप वुझ गया तो शन्य रह गया । अतः उन्होंने कहा कि महावीर का निर्वाण शन्य है। परन्तु आज के विज्ञान ने भी बना दिया किजो चीज है वह है, वह कभी नष्ट नहीं होती, केवल पालग्नि होती है। जो नही है केवल वह नष्ट होती है। ज्योनि कभी नाट नहीं होती। माइक्लोजिकल मेल्फ के रूप में ज्योति बझेगी नो उमका पुनर्जन्म होगा एक उच्च गिम्बर पर, मिद्ध गिला पर । वही ज्योति नब वह आत्मा बनकर जलेगी जो न घटती है न बढती है, जो गद्ध, बद्ध, मक्त है। ____ महावीर ने आत्मा के सम्बन्ध में पूरी बात नहीं कहीं क्योंकि कहना व्यर्थ था। वे नीर्य कर थे। उन्होंने उनना ही कहा जितना एक नीर्थकर या पुल बनाने वाले के लिये बनाना उचित है। उमकं आगे नो स्वयं खोजने की बात है। उन्होंने बम यही कहा कि आत्मा दुर्जेय है। एक आत्मा को जीन लंने मे मब जीन लेने है हम । दम नग्ह माइक्लोजिकल सेल्फ की बात करके उन्होंने हम एक गह पर लगा दिया। जगरी दगारे
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बना दिये । निर्वाण उद्देश्य बना दिया। यह आत्मा मृत्यु मे न डरे । यह मर जाय । नभी नो परम मन्य एक और पगिकृत नल पर हममें प्रकट होगा। हर व्यक्ति में आत्मा है। पत्थर, लकडी आदि में भी यह आत्मा बमी है, उन्होंने कहा, और मनग्य में भी। परन्तु यह स्थल (gross ) आन्मा है। जब तक यह नहीं मग्गी तब नक मक्ष्म, गद्ध, बद्ध आत्मा का अनभव नहीं हो सकता। इसी कारण मनायो में उम आत्मा का जिक्र उन्होंने नहीं किया। उन्होंने माइक्लोजिकल मल्फ की वान कीजो उपलब्ध है। वही माइक्लोजिकल मेल्फ आज भी उपलब्ध है। आज भी वह चौगमी लाख योनियों में भटक रहा है। एक में अनेक वना जा रहा है। जब तक यह नहीं सकता, जब तक हम दम मनात आत्मा को व्यवहारिक गह नहीं बना मकने, योग, ध्यान आदि द्वाग इसके मनाप हग्ने की बात कहना ऐमी ही मखना है जैसे उम्मीद करे कि मो गया अनाथ बच्चा तो मा मे हुए विछोह को भूल जायगा। नही वह भूला रहेगा केवल जब तक मोरहा है। मनप्य की आत्मा आज भी अपने प्राचीन खेल में व्यस्त है
और जीवन व्यर्थ हो रहा है। महावीर कहते है कि इस prodical son को मम्भालो। यह आत्मा जो भटक रही है इमकी यात्रा उत्टी कगओ ताकि यह अपना क्षय करे और मृन्य की ओर बढे जीवन की ओर नही। जब यह मृत्य को प्राप्त करेगी तो इसकी जगह शून्य नही आयेगा । इमकी जगह जो आयेगा उमका वर्णन करना गब्दों का व्यर्थ प्रयोग है।
यही वात बद्ध के अनात्मवाद को भी प्रकट करनी है । आत्मा अमर नही है और वह निरन्तर वदल रही है । हम दो बार उमी नदी में प्रवेश नहीं करते। वे भी उमी माइक्लोजिकल मेल्फ का जिक्र कर रहे है जिसका जिक्र करते हुए उम युग के प्रमादी तत्वज्ञ गर्माने थे। उपनिषदों में कथित आत्मा का दिमागी मख लट-लट कर वे लोग आध्यात्मिक विलाम में पल रहे थे। अतः, उन्होने भी आध्यात्मिक आत्मा का हौव्वा खड़ा कर रखा था—जो न बदलती है, न घटती है, शाश्वत है, शुद्ध,
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बुद्ध है। उनके प्रमाद और प्रपंच मे बचाने के लिये यह जरूरी था कि महावीर और बुद्ध उन्हे यथार्थ की ओर खीचने । उन्हें दर्शन कगने उम यथार्थ आत्मा के जो उनके भीतर थी जिसे छोडकर वे मन् गे बेखवर आध्यात्मिक विलाम में डुबे हुए थे। अनः, उन्होंने कहा कि आत्मा की नित्यता की वात गलत है। यह नो हर क्षण बदल रही है। महावीर ने कहा कि इमे निगकार या निर्गुण कहना गलत है। यह तो वही आकार रखती है जिम गरीर में यह है। उनका उद्देश्य था कि मनाय को शन्य में ध्यान लगाने की आदत मे बचाये। वह आत्मा को एक abstraction ममझ रहा था जो उममे हे और जो उसके किमी भी बरं कामगे मैली नही होती। महावीर ने कहा कि वह मैली होती है। दम नग्ह दर्शन को उन्होंने पंख लगाकर उड़ने मे गेका । उमे पथ्वी पर चलना गिवाया। ____ ममय आया है जब अनभवों के बाद मानव गमह ने यह पहचानना शुरू किया है कि महावीर ने जो बान परम पुनीन गन्यो गे हट कर कही थीं वे कहनी बहुन जरी थी। उन्होंने दर्शन को पृथ्वी पर चलना मिखाया। वे पहल विचारकहं जिन्होंन गरिपूर्ण मन्यों को छोटकर अपूर्ण मन्यों की मार्थकना बनाई। परिपूर्ण मन्य कलापन हो चले ह आज के यग में। आज भी वही स्थिति है जो उनकं मामने थी। आज भी मनाय को पूर्ण मत्यवादियों ने बहका रखा है। विश्वास के आचल में उमकं यथार्थ को नग्न किया जा रहा है। ऐमा ही विश्वामघान ईमागं छ: मो शताब्दि पूर्व भी हुआ था।
मनेम यावी पडिबद्ध जीवी, न वीममे पंडिा आमान्ने
(अशुप्रज पंडिन पुरुप को मोह निद्रा में मोये हुए मंमागे मनप्यों के बीच रहकर भी मव नगह मे जागम्क रहना चाहिए और किमी का विश्वाम नहीं करना चाहिए)
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व्यक्तित्व का विघटन-Loss of Individuality : आधुनिक मनुष्य की मबमे बड़ी समस्या है उसका व्यक्तिगत
विघटन । उसके भीतर एक ऐमा महसमुखी द्वन्द्व शुरू हो गया है जिससे उसकी ममम्न मानमिक शक्निएँ पारम्परिक विरोध में टूट रही हैं। यह कहना गलत है कि मनुष्य ममाज के मूल्य गिर रहे हैं। उमके नैतिक मूल्य आज भी वे ही हैं। उमकी कठिनाई यह है कि आज वे मूल्य उमे असंभव प्रतीत होते हैं । उमे अपना व्यक्तित्व एक बंधी निर्दिष्ट दिशा की ओर जाती हुई जलधाग की बजाय विखरे पानी जमा लगता है जो कोई भी अन्य दिशा ग्रहण करने को तैयार नहीं है। इसमे उमे मूल्यों के प्रति मन्देह हो गया है। त्याग और बलिदान काजोग उन मूल्यों में नहीं है क्योंकि इसमें उमे आत्महिमा की उपलब्धि होती है। उमे लगता है कि वह निप्प्रयोजन अपनी हत्या कर रहा है। इस तरह उमका व्यक्तित्व दो दिशाओं में टूट गया है । नैनिक मूल्य आज भी वैसे ही हैं परन्तु जो शक्ति उन्हें व्यवहारिक जीवन में प्रगट करती वह सन्देह से भर गई है। बातें वह आज भी आदर्श की करता है परन्तु उन पर चलने की लेशमात्र भी प्रेरणा नहीं रही है । उसकी कर्मशक्ति आज उसकी विचारशक्ति के साथ नहीं है। आज के युग की सबसे बड़ी विडम्बना यही है । यह कहना गलत है कि मनुष्य के नैतिक मूल्यों का ह्रास हुआ है। सच्चाई, ईमानदारी, परोपकार, दया, क्षमा, हिसा को आज भी वह सर्वोपरि मानवीय गुण मानता है परन्तु उसकी कर्मशक्ति उनको व्यक्त करने की चेप्टा नहीं करती। कर्मशक्ति हताश हो चुकी है। ऐसी परिस्थिति में "कर्मण्येवाधिकारस्ते" वाला सिद्धांत आज उसे
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प्रेरणा नही देता । शायद उस युग में मनुष्य की कर्मगक्ति उसके विचारों के अनुकूल थी और उमे समझाया गया था कि उसके विचार फल से आक्रान्त न हों परन्तु आज उमकी कर्मगक्ति थक गई है । हजारों वर्षों से आदर्शों के लिये लड़ते-लड़ते और अपने को व्यर्थ जाते देखकर आज मनप्य शक्ति ने घुटने टेक दिये है। प्रश्न यह है कि क्या महावीर की वाणी मे सामर्थ्य है कि वह इम कर्मशक्ति को प्रेरित कर सके? आज वे ही विचार मनुष्य का कल्याण कर मकने है जो सीधे हमारे विचारों से नही हमारी कर्मशक्ति मे टकगये और उसे उद्वेलित करें । आज प्रजातंत्र के युग में लगभग ममम्त मभ्य ममाज ने महावीर के बिनागे को अपना लिया है । मनप्य की ममानता, बन्धत्व, मंत्री, परोपकार, क्षमा आदि मंयक्त गाद मघ के गिद्धान बन चके हैं। परन्तु फिर भी आज के मनप्य की कर्मगक्ति उमे विपरीत दिशा की ओर ले जा रही है। वह चालाकी, गोपण, परिग्रह. हिमा, लामा, जघन्य-अपगघ की ओर बढ़ रहा है। यह एक विचित्र विडम्बना है कि ज्यो-ज्यो मभ्य जगत ने इन आदर्शों को गाद्रीय एव अन्तर्गष्ट्रीय स्तर पर अपनाया त्यांन्यों मनुष्य का मत्कर्मों को करने का स्वाभाविक जोग खत्म होता गया। मम्भवतः महावीर के विचारों को विगत मैकडो वर्षों में उम प्रकाश में न रखा गया हो जिममे वे कर्मशक्ति को दिखाई देने और वह उनमे प्रेरित होती। कोई न कोई भल मनग्य ने अवश्य की है कि इतनी बडी वैचारिक सम्पत्ति होते हुए भी वह इम में लाभ न उठा मका । मम्भवतः एक विशेप बात की ओर हमाग ध्यान गत शताब्दियों में नहीं गया कि महावीर ने दार्गनिक वाद-विवादों में अपने गिायों को उन्माहित नही किया। उन्होंने मम्यक् चरित्र को अधिक महत्व दिया और विचार से पहले आचार को प्राथमिकता दी। उन्होंने मनाय में अपेक्षा की कि वह अपनी कर्मगक्ति को अनगामिन करे और दानिक विचारों मे न पडे । उन्होंने मनप्य को वे ही मग्ल विचार दिये जिमसे उनकी कर्मशक्नि विना उलझे मम्यक् चरित्र के पथ पर बढ़ सके । मनुष्य के
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व्यक्तित्व के विघटन का एकमात्र कारण यही है कि मनग्य के विचारों की उपयोगिता कर्मगविन के लिये लगभग शून्य रह गयी है । ये दोनों अलग-अलग हो गये हैं । इमलिय विचार भी विलाम के माधन बन गये है । वडी-डी एमेम्बालयों में मनायना, ममानता, मंत्री और प्रेमवन्धन्त्र की बात करना दिमागी विलामिना हो गई है क्योकि वे ही महान देशों के प्रतिनिधि दूसरे देशों की महायता करने हे नो प्रन्यनर में मानसिक गलामी चाहनं है। उन्हें खाने को टुकडा देते है तो उनकी आत्मा खरीदना चाहते है।
आवश्यकता है कि हम महावीर के विचागे को कर्मगविन के निकट लाये । आज हमारी कर्मविन को पनित कर दिया है अनेकों भ्रमित करनी गक्तियों ने । वो नक कठिन नप करके महावीर ने इन्ही दुगग्रही शक्तियों पर विजय प्राप्त की थी। जीवन की कोमल गक्ति को उन्होने अक्षण्ण किया और ममम्न दुष्ट गक्तियों को ललकाग कि अगर किमी में मातम है तो वह राम ललना को छ दे। यह गाम्बमिद्ध है कि जिम स्थान पर उसके चरण होते थे उस स्थान मे मो मो योजन दूर तक दुष्ट गक्तिया भाग जाती थी। इस प्रकार महावीर माधारण मनग्यो के लिये गान स्थिति का निर्माण करने थे जिममे वह निर्विघ्न अपने चरित्र का निर्माण कर मके । आज यह मम्भव नहीं है क्योकि बचपन में ही ये दुष्ट शक्तिया उमको अनेको बहकाने पथो पर बीच ले जानी है और वहा कोई महावीर उमे मार्ग दिग्वाने नहीं आता। स्कल में जो ज्ञानी मिलने है वे मममने ह कि विचागे और आदर्शों की मदिरा पिलाकर उमे दलदल में निकाल सकते है । यदि यह सम्भव होता तो महावीर को बोलने में इतनी विरविन न होनी। ज्ञान के बाद भगवान महावीर ने मनाय को उपदेश देने मे इन्कार कर दिया था। तव इन्द्रादि की अनेक स्तुतियों के पश्चात् उन्होने उपदेश दिया। यह भी शास्त्रों मे लिखा है कि जो पश थे वह अपनी भाषा मे और मनुष्य अपनी भाषा मे महावीर की वाणी को समझने थे। इसका अर्थ यह नहीं कि वह
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किसी लिंग्वाफोन पर बोल रह थे । मनुष्य के भीतर ही अनेन पशु, प्रेत. राक्षमी शक्तिया है जो उसकी मानवीय शक्ति को बहनानी है। भगवान महावीर विचारो के तल पर उपदेश नही दे रहे थे बल्कि उन्होंने वह विलक्षणता प्राप्त कर ली थी जहा उनके शब्द सीधे न शक्तियो से वार्तालाप कर रहे थे और उन्हें मही दिशा की ओर प्रेरित कर सकते थे । यही महावीर के विचारो का सार है क्योंकि उन्होंने यही उपदेश दिया कि विचारों के परिष्कार में ही लग जाने मे मनाय वा जीवन बेकार हो जाता है । उसे सम्यक्-चरित्र उपजाना है और चरित्र शक्तियों का I सम्यक् मगटन है । विचारो को इस रूप में सरल और स्पष्ट करना आवश्यक है कि वे मीधे कर्म शक्तियो को मर्गाटन और मुव्यवस्थित कर सके ।
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फ्रायड के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के उपरान्त प्रथम बार व्यापक रूप से मनुष्य जाति के मामने एक विषम समस्या खड़ी हुई -- मनग्य ने जाना कि उसके विचार चाहे कितने भी शद्ध और पवित्र हो उसके मन के कुछ कोने है जहा उसके बिना जाने छोटी-: वानं, घटनायें और इच्छाए छपकर, घुटकर, भयानक, परोक्ष, शक्तियों में बदल जाती है । ये कभी तो उसे दुष्कर्मो के लिये प्रत्यक्ष रूप में प्रेरित करनी है और कभी उसमें अनेक तरह की पीडाओं और रोगों में बदल जाती है । उसे स्वय मालूम नही होता कि वह इतना विघटित, परेशान, अनिश्चित, सदिग्ध और दूसरो के लिये एक समस्या वयो बना हुआ है। उससे भी अधिक भयानक वात जो मनग्य ने जानी वह यह थी कि मनग्य के कर्म उसके विचारों पर निर्भर नहीं करते बल्कि इस मानसिक दावित पर निर्भर करते है जो अधिकाशन विघटित, दुराग्रही और दुष्ट प्रवृत्तियों
भरी है । इम आविवार ने मनप्य में बहुत कुछ छीन लिया। फ्रायड की इस खोज के बाद साहित्य में में आदर्शवाद मिटना शरू हो गया था । धीरे-धीरे वह आदर्शवाद व्यवहाग्विजीवन मे भी मिट गया। आज के प्रगतिशील विचारक जैसे सार्त्र, कैमम आदि अस्तित्ववादी यह स्पष्ट
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कहते है कि जब मनुष्य की आंतरिक प्रवृनिये दुष्ट है नो आदर्शवादिता और उच्च विचारों का एक चन्दोआ बनाना अपने को धोखा देना है। फलम्बम्प जिमनगह की कूटनीति के लिये कुछ वर्षो पहले कूटनीतिज्ञ भी गमिन्दगी महमम करने उम तरह की कुटनीनि आज माधारण व्यक्ति भी बग्न रहे हैं लेकिन उसके लिये गमिन्दा नहीं है। मनुष्य के आदर्शों और उसकी कर्मकिन के बीच एक जबग्दम्न अपरिचय और दुगव आ गया है । मभी उच्च आदर्गो या मात्विक विचारों या मानवीय मूल्यों को मनाय अव्यवहारिक तथा व्यक्तिगत आदर्शवादिना ममझने लगा है। इस नन्ह मम्पूर्ण मनुष्य जाति म्वार्थपरता, आर्थिक गोपण, लोलपता, कमज़ोगें का गोपण, दामना आदि अमानवीय प्रथाओं को पुनः नये रूप मे ग्रहण करनी जा रही है। आज भी आदर्शवादिता की कमी नहीं है । आज भी गद्ध विचारों की कमी नहीं है और आज भी हजारों लोग उच्च मानवीय मूल्यों का उद्घोप कग्ने हुए नही थक रहे हैं । यदि हम महावीर को भी एक ऐमा ही मानवीय मूल्यों का उद्घोपक ममझें तो निश्चय ही उनके द्वाग भी इम जगत का हित नही हो मकना । इन अनेकों उद्घोपकों के बीच उनकी भी उद्घोपणा खो जाएगी क्योंकि समस्या है दूरी की। मनुष्य की कर्म शक्तियों और बौद्धिक शक्ति के बीच की दूरी की। अतः यह ममझ लेना जरूरी है कि महावीर इन आदर्शवादी चिन्नकों, नीनिजों और महापुम्पों में अलग है । यह बात जैनशास्त्र कहते है कि भगवान महावीर को पूर्ण ज्ञान पिछले ही जन्म मे हो चुका था परन्तु फिर भी उन्हें वर्द्धमान वाला यह अन्तिम जन्म लेना पड़ा। इमका कारण था कि पूर्व जन्मों का ज्ञान बौद्धिक था, उमी ज्ञान को व्यवहारिक या फायड की भाषा में मानसिक शक्तियों के तल पर भी स्वतत्र रूप मे अजिन करना आवश्यक था। भगवान बुद्ध ने अपने शिष्यों में कहा था कि केवल बौद्धिक स्वतंत्रता ही पर्याप्त नही है गिप्यों-एक और म्वतंत्रना है, वह है हृदय की स्वतंत्रता जिमके विना बौद्धिक स्वतत्रता या आदर्गवाद व्यर्थ हो जाता
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है । इसी तरह भगवान महावीर कहते है कि केवल बुद्धि का परिष्कृत हो जाना, उसमें उदात्त मानवीय आदर्शो व मूल्यों की स्थापना कर लेना पर्याप्त नही है। जब तक जीवन शक्ति स्वयं अपनी कर्म प्रेरणा में, स्वतः, बिना उन आदर्शो के आवरण के, उन्ही उच्च मानवीय मूल्यो को व्यक्त नही करती तब तक मनुष्य जीवन मुक्त नही वह सकना अपने को । फ्रायड ने रास्ता मझाया था कि उन दबी हुई इच्छाओं, वामनाओ और विचारों का बहिर्गमन मनष्य को मानमिक दुष्टना में मवत वर भवता है । परन्तु अनुभव ने और बाद के मनोवैज्ञानिको ने बताया कि ऐगा नही है । बहिर्गमन या उन्हें व्यक्त कर देना कुछ समय के लिये उनसे मक्ति दिला सकता है परन्तु पुनः वह प्रगट होगे क्योकि मानसिक शक्तियां का एक कुन्मित सगठन भीतर बन चुका है और वह जीवन प्रवाह मे फिर वे ही इच्छाएं और दुष्प्रवृत्तिये बना लेगा। यह त्रम अन्नहीन होगा । केवल अभिव्यक्ति मे मनग्य का मनम रजत नहीं हो सकता। भगवान महावीर ने यह बात हजारो वर्ष पूर्व व्यक्त की थी ।
आज के मनुष्य की निराशा के दो प्रमुख कारण है एक ओर तो मनोवैज्ञानिकों का कहना और मनष्य वा स्वय का अनुभव कि दृष्ट कामना, दुष्ट प्रवृत्तियों को अभिव्यक्त करके भी वह उनमें मवन नही हो मकता । वे दुष्प्रवृत्तिए मात्र दमन के कारण नहीं है अन्यथा अभिव्यक्ति मिलने पर यह अधेग मनष्य के क्षितिज से दूर हो जाता । दूसरी निराशा आज के मनग्य को विकासवादियों में मिली है जिनकी श्रृंखला डारविन में हुई। डार्गवन ने बताया कि मनग्य जीवन अन्य प्राणियों के जीवन की तरह एक दूसरे के शोषण और संघर्ष पर आश्रित है और मनप्य पर भी "मरवाइवल आफ दी फिटेस्ट" का मिद्धात लाग होता है । मनष्य में जो जीवन शक्ति है वह उतनी ही स्वार्थी, लोलप और हिमात्मक है जिननी अन्य प्राणियों में है। हेनरीवर्ग माँ ने समस्त प्राणियों के जीवन को एक सतत् प्रवाह कहा है जो निरकुण गति से दौड़ रहा है उल्लासमय, जिसे इसकी चिन्ता नहीं है कि कौन
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पिछड़ गया, कोन कुचल गया । यह प्रवाह किम ओर जा रहा है इसका घ्यान भी इमें नहीं है । कुछ वर्ष इमके चमत्कारी फेनिल उल्लाम में रहने के पश्चात हेनरीवर्गमां भी इममे घवग गया। ___ महावीर का कहना इन दोनों में अलग है और मनप्य के लिये उनकी वाणी में वे आगा के दीप है जो विकामवादियों और मनोवैज्ञानिकों ने बझा दिये । भगवान महावीर इम वान मे इन्कार नहीं करने कि मनायों में लोलपना, हिमा, म्वार्थपरता है। वे इममे भी इन्कार नहीं करने कि मनग्य जीवन पशुओं की नग्ह एक अनिदिष्ट दिशा की ओर बढ़ रहा है । परन्तु वह यह कहते है कि ऐमा दलिये है कि वह अपने बौद्धिक ज्ञान का व्यवहारीकरण नहीं कर मका । यह व्यवहारीकरण ही नप है । नप के अर्थ है कि नैतिक और उच्च मानवीय मूल्य जो हमारी वद्धि ने अजित किये अब हममे शब्द या विचार बनकर प्रगट न हों बल्कि हमारे मूलाधार में छोटी बड़ी कर्म प्रेग्णाए बनकर प्रगट हों जो बिल्कुल नपी-नुली हों और उन्हीं आदर्शो को हमारी छोटी मे छोटी भाव-भगिमा भी प्रगट कर सके। यह जीवन प्रवाह जो हममे अनिर्दिष्ट म्वार्थमय और हिमा मे भरा है यह स्वयं मंगठिन हो, विना विचारों के, केवल वितयों के रूप में और वह मंगठन मर्वथा मानवीय और उदात्त हो । भगवान महावीर का कहना है कि एक उच्च जीवन की प्राप्ति नब तक नहीं हो मकती जब तक उच्च आदर्श और विचार हमारी कर्मगवित का दमन कर रहे हैं
और उसे आदर्श मार्ग की ओर मोड रहे है। उनका कहना है कि उच्च जीवन के अर्थ यह है कि मनुप्य की जीवन शक्ति अपनी हिमात्मक, स्वार्थमय प्रवृत्ति छोड़ दे । बिना विचारों के महयोग के, विना चेतना के मार्ग निर्देशन के, वह मोते हुए भी स्वयं ऐमी अभिव्यक्ति दे जो सर्वथा आदर्श और मानवीय हो। उन्होंने कहा है कि यह सभव है कि कर्मशक्तियों के इस प्रवाह को साधा जा सके।
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बौद्धिक शक्ति और कर्मशक्ति भगवान महावीर आज के युग में क्लान्त और उद्भ्रान्त मानव
को पथ दिवा सकते हैं। कारण यह है कि उनके विचार इस जीवनशक्ति का दमन करने को नही कहने । वे कहते है कि यह संभव है कि यह जीवनशक्ति स्वतंत्र रूप में एक और घाग का निर्माण करे जो बौद्धिक घाग की तरह पगिकृत और उसके ममानान्तर हो । जो बुद्धिजीवी और नैतिकतावादी और आदर्शवादी है उनके लिये उनका संदेश है कि तुम आधे मार्ग में रुक गये हो। उनमें उनका कहना है कि अपनी निराशा और क्षोभ के कारण तुम म्वयं हो। तुम्हे दम बान का दुःख है कि तुम जानने हो कि मन्य क्या है और मनग्य के कल्याण के लिये मही मार्ग कौनमा है परन्तु फिर भी लोग तुम्हारी बान नहीं मन रहे हैं। तुम भूल कर रहे हो । वे तुम्हारी बान कभी नही मनंगे क्योंकि जो वान करने की है वह तुम कह रहे हो । तुम्हें मन्य और नैतिकता कहनी नही है करनी है। केवल दम रूप में तुम उम मक्ष्मनल से मनुष्य की व्यवहारिक दुनिया में उनार मकने हो । यदि तुम यह ममझ लो कि बद्धि को पगिकृन कर लेने के पश्चात् अब तुम्हाग काम है जीवनगक्ति को भी परिष्कृत करना नो तुम जानोगे कि नपग्या का ममय नो अब आया है । जिम नग्ह नर्क और नि:स्वार्थ निप्पक्ष मन्यचिन्तन करके तुम्हाग मस्तिष्क कितने ही अनचित विचारों और विवादों मे मुक्त हुआ उमी नग्ह मन्य पर आचरण करके तुम्हारी जीवनशक्ति कितनी ही अनुचित जीवन गक्तियों के दुगग्रह में मुक्न हो सकनी है।बोध या ज्ञान केवल बुद्धि के हीनल पर नहीं होता । एक और ज्ञान है जो सांसो के तल पर, बल के नल पर, वीर्यम् के तल पर होता
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है और इसकी भापा विचारों की भापा नहीं है । पूर्ण ज्ञान पूर्वजन्म में हो लेने के पश्चात् भी महावीर को एक जन्म और लेना पड़ता है। इम नाव को किनारे पर छोड जाने के लिये गूंगी और अमभ्य कर्मगक्तियों के नल पर भी वे मक्नि का आव्हान करन है । पंडिन ईश्वर चन्द्र विद्यामागर में एक बार किमी मां ने कहा कि मेरे लड़के को मिठाई वाने की वहुन आदन है उसे छुड़वा दो। उन्होंने कहा अच्छा। छः माह बाद उमे मेरे पाम लाना। छः माह बाद वह लड़का उनके पाम लाया गया। उन्होंने कहा कि तुम मिठाई बहुत खाते हो मन खाया करो और उमने मिठाई खाना छोड़ दिया। लोगों ने उनमें कहा कि मामूली मी वान कहने के लिये तुमने छः माह क्यों लिये? उन्होंने कहा कि छ: माह पहले में स्वयं बहुन मिठाई खाना था उम ममय उम लड़के को उपदेश देना नो वह निष्फल होता इम बीच मैने अभ्याम करके मिठाई छोड दी। दम छोटी मी कहानी में भी वही वान है । विचारों के नल पर एक मघर्प है जो एक मच्चा विद्यार्थी निप्पक्ष और नि:स्वार्थ निर्भय ज्ञान अर्जनमेजीन लेता है परन्तु वह पर्याप्त नहीं है । एक और म्वतंत्रता है जो उमे जीतनी है वह है जीवन शक्ति के नल की। अनेकों दुष्ट इच्छाएं, प्रवृत्निय और प्रेग्णाए हमारे भीतर गेज उठ रही है । जब तक हम इन पर विजय नही पा लेने तब तक हम मनुष्यता का दीप पृथ्वी पर नही जला मकने । ममम्त ज्ञान व्यर्थ हो जाएगा । इमके जीनने का एकमात्र मार्ग है विनय और मम्यक् चरित्र । यह कोई बाहर मे लादा हुआ अनुशामन नहीं है बल्कि स्वयं अनुभव है। भगवान महावीर यह कहते है कि अनुभव जो हमे मिग्वा रहा है रोजाना के जीवन की घटनाओं में उममे हम लाभ नहीं उठा रहे है। इस कारण हम वही रुक गये है । हमें वीरता और माहम के साथ अपने अनुभवों को एकमात्र प्रकाश मानकर पग-२ पर शान्ति और धर्य के माथ मनन करके बढना है । जव कर्मगक्ति ऐमा करेगी तो वह स्वयं विकमिन होगी। उसका स्वयं का तप उमके विकास का कारण होगा और यह उमकी
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चिरस्थाई सम्पत्ति होगी। इमी सम्पनि को पा लेने पर एक मावीर या बुद्ध इतना माहमी और मक्त हो जाता है कि जिम उद्देश्य के लिये उसने इम शक्ति को परिकृत किया एक क्षण ऐमा भी आता है कि वह उम उद्देश्य को भी ठग देता है । मोक्ष के द्वार पर पहुंच कर महावीर मोक्ष में प्रवेश करने से इन्कार कर देने है क्योंकि जब नक एक भी जीव जीवन ममद्र में नप रहा है और उसे मार्ग नही मिल रहार तब तक उदात्न पुम्प महावीर की जीवनशक्ति और उमकी अगीम करुणा कमे गवाग कर मक्ती है कि वह अकला मोक्ष में प्रवेश करले। वह लोट-२ कर पृथ्वी पर आता है। यह उम जीवन शक्ति की परिपूर्ण मुक्ति है । यही निर्वाण है।
मनप्य की कर्मशक्ति एक वृक्ष की तरह है और अमंग्य गाग्वों मे फटनी रहती है। कोई शाव ऊपर को जाती है तो कोई नीचे की ओर। जमा स्थान, जलवाय और वातावरण वृक्ष को मिलता है उम के अनमार वह बढ़ता है। इमी तरह जैमा ममाज, मान्यताए, विम्याम आदि मनुष्य को मिलते है उमी के अनम्प यह वर्मक्नि ढलनी जानी है। बचपन में यह ममाज उमकी मूल प्रवनियों को जगाना है और उनका पोपण करना है परन्तु बड़े होने पर उन्ही प्रवृत्नियों को दुगग्रह और प्रष्टता कहना है और उनका दमन करने का उपदंश देता है। धीरेधीरे कर्मगक्ति एक ऐमा वृक्ष बन जाती है जिमकी टहनिए ग्वय उम वृक्ष को दवाती है। नीचे मे वृक्ष के नने में जीवनशक्ति जोर माग्नी है कि वह ऊपर उठे पग्न्नु ऊपर में टहनिए उमी वृक्ष को नीचे को दबानी है क्योंकि जिन प्रेग्णाओं को लेकर यह वृक्ष उठ रहा है वे ममाज को मान्य नहीं है । दम नह मनग्य का जीवन प्रवाह यवा होते-होंने विरोधों का जमघट हो जाता है। उमकी कमक्ति भ्रमित हो जाती है। जीवनशक्ति के नल पर वह पूरी तरह उलझ जाता है । जीवनविन को यही छोड़कर वह प्रयाण करना है और माग्नाक के नल पर जीने लगता है । उमकी जीवनगक्ति अनेकों निषेधो, गानदच्छाओ, वामनाओं
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के बीच उलझकर रुक जाती है । यह अनुभव हम सबका है। वे जो कहते है कि महावीर पलायन कर गये, घर छोड़कर भाग गये वे भूल कर रहे है क्योंकि पलायन महावीर नही कर गये पलायन तो हर व्यक्ति अपने जीवन में कर रहा है । जैसे ही जीवनशक्ति उलझी वह उमका त्यागकर मम्निष्क के तल पर आ जाता है जो अपेक्षाकृत मुलझा हुआ है। महावीर नो यह कहते है कि पलायन करना कायरता है। जीवनगक्ति का त्याग कर मस्तिष्क के तल पर चले जाना कायरता है। उममे जीवन का कल्याण नहीं होता। जीवन का कल्याण तभी होता है जब हम जीवन प्रवाह के तल पर, कर्मगक्तियों के तल पर जीयें जहां यह विघटित और उलझा हुआ ममाज रोजाना उलझनें
और घटन पैदा कर रहा है । मनुष्य उनके बीच रहकर उनमे मुक्ति का मार्ग खोजे। दूमरी उपमा पर ध्यान दें।एक ममद्र है जिममें जीवनशक्ति एक लहर की तरह पड़ी है । इमे अनेक विरोधी शक्तिएं आकर घेर लेनी है । वे अनेकों लहरों की ही शक्ल में है। अनोखा खेल यह खेलना है कि इन लहरों के बीच भी वह लहर बिन टे चलनी रहे और बड़ी होती रहे । महावीर कहते है कि जीवनशक्ति के तल पर मुक्ति प्राप्त करने का अनोखा खेल खेलना है । अहिंमा, अपरिग्रह, क्रोधहीनता, प्रेम, क्षमा आदि को वे इमलिये महत्व देने है कि हम कठिन उद्देश्य की पूर्ति में यही शस्त्र सहायक सिद्ध होंगे। उममे अलग इनका अपने मे कोई मूल्य नहीं है । अहिमा संघर्ष से भागना नहीं है बल्कि मफल संघर्ष करने का तरीका है।
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नारी और मोक्ष यदि हम जग गम्भीरता मे मोचे तो हम पाने है कि आज के पश्चिमी - जगत में चल रहे लिब मवमेण्ट, नारी स्वतन्त्रता, आदोलन का कारण वह विचारधाग है जिमने नारी को केवल ममर्पण का मार्ग दिवाया। महावीर की मान्यता दमकं मर्वथा विपरीत थी। यदि महा. वीर के विचारों को मही तरह समझ लिया जाय नो आज की प्रगनिशील नारी अपने को ऐमे आन्दोलनों में नष्ट करने में बचा लेगी। उसकी व्यथा मही है परन्तु उमने जो निदान बढा है वह गलत है। वह विद्रोह कर रही है पुरुष में । इस तरह वह पृरुप नत्व को हमेशा के लिये अपने मे दूर कर रही है। मनोवैज्ञानिकों की दष्टि में यह ग्यनग्नाक कदम है। प्रत्येक मनप्य में नारी ओर पुम्प दोनों तत्व है। उमम ममर्पण करने वाला भी है और वह भी है जिसे मर्पित किया जाना है। अधिकाश कर्मप्रणेताओं ने मिखाया ह मपिन होना। उन्होंने मनायो मे अपेक्षा की कि वह ईश्वर को समर्पित हो जॉय । महावीर ने कहा कि तुम स्वयं ईश्वर हो अपने को ममपिन हो जाओ। अपने दम वाक्य में महावीर ने उम वेदान्न का, उम एकत्र का व्यवहारिक प्रदर्शन किया है जो वेदान्त में कोग विचार बनकर रह गया। मेरे विचार में जो परम्पग भारतीयों ने, वेदों ने और उनिपदों ने एकता को खोजने की गर की थी और जिम गकगचार्य, याज्ञवल्क आदि ने एक ब्रह्मरूप में जानकर बौद्धिक रूप दिया था, उसी परम्पग को भगवान महावीर ने व्यवहारिक जीवन में चरितार्थ करने का मार्ग बनाया है । वह परम्परा शकगचार्य में बौद्धिक चंन्टा बनकर रुक गई क्योंकि वेदान्त ने व्यवहारिक जीवन में कदम-कदम पर उम विश्वाम को व्यवहृत
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करने का मार्ग नहीं मझाया । महावीर ने अनेकान्तवाद, जीव पुद्गल, अपरिग्रह, अहिंमा, विनय के द्वाग एक मार्ग मझाया है कि मे जीवन की उम विविधता में एकता को प्राप्त कर सकते है । वह जो ब्रह्मम्प में निगकार है वही महावीर की वाणी में जीव तत्त्व बनकर माकार हो गया। ममम्न जीवों में एकता का दर्शन महावीर ने क्यिा । अतः वे लोग बहुन भल करन है जो महावीर के दर्शन को ललिस्टिक गिलिज्म कहते हैं। दरअमल महावीर उन चिन्नको मे मे थे जिन्होंने यह जान लिया था कि चिन्नन विम मीमा तक मामान्य मनग्य के लिये हितकर है और उसके बाद किम प्रकार व्यवहारिक नल पर उमका अनुभव में परिणत होना आवश्यक है । वे जान गये थे यदि वह चिन्तन अनुभव में पग्णिन न किया और उमे हम वहाने चले गये नो हम बद्धि के पार निकल जायगे । बद्धि का मदुपयोग न कर मकेंगे और मच्चरित्रता की आवश्यकता को भी नही समझ मकंगे। प्राणी का प्राणी के प्रति जो व्यवहार हे उमकी कोमलता और बारीक्यिों को वह व्यक्ति नजरअन्दाज कर देगा जो निरन्तर "वन ट्रेक" मस्तिष्क लेकर पूर्ण ब्रह्म की तलाश में निकल जायेगा । अत. महावीर ने विषद् दार्शनिक विषयो पर गिप्यो मे वार्ता नही की। केवल उतना ही दार्शनिक विवेचन किया जितना जीवन को व्यवहारिक वोघ तथा चान्त्रिक उज्ज्वलना प्राप्त करने हेतु आवश्यक था। उमके बाद महावीर ने पूग जोर चरित्र निर्माण पर दिया । वे जानते थे कि इसके आगे वह बौद्धिक ऊंचाइए है जिन्हें पार करने के लिये मजबूत पखो की जरूरत है। जो व्यक्ति चारित्रिक दृढ़ता नही प्राप्त करेगा वह बौद्धिक शन्यों की ओर निर्विरोध बढ़ता जायगा।गन्य मे पहचानने के लिये चारित्रिक आखो की जरूरत है और चरित्र के मायने मनोवैज्ञानिको ने केवल एक लगाये है अनेक मे एक के दर्शन होना। "आन्मवत् मर्वभनेप" मभी प्राणियो को अपने जमा रीएलाइज करना। महावीर ने चरित्र के लिये कुछ नैतिक मूल्यो का बखान नही किया जिममे चरित्र को दवाया या
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मोड़ा जाय । चरित्र ता को बढ़ना है। महावीर कहते है कि टमकी शक्तिएं अनेकों शक्तियों में उद्भ्रान्त होंगी और उनमें विरोधी शक्तियों का जन्म होगा। यदि हम दमकी मलभन एकता को नहीं जानेगे, यह जीवनशक्ति जो हम में जोर मार रही है यह हमें विनाग की ओर ले जायेगी, प्रलय की ओर ले जायेगी यदि हम इगम उद्देश्य की जाग्रति नही करेंगे। और उद्देश्य की जाग्रति इममें होनी है तब जब इसमें अनेकों ज़िद करती धागे को मना लें और उन्हें समझा मके कि वह जो केन्द्रिक जोर है उसकी पूर्ति में इन मबकी पूर्ति हो जाती है । यह बहुत कठिन कार्य महावीर ने अपने हाथों में लिया था।नगेवगंगा ने जिस (इलानवाइटल) जीवनशक्ति को निरंकुश, अगभ्य, विहमना प्रवाह कहा था महावीर ने उमी में उद्देश्य का आह्वान किया और उमे मानवीय स्वरूप में मोटा। यह वर के माथ महयोग था। वे जो सोचते हैं कि महावीर ने पौगणिक ज्ञान का विरोध किया वे भी गलन हैं। वास्तव में महावीर उम परम्पग के पुत्र थे। उगक विरोध प्रवाह नहीं थे। पुगणों में मनप्य की रचना के पश्चात् ब्रह्मा ने मनाय को छोड़ दिया कि वह उनके उद्देश्य की पूर्ति करे । मन के समक्ष भी वही जीवन प्रवाह अनर्गल गोरों में भग हुआ मचल रहा था। भगवान महावीर मनपुत्र ने उमे देवा। वही वह अनन्य नीव उज्ज्वल निल प्रवाह था जिसे हेनरीवर्गमां देख रहा था। परन्तु दोनों की दृष्टि में अन्तर था। महावीर ईश्वर के आदेश को नहीं भला था और उमने जाना था कि उम काम मिला है। इस प्रवाह को उद्देश्य देना, इमे मानवीय गणों में अलकृत करना, इमकं पोगें में मानवीय पीड़ा भर देना । दमकी निरंकुश निम्द्देश्य गति को मानवीय करना और प्रेम में आन्दोलिन एक मंगीतमय प्रवाह बना देना, इम शन्य को पुनः मृष्टि में भर देना।
महावीर का पूग जोर चरित्र के गठन पर था और चरित्र का निर्माण उन्होंने निपंधों में नहीं किया। उनका ब्रह्मचर्य और अहिंमा
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निषेध नहीं थे, विपरीतों के ममन्वय थे जिममे विपरीत शेष हो जाय
और जीवन एक मम्बद्ध पूर्णना वनकर, एक ही प्रवाह बनकर उद्घटित हो। उनका उद्देश्य था कि व्यवहारिक तल पर मनुष्य में (कन्टाड्रिक्शन) विरोध न रहे। उन्होंने जीवन प्रवाह को एकमूत्र में जगाना चाहा था। इमलिये वह मर्पिन होने वाले और जिमके प्रति समर्पण होना है इनके द्वैन को भी नहीं रहने देना चाहते थे। वे जानने थे कि इम प्रकार मनुष्य का विकास सम्भव नहीं है । यह ठीक भी था । यदि में किसी आदर्श या देवना को ममपित होता हूं नो में नि:मंदेह उमसे अलग हूं। इम स्थिति में उमको कभी भी ममपिन नहीं हो सकता। में केवल उमकी कल्पनाकृत आकृति, इमेज को मर्पित हंगा जो मेरे मन में बनी है। वह व्यक्ति क्या है? जरूरी नहीं कि वह उम इमेज जमा ही हो। महावीर का कहना है कि यह इमेज का द्वैन ग्वा क्यों जाय? क्यों न में स्वयं में वह व्यक्ति बन जाऊं जिमको मुझे ममपिन होना है? उन्होंने प्रेम की उम पगकाष्ठा को छुआ है जहां श्याम गधा हो जाने हैं और गधा ग्याम हो जाती है । इम नग्ह आत्ममात हो जाने पर हम जिमे ममपित होंगे वह कलाकृत या इमेज नहीं होगा बल्कि वह वास्तव में वह पुरुष होगा जिमको हम मर्पित होना चाहते हैं। महावीर ने यह जाना था कि मनुष्य में पुरुष और मपिन होने वाली नारी ये दोनों ही तत्व विद्यमान हैं। उन्होंने इमलिये इतना कहा कि इस पुरुष तत्व को उम आदर्श पुरुप से आत्ममात कर दो जिसे तुम ममपित होना चाहने हो। इमका विकास उसी दिशा में होगा जिम दिशा में वह चलकर आदर्श पुरुप बना, विकसित हुआ औरतीर्थकर बना। इस तरह तुम्हाग पुरुष तत्व स्वयं पूर्णतया विकमित हो जाय और फिर तुम्हाग नारी तत्व उमे समर्पित हो जाय तो द्वैत का अन्त हो जायगा । यह मनुष्य के मानसिक क्षोभ का अन्त होगा। यह जितना विरोध, क्षोभ और विद्रोह उसके मानसिक तल को जला रहा है इसका अन्त करने का एकमात्र उपाय यही है कि इसमें निहित एकता तत्व को जगाया जाय। जब वह
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एकता तत्व विकमित होगा तो वही शक्ति जो अनेन विरोधों में बिखर कर हमारे मानमिक क्षिनिज को काला कर रही है बदलकर विकाम की प्रखर किरण बन जाएगी। "अमन भी वही हलाहल है जो. मालम नही तुझको अन्दाज है पीने के।" प्रकृति के गहन गर्भ में हो रही एम किमियागरी को महावीर ने हजारों वर्ष पहले पहचाना था। यह एक सूर्यरश्मि का रंग दृटकर कमे मान रंगों में इन्द्रधनप बन जाता है। कमे वही चीज़ मठकर मग बन जाती है। यह आश्चर्य जो हम अपने जीवन में पदार्थों के बीच देख रहे है हमारे मनम में भी घट रहा है। अनेकों अंधेरै है जो अचानक घनीभन होकर प्रकाश हो जाने हैं। नितने ही विप है जो अचानक अमन में बदल जाते है । एक विनिय व्यथा है मनुष्य के मानमिक अधेगें की जिम महावीर ने मना था। उमन जाना था इम तल पर मानमिक हिमा काम नहीं देती। पग्निर और आग्रह काम नही देते। यह नल बहन नाजक है जहा विकृनिए और मन्य का उद्गम यदि हम जान ले नोयिन उद्गम के उम बोन को पा लंगे जिममे फूट कर रमों के झग्ने ममम्न मानमिक क्षितिज को माधर्य में, उल्लाम से भर देगे। उमी को उन्होंने निर्वाण कहा था।
आज के मनोवैज्ञानिकों ने उम प्रकाग की कहीं-कही झलक देवी है जिसे पूर्णरूप में महावीर ने देखा था। उनकी अहिमा कमंटना मे दूर भागने का मार्ग नहीं है । वे नो यह बता रहे है कि इन घघलकों में इस प्रकार के शस्त्रों में काम नहीं चलना । महावीर योद्धा थे । उन्होंने इनना जाना था कि कुछ लडादा मी है जिनमें जीन उनकी होगी जिनके हाथों में तलवार नहीं है । महावीर का मार्ग कलाकार का मार्ग है । मौन्दर्यवाधियों का मार्ग है । यह एक ऐमा नाजक मार्ग है जिमे थोड़ी मी नर्क की प्रवचना भंग कर देगी। दमकी पूर्णता और सौन्दर्यता अनुभव करने के लिये एक मृक्ष्म बद्धि और भावना का होना अनिवार्य है।
महावीर ने नारी को धिक्काग नहीं । महावीर ने नारी को
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निर्वाग के अनुपयुक्त भी नही कहा। दरअमल ममस्त जैन विचारधारा नारी के प्रति हीन भावनाओं के विरुद्ध है । वेताम्बरों के अनुसार म्बय मल्लिनाथ नीर्थकर एक नारी थे। केवल एक बात पर महावीर ने जोर दिया। वह पुरुप सिंह थे। उनका जीवन दर्शन व्यवहारिक था। वे किमी कोमल व्याल के महारे यथार्थ मे आव नही मीच मकने थे। उन्होंने अनभवों में जाना था कि केवल ममर्पण का पाठ, म्वाभाविक रूप में जो नारी लेनी है, उसका उनके युग मे और उममे पूर्व बहुत दुरुपयोग हुआ । आदिकाल मे पुरुप ने नारी में ममर्पण भावना को उकमाया है और आज वह उसका स्वभाव बन गया है। यह ममर्पण भाव वह एक दुष्ट व्यक्ति के प्रति भी उमी श्रद्धा मे रखती है यदि वह उसके जीवन का प्रणता बन जाय । महावीर ने जाना था इस प्रकार नारी ममर्पण-आग्रह करके मदाचार में गिरी है । मन्य मे दूर हटी है। उन्होंने नारी का नहीं, ममर्पण की इम एकागी भावना का तिरस्कार किया । उन्होने नारी को अपनी ऐनिहामिक भल मघाग्ने के लिये ललकाग । इनिहाम के शुरू में मनुष्य ने जो भूल की थी और शतरूपा को मगिनी न बनाकर एक दामी बनाया था महावीर ने इम परम्पग को ललकाग था। महावीर ने नारी में कहा कि जब तक तुम अपने में उम पुरुष को नही जगाओगी जिसके प्रनि तुम्हे मर्पित होना है तब तक तुम्हें निर्वाण नही हो सकता। वह पुरुष नत्व तुममें भी उमी नरह है जिम तरह पुरुषो मे है। तुम उसे भूल गई होऔर उसकी पूनि भौतिक पुरुषों में डूढ रही हो। भौतिक पुरुप भौनिक नारी की पूर्ति कर सकता है परन्तु मानमिक नारी का समर्पण ग्रहण करने का अधिकार केवल उम मानसिक पुरुष को है जिसे मनाय जानिने दनिहाम के शुरू मे नारी के मनम अधेरो मे मला दिया था। मम्भवतः पुरुप की लोलपता और शामन की प्रवचना इसके पीछे उद्देश्य रही है । परन्तु महावीर तो शासन, दर्शन और अनेक मंकीर्णताओं मे ऊपर उठ चके थे । वे कब इम विडम्बना को स्वीकार करते। उन्होने नारी के लिये वह मार्ग प्रशस्त
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किया जो नारी आज तक खोज-खोज कर भी न खोज सकी और टटती ही गई।आज की क्लान्त पथभ्रष्ट पश्चिमी नारी जोहाथों में आजादी के झण्डे लिये पुरुष विरोधी नारे लगानी फिर रही है वह अपने मनममे नये अंधेरे रच रही हैं उम पुरुष को मुलाए रखने के लिये जिमे हजारों वर्ष पूर्व उममें मुला दिया गया था। यह आधनिक लिब मवमेण्ट वाली नारी भी पुरुष की दामता मे बंधी है । यह केवल उम दामना का दूमग रूप है । महावीर ने बताया कि विपरीतो को जीतने का मार्ग विरोध नहीं है परन्तु वैपरील्य को अनावश्यक कर देना है। वह पुरुष जिममे उन्हें दामना और गलामी मिली है उममे मरिन । मार्ग उममे विरोध या उसके प्रति विद्रोह नहीं है बल्कि म्वय अपन में मोये पुरुष को जगा लेना है। महावीर का मार्ग आत्रामक है क्योंकि वह योद्धा है । महावीर एटिव है पमिव नहीं। वह नागे गं भी यही कहते है कि पमिव बनने में तुम अपने म्बम्प को प्राग्न नहीं हो मवनी। केवल आत्मसमर्पण एक अपंग है, एक भल है। उम पुरुष को आन्ममान करो जिमे मर्पित होना चाहते हो। वह गुरुप नन्व तुममे मो रहा है। मम्भवतः मनुष्य जाति में मिवाय महावीर और बद्ध के कोई भी अन्य विचारक ऐमा नहीं हुआ जिमने नारी को महीं जानि का यह मार्ग दिवाया हो। यह दो महापुरुप वास्तव में पुरुष की पर्गिधयों में ऊपर उठ गये जहां मे वह पुरुप-नारी को ममान म्नर पर देख मकन थे। उन्हें पुरुप और नारी में कोई जैविक भेद नहीं मिला। अन्नग्था केबल दृढना (Emphasis)का, जोर का। गारिक भंद कंवल गरीर तक ही सीमित है। उन्होंने जाना था कि मानमिक नल पर नार्ग में पुरुप में भंद किमी ऐतिहासिक भूल के कारण अधिक उत्पन्न हा ह, उननं है नहीं। हम भूल से नारी और पुरुष के बीच ममान बन्धना कं बन्धन टट गये, एक ग्वामी बन गया एक दामी बन गई । उम दामी के मन में म्वामी के प्रति क्षोभ आना ही था। आज का लिव मवमेण्ट उम विचाग्धाग की म्वाभाविक उपलब्धि है जो पुरुप ने व्यवहारिक नल पर नार्ग पर लादी है। ढाई
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हजार वर्ष पूर्व कालातीन पुरुष महावीर का हृदय इम अन्याय के प्रति क्रन्दन कर उठा और उसने माधारण व्यक्तियों की तरह इसके विरुद्ध आवाज न उठाकर मृध्म रूप में जन-जन को सम्बोधित किया और बताया कि नारी के मनम में एक पुरुप छिपा हुआ है और जिम दिन वह मिह उठेगा और आदर्श पुरुप होने का उपक्रम करेगा उम दिन नारी की ममपित होने की कामना फलीभत होगी। वह निर्वाण प्राप्त कर मकेगी। इसी तरह का संदेश बद्ध ने आनन्द को दिया जब गौतमी ५०० गनियों के माथ उनमे दीक्षा लेने आई थी। नारी का स्वभाव कृत्रिम करके उसके प्रति दयाभाव दिवाना ऐमा ही है जैसे किसी को अपाहिज करके उम पर दयाभाव दिग्वाना । ऐमा ही दयाभाव मनुष्य समाज नारी को देता आया है। महावीर ने कहा नारी को इम दया की जरूरत नहीं है। उमे अपना म्वरूप ममझने दो, उममे केवल ममर्पण की शक्ति को प्रवल करके उम अंधेगें में भटका दिया गया है। उममे उम पुरुष को जगने दो जिमकी पुकार पर यह ममपित होने वाली शक्ति पुनः लौटकर उम पुष्प में लीन होगी। नव वह भी उमी तरह निर्वाण को प्राप्त कर लेगी। कितनी विडम्बना है कि नारी को दाम बनाये रखने वालों ने महावीर के इन विचारों का भी शोपण कर लिया। वह युगातीत पुरुष जो हमेशा के लिये नारी को इन झठी मान्यताओं में मुक्त कराकर मत्य के पथ पर आरुद्ध करना चाहता था उसे ही उम विचार का जन्मदाता मान लिया जो नारी के लिये मोक्ष प्राप्नि असम्भव बताता है । परन्तु युग चेत रहा है। अधिक दिन तक लोलप व्यक्तियों की विचार-रचना नारी को बंधित नहीं रख सकेगी। यदि मन्प्य जाति ने समय मे महावीर के विचारों को अपने में स्थान न दिया और अपनी इस ऐतिहासिक भल को न मघागतो लिब मवमेण्ट तथा अन्य मार्गों से नारी विद्रोह करेगी। मनुष्य जाति की पूर्ण शक्ति दो विरोधी कम्पों में टूट जाएगी। देवासुर संग्राम इसी घग पर होगा । मनु और शतरूपा जिन्हें ब्रह्मा ने इस उद्देश्य से रचा था कि वे मनुष्य तत्वों को
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स्थायी करें, मानव बद्धि, मानव आदर्श लेकर एगवद और आनन्दमय संमार की रचना करें, वे ही मन और गतम्मा एक दुसरे के नात्र हो जाएंगें। आज के यग मंदर्भ में महावीर के विचार अमन मान्य है।
आधुनिक नारी की ममम्या का निदान महावीर के विचारों में है। यदि हम यह चाहते है कि यह महान नागे-गरिन, गुण-गग्नि की सहायक बने और पूर्ण मनग्य जानि एकाग्र होकर विभाग मार्ग पर बन सके तो ज़रूरी है कि महावीर के विचारों के प्रकार में हम अपनी ऐतिहामिक भलों को मघारें । नारी को निर्भय और निःग्वार्थ होकर उमका मही स्वरूप ममझने में मदद करे। उग बनाये कि नर मानगिक तल पर पुरुप की पूरक नहीं है। उग नल पर पुरुष और नारी में अन्नर नहीं है। वह उमी तरह मोक्ष प्राप्त कर मकती है जिम नग गरप।
एबात ध्यान देने की है कि महावीर नागे आमा नहीं है। उन्होंने नारी गक्ति को कोई आध्यात्मिक महत्व नहीं दिया । लिये उन्हें कभी यह ज़रूरत नहीं पड़ी कि वे नारी की निन्दा करे । उनका दर्शन नारीत्व और पौरुप को कण्टील ममाना है जिमकी विभिन्नता से आत्मा का वह प्रकाग विभिन्न नहीं हो जाता जो दोनों का नीलों में ममान रूप मे जल रहा है। नारीत्व और पौम्प मार्गाग्क भिन्नताएं हैं। इनमे मनोवैज्ञानिक भिन्नताएं भी उत्पन्न हो जाती है । नारी की स्थिति मनप्य ममाज में गोपिन की रही है परन्तु यह नहीं भूलना है कि उमकी स्थिति मोहिनी और मोहिना की भी है । मनग्य ममाज ने नारी को जो मनोवैज्ञानिक चादर दी है वह बहुन उलझी हुई और झूठी है । नारी को उमका त्याग करना होगा यदि वह आत्मा का विहान चाहती है।
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सुन्दरम्महावीर का जीवन-दर्शन मुन्दरम् की प्राप्ति के लिये की गई
एक एक्मग्मादज़ है । प्रत्येक मनुष्य का चित्त मुन्दरम् में रमा हुआ है । या नो वह मुन्दर होना चाहना है या मुन्दर वस्तुओं को प्राप्त करना चाहता है। उसकी इम कामना का दमन महावीर नहीं मिखाने । यह नो हिमा होगी। महावीर मिग्वाने है वह मार्ग जिमके द्वाग मचमुच मन्दरहुआ जा मकना है। मौन्दर्य प्रमाधन और शारीरिक रख-रखाव हम मन्दर नहीं बनाने । माधारण मनप्य भी बहुत जल्दी जीवन में इम नथ्य को अनुभव मे जान जाने है । इसी कारण उच्च
और प्रगनिशील ममाज अत्यधिक मौन्दर्य प्रमाधनों को हीनता की नजर में देखते है । वे प्राकृतिक सुन्दरता को मच्चा मौन्दर्य मानते है। महावीर यही बनाने है कि यह प्राकृतिक सुन्दग्ना कमे प्राप्त की जा सकती है । गरीर में अनेक शक्तिएं है जो उम्र के माथ प्रकट होती जाती है। हर आने वाला दिन कुछ और नई गनियों को जन्म दे देता है हममें । इन शक्तियों को मर-नियत्रित रखना ही मुन्दरता को जन्म देना है । आज आदमी इन शक्तियों का दमन कर रहा है और चोरी छिपे इन्हें एक भद्दी अभिव्यक्ति दे रहा है । उमका जीवन मुन्दरता शून्य होता जा रहा है । महावीर इन्ही शक्तियों के मन्तुलन, उचित प्रयोग की बात कहते है। मुन्दरना (Austerity) मंयम में जन्म लेती है । एक कुमारी के मौन्दर्य मे सभी प्रभावित होते हैं क्योंकि उसकी शक्तियों ने अभी भोग नही जाना । अभी उमकी शक्तियां त्रिपुरा और प्रकृति के आर्केस्ट्रा में मुरबद्ध है । यौन के अनुभव के बाद यह आर्केस्ट्रा टूट जायेगा । एक मोहक नीद से जीवन अंगड़ाई लेकर उठ खड़ा होगा।
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तब जरूरत पड़ेगी एक नये मंगीतकार की जो इन बिग्वरे मरों को फिर एक आर्केस्ट्रा में मंजो दें। भोग प्राप्त होने तक प्रकृति और त्रिपुग दिव्य मंगीतकार बन हमारी गक्तियों को मग्बद्ध किये रहते है । परन्तु भोग के पश्चात् वे हम हमारे हाल पर छोड़ देते है । शक्तिाएं पछाड खाकर गरीर के भीतर गहाओं में गिर जाती है । एक विप्लव नम होता है । यह कठिन ममय है । अब आन्मा के जगने का ममय है। अब प्रमाद काम नहीं देता । आज नक आगमा गन्दग्ता के रिडोली में झूल रही थी। अनायाम ही मन्दम् उमकी पलकों पर विनर रहा था। उसके मनम में ग्वतः ही कमल मगेवर ग्विल रहे थे। मान गविन पनि कर रही थी। अब गुरुप विन के जगने की बला है। पर उसम है. पुरुषार्थ है. मघर्ष है। जो अनायाग ही प्राप्त था उग भोग का एक अनभव नाट कर देना है । अब उग मन्दग्म का अनभव दुवाग तब नक नहीं किया जा मकता जब तक पुग्ण विन दर्शन गैलरी से उठकर मंगीतकार नहीं बन जाती । भोग अपन में बरं नहीं है । पर गर्ग की टूट-फट जो भोग के बाद हमम होती है उन्हें बग कर देती है। यह जो दुजय आन्मा है यह अपनी टन्द्रियों के द्वाग उग मन्दरता का ग्म लेने की आदी हो गई है। ब्रह्मनयं (Austerity), का न्याग कर उमने एक गन में दिव्य आन्माओं को काट कर दिया।
यह आत्मा प्रमादमय हो गयी है । इमम अहकार, ममन्व, मोह का अभ्यदय हो चका है। जब नक मानव दन पदार्थों में पुनः अपने को मुक्त नहीं कर लेना नव नक उमं गुनः मौन्दर्य बोध नहीं होगा। यह नभी होगा जब आत्मा का विहान होगा। उमं उममे अधिक विमित होना होगा जैमा वह था। उसका जीवन द्वैन मं गा हुआ जैमा हर वच्चं का होता है। बच्चा और मां एक दूम में अभिन्न है। बच्चा मां के बिना नहीं जी मकना । वह उम दूध पिलानी है उमकी दिनचर्या चलाती है। पर जब वह बड़ा होता है नो एक दिन मा उमका यह काम करना बन्द कर देनी है । वह दिन आया है जब उम द्वैन का त्याग कर
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एकन्व में जागना है । अब मां को वह अपना आयाव्यविनत्व नहीं समझ मकना । अब उमं अपन में ही नारी गक्नि के उद्गम को वना है। द्वैन की स्थिति बई आगम की है । पर इममें हमेशा नहीं न्हा जा मकना। इमका त्याग कर एकत्र में जीना अनिवार्य है। जो इम वान को नहीं मममन व जीवन ममर में गर्मान रहते हैं । मा की गोद में उतर जाने के बाद भी उनी गोद में लौट जाने के मपने दम्बने रहने है। वे विमिन मनम ह । महावीर उम पुरुप मिह को जगाने है हमम जिमग हम और मानविन यं दोनों प्रगट हुए । इम द्वैन के नल पर मर जाना है--एक अंगी दिव्य मृत्य, जिम, "ग्लेटो" के शब्दों में, कंवल दानिक ही जानते है । कोई भी चीज नहीं मग्नी
Nothing of himn that doth fade All but suffers a sca change Into soinething glorious and strange
महावीर उम लाचार. महाग स्थिति को जीवन के लिये अपमानजनक मानत है जब हम मानगक्ति के लिये भटक रहे हों। यह भटक हम सबके जीवन में लगी है। वे कहते हैं उम उद्गम को दुद लें जिममे यह गक्नि प्रगट होती है। वहां तक पहुंचने के लियं उम व्यक्तित्व को मरना होगा जो हम है । यह मानमिक मृत्य दीप का वन्न जाना है। कोई भी चीज़ नही मग्नी। विधिपूर्वक. अदा मे दम नल पर जो मग्ना जानता है वह एक उच्च नल पर जियेगा. उन अलभ्य स्रोतों में जहा द्वैत नही है । इम पौरुप के जगाने के लिये मंयम की जरूरत होगी क्योंकि यह वह पुरुष है जिममे मन्दरम् अभिन्न है. जिममे मन्दग्ना अनन्त घारों में मनन् फट रही है । मन्दग्ना का उपभोग कर जीना आमान है परन्तु उमे अपने में ही जन्म देना कठिन है । जो ऐमा करने है वे जान जाते है कि इस पवित्र फल को कंमे रखा जाना है। इसका मन्य नव नक समझ में नहीं आता जब तक हम इमे अपने में जन्म नहीं देने । कोई भी व्यक्ति सुन्दरता का मूल्य, उमकी रक्षा की महना. संयम की
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आवश्यकता, तब तक नहीं समझता जब तक उसकी पुत्री एक मन्दर युवती न बन जाय । नव फिकर लगती है। तब वह अनायाम ही मन्दरता का पिता हो जाता है । इसी कारण शास्त्रकागे ने म्वर्ग प्राप्ति के लिये पुत्री का होना भी आवश्यक बनाया था। उममे यह दर्जेय आत्मा मन्दग्ना को कुछ देना मीखती है अन्यथा अपनी इन्द्रियों की ग्य्या पर वह मिर्फ सन्दरता मे प्राप्ति खोजती है । मन्दरता का प्रणेता होना यही महावीर का दर्शन है । मन्दरता का लोभी होना दामता है । मन्दग्ना के ग्म में ही लिप्त रहना द्वैत है । मन्दग्ना का त्याग करने को महावीर कहते है नो दमके मायने ये नहीं कि मन्दग्ता गे सब मम्बन्ध छिन्न हो जायंगे। जो आत्मा मन्दग्ना का ही आगार है वह मन्दग्ना मे अलग कैसे होगा । परन्तु निश्चित रूप में महावीर कहते हैं कि जगत में मन्दर लगनी चीजो का भी त्याग कर दो। इसके मायने है कि एक जगह न्यागोगेनो दुमरी जगह पाओगे । इम नल पर दार्शनिक मृन्य को प्राप्त हो जाओ ताकि अगम्य गहगढयों में तुम्हारी ही आत्मा की मन्दग्ना फट पड़े । तुम्हारी आत्मा ही आरिक मन्दग्ना में पुनर्जन्म ले-जमे "प्लेटो" ने कहा था।
वर्मवर्थ ल्यूमीग्रे की मन्दग्ना को दिव्य मानना है । यह ल्यमीग्रे महावीर का वही पुरुप मिह है जोल्यमी में जगहा है। वह मन्दग्ना को जन्म देना जान गई है। विचग्ने हर बादल उमके चेहरे को लावण्य देने ह और झग्ने की अग्झर ध्वनि में जगा मौन्दर्य चपचप उमक रूप में उतर जाता है । वह उम अगम्य स्थिति को जान गई है जहा मौन्दर्य नित नये-नये परिधान पहन अवग्नि हो रहा है। उन दिव्य अधेगें में "ल्यमी" का पुरुष जग गया है। कौन कहता है नारी मक्त नहीं हो मकती। वह कुमारिका जो भागों में अपर्गिचन है और म्वर्ण-गिला मी कठोर देह लिये जीवन की देहरी पर बड़ी है वह अभिजान है, वह पौम्यमयी है । वह मन्दग्ना को जन्म दे रही है। वह पुरुप जो उमकी ओर लालमा भरी दृष्टि में देख रहा है वह दानिक परिभाषा में नारी
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है। वह हैन का दाम है। वह नम्णी नहीं। महावीर कहते है उम नम्णी जमे हो जाओ जो अपने मौन्दर्य के प्रचण्ड प्रहार मे अनभिज्ञ है क्योंकि वह अपनं को अपने मौन्दयं मे अलग नही देग्वनी। वह द्वैनमयी नहीं है। यह नारुण्य बला जीवन में गाग्वन कग्ना आमान नहीं है । नागण्य तो कंवल एक ट्रेलरहं भव्य जीवन का।जोममय है वे उमे खोज लेने है।
उमी मन्दग्ना को प्राप्त करना मनाय जीवन का ध्येय है जो अन्नरजन्य है। प्रमायन र्गहन यही मौन्दर्य एक दिन गजा कफंच को एक भिग्वारिणी के प्रति भी विह्वल कर देना है। ये अनेक गक्तियां काल के आवेग है जो निग्न्नर मानमिक स्थिति में विक्षोभ पैदा कर रही है और हमें बदल रही है। जो दम दुर्जेय काल को जीत लेगा वही मन्दग्ना के उदगमको पा मकंगा। काल और क्षेत्र मे मीमित दम जगत की ममग्न मन्दग्ना Externalisation है । यह नकल है मुन्दरम् की। काल यह नकल करता है हमे भलावे में डालने को। यह नकल हीगरीर की नम्णाई है । यह प्रणाम गाग्वन मन्य को है काल का। विन इम प्रणाम के काल अपना अभिनय पृथ्वी मच पर नहीं दिग्वा मक्ता । यह अभिनय गाग्त्र की परम्पग है। अनशामन है । परन्तु काल के अन्य ममम्त म्प अमन्दर है। नारण्य को मन्दर मानकर जो लिग्न हो गये वे जीवनभर तणियों में ही उमे खोजते रहेंगे और वह उन्हें नहीं मिलेगा। तारुण्य ढलता रहेगा। चाह कर भी मन के बन्धन जल्दी-जन्दी खलने बधने रहेंगे । दुखो का आरव होगा । महावीर कहने है नामण्य की बेबाक़ी मे जिम मन्दरम् के तुमने दर्शन किये उमका उद्गम नारण्य नहीं है। उमका उद्गम काल के परे है । तुम्हारी आत्मा को प्रमाद तजना होगा । कालानीन मन्दरम् मे पुनर्जन्म प्राप्त करना होगा। यही चरम उत्कर्ष है।
शारीरिक गन्दरता का उद्गम तपम है। उम नप को करने से आत्मा परिष्कृत होती है । उस पर जमे पदार्थ कणो का त्याग आवश्यक है।
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गृह त्याग महावीर का गृह त्याग और मन्याम एक संकेतात्मक (Symbolic)
क्रिया है । यह उम मन्याम और गृह त्याग मे सर्वथा अलग है जो माधारणतः मन्याम लेने वाले मभी माघ करते है, चाहे वह किमी भी धर्म में दीक्षित हों । महावीर अपने परिवार में मम्बन्ध विच्छेद कर लेने को कहते है । प्रथम कार्य वस्त्र त्यागने के उपगन्न जो वह करते है वह है अपने ही हाथो मे अपने केगो को उखाड फेकना । मामान्य जीवन में लिप्त किमी भी व्यक्ति के लिये परिवार में मम्बन्ध विच्छेद कर लेने की बात बहुन कठोर मागं लगती है। किचिन् अमानवीय भी लगती है।
आनिक मनोविज्ञान फायट और जग के अन्वेषणों के पश्चात् भी करीब-करीब दमी नतीजे पर पहुचा है । जग म्पाट गन्दी में कहता है, जो आत्मा मन्य में उगना चाहती है उम यह मम्बन्ध विच्छंद करना ही होगा। मा परिवार का केन्द्र है। प्रत्येक मनाय में एक ग्वाभाविक प्रेरणा है मा की ओर भागने की। मा की शरण लेने की। वह मन्य का मामना नहीं करना चाहता । मन्य उसे बहुत कर लगता है और मां की गोद परियों की कहानियों की नग्ह ग्गीन और मखद है। मा की गोद में वह गजा है, मत्रमे बडा योद्धा है । मनाय की आत्मा की गहगइया इम गोद में नग्न हो जाती है । दलिय प्रत्येक मनग्य की लोभायनि शक्नि ( Libido ) उमे मा की और ग्वीचनी है । यह लोभायनि शक्ति क्या है। यह मयंगक्ति है। उपनिपदों में यह एक ऐसे मर्प की तरह वणिन है जो हमारी आत्मा को घरहा है। यह रुद्र है। यह हमें जीवन भी देनी है और नष्ट भी करनी है। इसमें दो विपरीत
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घागय माथ-माथ चल रही है। यह गक्ति हमे बार-बार मां की ओर खींचनी है क्योंकि वहा दम व अजब सोनमलना, प्रेम और पवित्रता के मियां ह जिन्हें पीकर यह पृष्ट हो जाती है। परन्तु यदि यह शक्ति गां का त्याग नहीं करंगी नो यह आक्रामक नहीं होगी। यही वह गक्नि है जिम लेकर एक नीर्थकर मोक्ष के लिये कच करता है। मा का त्याग कर देने के बाद यह किन अपने को एक अन्य में पाती है। वह मुखद अनीन नथा पूर्वजों के जीवन में मिलनी अमनघाग, जो मा के प्रति आमक्ति के कारण हम महज मलभ है, वह मन्याम लेने पर, मा से मम्बन्ध विच्छेद कर लेने पर समाप्त हो जाती है। उसके पश्चात् आत्मा अपने को एक गन्य में पानी है। यह कर यथार्थो का गन्य है। मघर दुलार में ढका जीवन मा मे मम्बन्ध विच्छेद करने ही खत्म हो गया। अब आत्मा भयानक अंधकार में अकेली वडी है। हर यथार्थ कर, पने दान निकालकर पिशाचों की नग्ह हम रहा है। भयानक गीत, ऊणना और हिमक पण आत्मा को चारो ओर में घेर लेने है । आत्मा की दम स्थिति को भाग्नीय ऋषियों ने नपम्या कहा है। इन भयानक अनिरजित यथार्थो का मामना महावीर ने १२ वर्षों तक किया और तब उनकी आत्मा यथार्थों में मस्त हुई। तब उन्होंने उम मत्य को जाना जो यथार्थ ओर म्वग्न दोनों में भिन्न है । यह उनकी आत्मा का पुनर्जन्म है मा के ही गर्भ में । जग कहना है कि इम नह पुनर्जन्म प्राप्त कर बिरले मनप्य अलोकिक माहम का परिचय देते हुए अमर जीवन की प्राग्नि करने है। आज का मनोविज्ञान बनाना है कि इस तरह मानिक (Symbolic ) गृह त्याग प्रत्येक गृहस्थ के लिये एक मफल जीवन की प्राप्ति हेतु अन्यन्त आवश्यक है । इसके विना आत्मा की लहर चट्टानो से नही टकगती, आगे के मार्ग नही खोजती।
महावीर का केश लोच भी इमी मे मम्बद्ध एक माकेनिक क्रिया है । केश मुर्य गक्ति लिबिडो के प्रतीक है। केगो के इम महत्व को बाइबिल में भी सेममन की कहानी के रूप में स्वीकार किया गया
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है। यह मनुष्य के शौर्य और बल के प्रतीक है । उसकी जीवन शक्ति के प्रतीक है । महावीर इन केगों को उग्वाडकर उम जीवन शक्ति में विदा ले रहे है । स्वेच्छा मे अपने उम जीवन की मृत्य कर रहे है जो उन्हें अपने परिवार मे, माना मे, मिला । उम गौर्य और बल का त्याग कर रहे है जो उन्हें अपने वश मे मिला । वे जानबझ कर एक मृत्य में प्रवेग कर रहे है ताकि इम तल पर मरकर पुनर्जन्म हो आन्तरिक अकेलेपन में, जहा कोई भी पूर्वज महाग देने को न हो । कोई भी अन्य पैतृक शक्नि उनकी अकेली आत्मा को मार्ग दिखाने या प्यार करने को न हो। अजान का महानिमिर हो और अकेली उनकी आत्मा हो । हजारों हिमक गत्रु हों और अकले गिशु जैमी आत्मा हो। इम तरह महावीर अपने पगक्रम को, अपने पौरप को ललकार रहे है। इम नगह वे वीर में महावीर हो रहे है। इस कारण बार-बार उनके शब्दों में तपस्या एक नकागत्मक (Negative), प्रनीप-गमन (Regression) अपने में ही घम जाना नही है । तान्या एक वीरता का कार्य है । एक सिंह का पगक्रम है । यह कितना कठिन है, यह वान केवल तभी जानी जा मानी है जब हमारी लोभायर्यानविन (Libido) मा में मम्बन्ध विच्छेद कर ले।
मा मे मम्बन्ध बिच्छेद कर लेने के बाद महावीर पुनः मा मे मानमिक पुनर्जन्म प्राप्त करने है। यही निर्वाण है। वे केवल-जान रूप उम माना को खोजने है जिसमे मिली शक्ति और प्रेम उन्हें बाधने नहीं वग्न मवन करने है।
दम प्रमग में हम नारी के प्रति महावीर के विचारो को और अच्छी नग्ह ममा मकने है । नारी का परित्याग महावीर मझान है क्योंकि उमकी कोमलता, उमका दुलार और मखद मार्य आत्मा को निश्चष्ट करने है । उसे आगे बढने में गेकने है । उममें यथार्थािन की कामना प्रबल हो जाती है । यह कामना अपने में झूठी, दुम्ब और निगगा की कारण है क्योकि जो दम मखद माये में बैठ जाने है काल उन्हें
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भी नही छोडना । बार-बार महावीर गौतम मे कहने है जागो क्योकि काल एक क्षण के लिये भी नुम्हें नहीं छोडना । नुम किनना ही नारी के मखद मायों में रहकर दम थिनि के गाग्वन होने की कामना करने रहो परन्तु स्थिनि पग्विनिन अवश्य हो जायेगी । अनः मां, प्रिया या अन्य किमी भी रूप में नारी द्वाग दिया गया प्रेम और कोमलना का आश्वामन अमन् है । काल उमे परिवर्तित कर देगा, उमम ममय के माथ वह वान नहीं रहेगी । महावीर के कहने के मायने यह नहीं कि तुम नारी के प्रति कर और विमग्न हो जाओ क्योंकि वह तुम्हें अठी कोमलता के माये दे रही है । महावीर दम वान मे परिचित है कि नारी जो कुछ मन्दग्नम् दे सकती है, दे रही है। इसके लिये वे उसके प्रति कोमल है। उनकी कोमलता इमी वान मे प्रगट है कि केवल जान के बाद वह मकल्प करने है कि वे प्रथम आहार एक नारी में ही लेंगे। वह तो हमें उम कट लॉछना या आरोप में बचा रहे है जो प्रत्येक पुरुष बाद में नारी पर आगेपिन करता है कि इसका प्रेम झठा था या इमने मझे बढन नहीं दिया । वे कह रहे है कि जान लो विडम्बना यह नही है कि नारी कुछ नही देती। विडम्बना यह है कि जो कुछ वह दे रही है वह इतना मघर और कोमल है कि आत्मा यदि थोडी भी मम्न हुई तो मो जायेगी और जीवन व्यर्थ हो जायेगा। वे नारी में हमेशा-हमेगा के लिये मम्बन्ध नोड लेने को नहीं कहने । वे कहते हैं कि इन मामारिक मम्बन्धों के महत्वहीन और अलमाने वाले मही रूप को ममझो। इसके पश्चात् इन कोमलनाओ में हीन घने वनो में अपनी अली आत्मा पर समम्त शक्तियों के उपद्रवी को अकेले महो । नव नुम्हारी आत्मा में घावक उत्पन्न होगा । आत्मा पगमी. पौरपमयी और स्वावलम्नी होगी। उमके पश्चात् जान का यज गा होगा । नव वही नारी शक्ति केवल-जान के रूप में आत्मा की मा होगी। इस प्रकार आत्मा का पुनर्जन्म नारी में ही होगा। परन्तु केवल-जान रूप में नारी के साये वैसे नहीं होंगे जो आत्मा को मुला मके । यह बात ध्यान देने
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योग्य है कि इसके बाद ज्ञान में जो वाणी भगवान महावीर ने प्रगट की उम जिनवाणी को जैन आज तक माता कह कर मम्बोधित करने हैं। मातृशक्ति की उपामना जनों में भी है इसका इममे अधिक मबल प्रमाण ढूढना निरर्थक है।
__ इमसे स्पष्ट है कि महावीर का दर्शन न नो नारी को गद्र. गंवार कहता है, न नर्क का द्वार । वह उन ज्ञानपिपामओं की तरह नहीं है जो नारी की मीमाएं देखकर बौखला उठने है और उमे अपशब्दों मे लाद देते हैं। महावीर हमें कदम-कदम पर मत्यग्राही होने को आमन्त्रित कर रहे है । वह कहते है कि पुरुष का स्वभाव है कि वह नारी में बहुत अधिक उम्मीद लगाना है। यह उमकी प्रकृति में निहित है। नारी की कोमलना और स्नेह उमे अमन तुल्य लगते है । अमर और गाग्वत जीवन का अनुभव उमे नारी के मानिध्य में मिलता है । महावीर कहते है कि नेत्र खोलो। यह अनभव मन्य नहीं है । यदि नेत्र नहीं खोलोगे तो कल तुम्ही नारी की निन्दा कगंगे और उसे छलना कहोगे। अपने स्वभाव में बम दम अनिरंजन आवेग को पहचानो। इमम नारी का दोप नही है । तुम्हारी ही प्रकृति वह मैनिफाग लेन्म है जो नारी को अत्यन्त कोमल और मन्यं, गिव, मन्दरम् म्वरूप बनाकर तुम्हे महमम कगती है । कल जब यथार्थ बनाता है कि वह ऐमी नही है तो तुममें उसके प्रति कटना मंचग्नि होती है और दम नग्ह गुरुप और नारी यगों में और भी दूर-दूर होने आये है । इम कोमलना में जीकर पुरुप और नारी एक नहीं हो पाते । महावीर उम मागं की ओर इशाग कर रहे है जिम पर चलकर वे एक ही मकते है । नारी के इन कोमल मायों को त्यागना होगा नाकि तुम्हें नारी में मच्ची और शाश्वन कोमलना के माये मिल मकं । जो दम नग्ह खोना नहीं जानते वह पाना भी नहीं जानते।
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प्रकृति की विचित्र प्रयोगशाला-दुर्गुणों को कोमियागरी
ज्यों-ज्यों हम जीवन के अनभव प्राप्त करने हैं एक विचित्र बात हम
मवर्क माथ घटती है। हमाग लोगों में में विश्वाम खत्म होता जाना है। बचपन में माता-पिता की हर वान हमें देववाक्य लगनी थी। फिर गम्जनों के माथ ऐमा रहा। पर युवा होते-होते. अनुभवों के माथ अविश्वाम प्रकृति में बढना गया। प्रगामन में, व्यापार मे, मब जगह जहाँ भी मनप्य स्थित है, उमे जो अनुभव मिल रहे है वे मब अविश्वास जगा रहे हैं। यह अविश्वाम ही कारण है-व्यक्तियों के आइलण्ड बन जाने का,मोनाड्म (morads) वन जाने का । मब अलग-अलग होते जाने है, बन्द विडकियों वाले मकानों की तरह जिनके बीच कोई मंचार नहीं। इममे प्रत्येक मनुष्य दुम्वी है। कोई नहीं चाहता कि उमका जीवन अकेला पड जाय । मब चाहते है पूर्ण जीवन प्रवाह में एक होना, दमके म्पन्दन, अनुभव, अनभनियों में अपने को मनन् प्रेरित किये रखना। पर इसके लिये हमारे जीवन में विमर्जन की क्षमता होनी चाहिये, दार्शनिक मृत्यु को प्राप्त करने की तकनीक मालम होनी चाहिए। इसके लिये औरों पर विश्वाम होना जरूरी है। परन्तु जीवन-यात्रा में हम उपलब्धि हो रही है मनप्यों पर अविश्वाम की। फिर कमे हम अपने जीवन के अकेलेपन को दूर कर मकने है? न मही मोक्ष, जीवन को तो मनुष्य की तरह सुधार ले. एक दूमरे मे महयोग करके, एक दूसरे के प्रति उदारता, प्रेम, सहानुभूति, दया, क्षमा को मक्रिय रूप में अपने भीतर आवेगों की तरह महमूस करके । इममे जीवन निष्प्रयोजन नो नहीं होगा, रिक्त नो नही
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होगा। महावीर कहते है कि वही जीवन मोक्ष-मार्ग है जो पूरी मम्वेदनाओं, महानुभति, दया. क्षमा व प्रेम के आवेगों को व्यक्त कर रहा है। यही पूरी तरह जीना है। यही जीवन को वह हा' (yea) है जो नीन्मे का सुपरमैन जगथप्ट कहना चाहता है । परन्तु यह मम्भव कम हो? ये मारे आवेगनोरुक गये है गरीर में जमे किमी मत्र के अमर में पूरे नगरवामी पत्थर के हो गये थे । इमी तरह ये आवेग पत्थर के हो गये है । मब स्थिर हैं। इसका एक मात्र कारण यह अविश्वाम कीपजी है जो अनभवों की निजारत में हमाग जीवन कमा रहा है । दग पनी का एक मेरू पर्वत हमारी नाभि में उग रहा है। इसमें टकगकर मारे मानवीय भावनाओं के आवेग लौट जाते हैं। वे आवेग जो हमारे जीवन को मोट देने. जो हमें महमम कगते कि हम जी रहे है, वे राम मंझ पर्वत पर अपने गिर पटक कर लौट जाते है । अत: वह प्रेम, मदभावना, मंत्री जो हम बाद के वर्षों में लोगों को देन है मब व्यापार, डिप्लोमगी के रूप ह । उममं न वह महजता है, न आत्मीयता है जिसके बिना जीवनतम् मग्न रहा है। पर मारे मनप्य विवश है क्योंकि अविश्वास का मंस नाभि में उठ गया है इमे कैम हटायें । इमे नजरअंदाज करन हे नो यथार्थ में पाव उघड जाते है। एक काल्पनिक दुनियाँ में हम जीने लगते हैं। औगें मनाने और भीट जाते है । मामहिक जीवन पर हम कोई अमर नहीं डाल मकने । हमाग जीना जीवन-प्रवाह में कोई अच्छी नग्ग पैदा नहीं करना । हम जीवन को बिना अर्घ दिये कृतघ्नों की भाति चले जाते है । इसके अलावा हम अमफल भी रहते है। यह कहना कि दुनियाँ में बईमान, ठे, चापलम ही मफल होते है कुछ जंचना नहीं। वे इमलिये मफल होने है कि मच्ची वेदना, महानुभूनि, प्रेम रखने वाले दुनियाँ में रहने ही नहीं। ये लोग कम से कम झूठी रंगीनियों ही में जीवन को मलायम किये हुए है। इस दुनियां से भाग जाना, क्योंकि यह झूठी और बंध का कारण है, यक्निमंगत वात नहीं। दुनियाँ है क्या? मोती हुई चेतनाओं का मागर । इममें हम कहां जायेंगे? जंगलों में भी यह है । हिमाच्छादिन चोटियों पर भी यह है ।
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महावीर इमसे भागने की बात नहीं कहने । वे व्यवहारिक दार्शनिक हैं। उन्होंने कहने से पहले अनुभव किया है । वे मनुष्य के संकट और ममम्या को पहचानते है । वे उमे अच्छे आचरण की एक आदर्श लिस्ट नहीं देने कि इनका अभ्याम कर । वे उन उल्टी शक्तियों, उल्टे अनुभवों कोही छ्ने है जो उसे जीवन-यात्रा में हो रहे हैं और जो चीज़ उमे जकड़ रही है, उसके जीवन-प्रवाह को रोके हुए है, उमे ही उसके पार उतरने की नाव बनाते है। अब उममें अविश्वास का मेरू खड़ा हो ही रहा है तो इमका प्रक्षालन (catharsis) कंमे हो? महावीर उममे यह नही कहते कि औगें पर अविवाम मन कर । वे कहते है कि एक क्षण को भी औरों पर विश्वाम मन कर। परन्तु इमे नुग्न दार्गनिक नल पर ले आने है। क्यों विश्वाम न कर ? क्योंकि मंमागे मनाय एक मज़ की नीद ले रहे है। उनका विश्वाम यदि आपडिन करंगा नो वह भी मो जायेगा।
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प्रक्षालन (Catharsis) इस तरह जो चीज हमे माधारण जीवन के अनभवों में मिल रही है- अविश्वाम-उमका महावीर प्रक्षालन कर रहे है दार्शनिक तल पर । यह बात समझने की है। गंजाना के जीवन में मिला यह विप रोजाना के जीवन में ही हम व्यक्त कर रहे है। यह विप उगलने जमा है। इममे किमी का कल्याण नहीं हो रहा है। उमगे नो लोग और दूर-दूर चले जाते है । यह ऐसा ही है कि हम कडा पडोगी के घर के बाहर दाल दे। वह नागज होगा और बर बढेगा । परन्तु यदि विगी गना मिल मे contract हो जाय और हम माग कहा वहा भेज देनोम गन्दगी का प्रक्षालन हो गया और एक बड़ी काम की चीज बन गई। इसी तरह यह अविश्वाम जो मामान्य जीवन में मिल रहा है दमका प्रक्षालन दार्शनिक नल पर कगे। यह नल मर्वथा व्यक्तिगत है और उसमें इतनी मशीन व उपकरण है कि क्षणभर में उम अविम्बाम की कायाकल्प हो जायगी। दार्शनिक तल पर यह पहुंचेगा अविश्वाम बनकर परन्तु वहा में बाहर निकलेगा जागृति, जागरूकता बनकर, उल्लामत चेतना बनकर। माधारण लोग जब हमम मिलंगे तो उन्हें हममे अविश्वास नहीं मिलेगा बल्कि एक मदा मजग चेतना मिलेगी जिमके ममर्ग मात्र में उनमे म्फनि, होगी, म्पन्दन होगा, ऊर्जा जगेगी। वे भी अधकार में अलमार्य पौधों की नम्ह मर्य मी रश्मियों के लिये हाथ ऊपर करेंगे । म नग्ह अविश्वाम की धाग एक काम की चीज हो जायेगी। अविश्वाम का विप हममे जग नही कंगा। हमारी प्रकृति उमगं घटंगी नहीं बल्कि वह अविश्वाम आत्म-जागृति के लिये Raw material बनेगा । वह अग्नि बनेगा जिममे उपग्रह छोड़े जाते है । जब मभी मनुष्य अविश्वाम का मूल्य ममझ
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लेंगे और उसे आध्यात्मिक जागति का माधन बनायंगे नो फिर एक यिनि आयगी कि अविवाम पंदा होना बत्म हो जायगा । वे कारण ही शंप हो जायेंगे जिनमें मनग्य मनग्य पर अविश्वास करना है । मनाय जो भी करेगा वह अपनी दुर्जेय आत्मा वो जीतने के उद्देश्य में होगा। तब मनाय को मनग्य में पीटा हो सकती है पर अविश्वास नहीं जगेगा। अविश्वास का एकमात्र कारण यह है कि अधिकाग मनपर अपनी दुर्जय आत्मा को जीतने के लिये जीवन ममर में प्रवन नहीं होने वल्कि मकी निरकुग, अमानवीय पिराना गान करने के लिये आने है और इसके लिये उन्हें औगेका गोपण कग्ने, आगे कोदाम बनाने में जग भी लज्जा नहीं लगती। महावीर जानते है कि यह बहुत दूर की कल्पना है। ऐमा दिन मरिकल में ही आयेगा जब सभी मनाय जाग जाय । अनः उन्होंने गम्ना दिया उनको जो जाग रहे है । वे उन्हें सम्बोधित कर रहे है। चागे ओर मे बग्मने दम अविवाम में वृठिन मन होओ। म मोक्ष का माधन बनाओ। आओ में तुम्हें दम विप के उपयोग का तरीका मिवाना हूँ।
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श्रावक इसके माथ महावीर का दूमग विचार हमारे सामने आता है । वे ' कहते है कि मनना एक कला है। एक अच्छे श्रोता बनो। अन्छा श्रावक होना मोक्षमार्ग है । अविश्वाम क्यों होता है ? हमे दूमगें का स्वार्थ नजर आने लगता है उनके वर्मों में। उनकी बानाम हम उनका म्वार्थ दीग्वने लगता है। उनके स्वार्थ में हमागम्वार्थ टकगने लगता है। महावीर कहते हैं कि अन्ले श्रीता बनी। यह अविश्वास का मेरु दूगगे की बान मनने नहीं देगा। एमे विचार गरी उत्पन्न होने है जो कानो को अवरुद्ध कर देन है। जो कहा जा रहा है में गनन नहीं देने या उम एम तरह इन्टरप्रेट करके हममं प्रविष्ट करने है कि अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अविश्वाम धन शब्दों का विरोध न करें और ये दोनों एक दूसरे का मत्कार करें। टमी नगह हमारे ग्वार्थ एक दूगर का सम्मान करें। म्वार्थ नो मत्र स्वार्थ है। हमाग म्वार्थ दुमगें के स्वार्थ गे थॉट होने हए भी अपने को उमीनल पर ममझे । हम पायग कि अविश्वाम, गनी वानं, मेग म्वार्थ, दूमगे का म्वार्थ--ये चागे चीज दरअगल एक विन का महयोग कर रही है। यह है अमन की शक्ति । परन्त ग नल पर नियम यह है कि जितना ये चार म्प एक दूसरे का महयोग करेंग उनना ही एक दूमरे को neutralive करेंगे । जितना एक दूसरे का विरोध करंग उनन ही एक इमर को बल देंगे। माया का विग्नागोगा ही है जमे को चोगें का ग्रप ऐगी यक्ति कर कि जंगे ही उनमें कोई पनदा जाय लोगों की भीट में घमकर दूम माथी उमपीटने लगे। लोगों को उन पर शक नहीं होगा।थोडा पीटकर वे अपने माथी को डाले जायंगे । माया के इन चार रूपों का पारम्परिक विरोध भी छमभग है। महावीर
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व्यवहारिक है । वे कहते है कि नही माया के इन चारों रूपों को neutralize कर दो। बिजली का करेण्ट नभी तक है जब तक positive और negative है । मब यदिpositive हो जायं तो करेण्ट नही बनेगा और कुल शक्ति neutralize हो जायगी। महावीर कहते है कि इम वान को पहचानो। अपना स्वार्थ जो शभ होनो भी उमे दूमरों के स्वार्थ के ममतल रखो। इन दोनों के बीच बमे महयोग को पहचानो और उमे खुलकर व्यक्त होने दो। दमी नरह अविश्वाम और मनी बातों को एक तल पर वो और उनके बीच छिपे महयोग को पहचानो नो तुम पाओगे कि तुम्हारी ही आत्मा ये चार प्रपच रच रही है। तुम्हे वे ही शब्द मनने को मिलेंगे जो तुम्हारे अविश्वास को neutralize कर सकेंगे। तुम्हें वैमे ही म्वार्थ मिलंगे जो तुम्हारे स्वार्थको neutralize कर मकेगे। इम तल पर आत्मा मर जायगी, ऐमी मृत्यु जिमे दार्शनिक जानने है। यहा दीया बुझने ही जोन एक गहरे मदम तल पर जगेगी और तुम्हारी दुर्जेय आत्मा और मग्ल और integerate होकर जगेगी। इन चारों मे लड़ो मन । ये तो अमन् है । अमन् मे लड़ना या उमे अपनाना दोनों ही उमे सन् बनाने के उपक्रम है। इसी उपक्रम में आत्मा अपने पर "पैगमाइट" बैठा रहा है स्वयं मर्ख बन रहा है। जोसच्चा श्रावक है वह इस प्रकार विकारों मे भी प्रकाश लेना मोख लेगा। आखिर ये मव एक म्पेक्ट्रम के ही तोरंग है। इनमे लड़कर इन्हे अलग अस्तित्व क्यों देने हो और फिर क्यों उन्हीं मे घिरने हो? इन्हे लौटा दो उम एक दुर्जेय आत्मा मे जिसने इतने विलक्षण खिलौनों से अपना बाजार मजाया है ।
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सम्यक् चरित्र
महावीर अहिमावादी है केवल प्राणियों के प्रति दया के कारण नही। " वे विचारों जिदों की हिंमा को भी हिमा ही कहते है । वे जानते है कि प्रहारो मे जिद नष्ट नही होगी। वह और रूपान्तरित हो जाती है । ऐमे रूप भी लेती है जिन्हे हम पहचान भी नहीं पाते । एडलर जुग आदि मनोवैज्ञानिको ने आज इमे मिद्ध भी कर दिया है। फिर क्या किया जाय' क्या इनमे कोई छटकाग नही ? क्या जीवन भर इन घृणित प्रवृत्नियो को व्यक्त करने रहना होगा? नहीं। महावीर यहाएडलर जग मे आगे दिशाबोध कगने है। जो करुणामय है उमका उपदेश किमी ऊंचे मच मे नही होगा। वह विलक्षण पुरुप मोक्ष की देहरी मे लौट आया है । वह छ रहा है मानवता की दुम्वती नस को। वह उसके सक्रामक रोगो मे भयभीत नही है, न उनमे घृणा करता है। कुछ भी नहीं है इम प्रपचमयी जगती मे जो उन्हें shock दे सके। मनप्य जीवन की मृतता, व्यर्थता, रुग्णता का खेल उन्होंने हजारों वर्षों में देखा है । वे उसके लिये मनग्य को लज्जित नहीं करते। वे उममे कहते है कि जानो कि ये विकार किमी म्वास्थ्य के म्पान्तर है। जिम तरह ये unfold हुए है उमी नग्ह वापिम उमी एक दुर्जेय आत्मा मे लीन भी हो मकने है । पर अब ये लीन हो मकते है केवल मुलझकर । इन्हे मुलझाओ । माहम के माथ यथार्थ की आखो मे आंखें डाल दो। तुम जानोगे कि दम Practical joke के पीछे जो छपा है वह दनना कट नहीं है। यह वही दुर्जय आत्मा है जो विना इंश्वर की नग्ह ज्ञानी हुए उमी ईश्वरीय खेल को पृथ्वी पर खेल रहा है। जब वह यह ग्वेल बन्द कर देगा और इमकी निर्थकना जान लेगा
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नो उमकी दार्गनिक मन्य हो जायगी। उमकी जगह आत्मा एक और उच्च म्प लेकर प्रगट होगी। यह निलिम्म जो मनोवैज्ञानिक नल पर फैला है दम छिन्न करने का मार्ग ही महावीर बना रहे है । जव नक इम निलिम्म को अलादीन छिन्न नहीं करता नव नक चिगग की बात करना मना है। विगग नक पहुचने के लिये अदम्य माहम की जरूरत है। जिनके पाम कान ह व मन ले बाढविल में बार-बार मसीहा कह रहा है । महावीर कहते है-धर्मश्रवण अति दुर्लभ है । कान नो परनिन्दा मनना चाहते है । यह परनिन्दा ही positive है अविग्वाम के माथ । जीवन में जो यह मनायो के प्रति अविग्वाम हमार मन में जग रहा है और नाभि में उठ रहा है दम परनिन्दा मनन की जमग्न है । दमे गेको मन । बम यह जानना जरी है कि ये दोनो एक दूम का महयोग करके एक दूमरे को neutralize कर देंगे। अपने स्वार्थ और दूमगे के म्वार्थ को positic कर दो, महयोगी कर दो। नव ये बादल हट जायंगे । नब म्वन. धर्म हमारे कानों में प्रविष्ठ हो जायगा।
__मनाग की विकृति है म्वार्थ । दमी मे अविश्वाम प्रकट होता है। इमी को देखकर हममें भी जिद में स्वार्थ जागना है । क्यों न नवीर की तरह हम उमके म्वार्थ में महयोग की गक्नि का आव्हान करें, प्रयनर में अपना म्वार्थ न जगायं । उमका ग्वार्थ नभी नक मगक्न रहेगा जब तक हमाग म्वार्थ उममे लडेगा । यदि मचमच दनना जान लिया है हमने और हमारे उद्गम में म्वार्थ का जन्म ग्वत्म हो गया है तो हमने दुर्जेय आत्मा को जीत लिया है । उमनाम्वार्थ म्वय ही नष्ट हो जायेगा।
नापिन में कहा है "Resist not cil" यह केवल नागत्मा नहीं है। यह मत्रिय है। जपान उन यक्ति के प्रनि मद्कामना है. द्वाहीनता है। इसमे वगई को बल नहीं मिलना । जो बग करे उनके लिये भला कर । अर्थ ये कि उनके लिये बगै कामना मन कर।
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स्वयं ही बुगई नही पनपेगी। उमे बगई कहकर अस्तित्व मत दो। वह parasite की तरह है जो मन् पर अपने को बैठाना चाहता है। ईश्वर ने मनप्य आत्माको अच्छाही बनाया है। यह अमन है जो अनेक विकृत रूप लेकर उम पर बैठना चाहता है। इन विन नियों के अस्तित्व पर आत्मा विश्वास न करे । इन्हें वादलो में बनने हाथी और माटी की तरह नि:मार ममझे। नत्र आत्मा में इनके प्रति विरोध न जन्मंगा और वह अपने मच्चे पथ पर लगी रहेगी। यदि उन्हें गच मान लिया तो इनमे लड़ने में जिन्दगी गजर जायेगी। आत्मा में, गन् में भी ये ही विकार आ जायेगे । आत्मा को अविचलिन रहना है दुनिया की बगइयों मे । यह मन्याम है । मच्चा मन्यामी वह है जो मगार में निलिान है, जो ममार मे घणा नहीं करता । जो गमार में भागा नही है। इस तरह नो उमकी आत्मा में घणा और पलायन के विप अकुर फट पडेगे । मच्चा मन्यागी ममार को अमन् मानना है । वह उगकी अच्छाइयों में नहीं रहना, न उगकी बगायो को बगई कहता है । वह जान गया है कि ममार अन्छा है न बग। ममा निर्माण है। जो यह दीग रहा है यह वह नहीं है. न उमका उल्टा है । यह है ही नहीं। यह अमन है जंगे अभिनंना को छट है कि वह को भी बन जाय उसी तरह म अमन् को छट है कि वह अन्छाईवगविगीका भीम्प घर पर आ गवता है। पर वह न अच्छा है न बगई। वह है ही नहीं। जिगने यह जान लिया वही कंवल कमल की तरह कीना में निलिग्न रह माना है।
"वोन्छिन्द मिजनप्पणी बमय माग्थ्य व पाणिय" मगवीर दम कमल गदग आचरण बतानं ह मन्चे गन्यामी का।
दम ममार की बगव्यों को जो बगई नहीं ममझना, अन्छायो को अच्छा नहीं ममझना, जो उन्हें अमन् मानना है, माया प्रपच मानना है, हाथ की मफाई या जादू ममझना है, उगकी आत्मा इममें न उनजिन है न प्रेरित । उमकी आत्मा अपनी गन गान्ति को अक्षण ग्वेगी। वह इम ममार मागर में विचरना हुआ भी इमम निलित
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होगा। इसके मायने ये नही कि उमे अन्य प्राणियों में कोई दिलचस्पी न होगी। यह दिलचम्पी न होती तो महावीर मोक्षद्वार मे लौट न आने । यह अमीम करुणा क्यों है उममें? फिर नो प्रेम के कोई मायने ही न रहते । परन्तु वे निग्न्न- प्रेम भाव को महत्व दे रहे है । उसे आत्मा के विकाम का माध्यम बना रहे है । जो जितना विकमिन होगा वह उनना ही प्रेमी होगा । मन्यामी कोई खा व्यक्ति नहीं है। उममे तो माधुर्य और मन्दग्ता बग्मनी है। वह नो प्रकृति का सजग पुत्र है। वह "न्यमिग्रे" है जिमने मंमार के अमन् जाल मे मुक्त हो अपने में सुप्न माधर्य बोतों को जगा लिया है। ममाररूपमे जो मित्र-बन्ध आदि मिले थे वे तो इम के externalization थे। उनमे प्रभावित न होने के मायने ये नहीं कि उनमे उमे कुछ नही रहा । उनमे नाते तोडने के मायने यह नहीं कि वह उनमे अलग हो गया । उमने केवल उम नाइट क्लब में मिलने से मना किया है अपनी प्रिया कोजहां का वातावरण उमे घटनभग और अमन लगता है। इसके मायने है कि एक और मिलन की तैयारी है । भीतर एक मच्ची दुनियाँ है उममें वे अभिन्न होकर जन्म लेगे। यह दुनियाँ आत्मा है । इमे ही प्रेम मे एक होजाना कहा है । जो संमार रूप मे, externalized रूप मे ही, प्रिय को मन् मानेगा वह सम्बन्धों की डोर मे दूर उम अन्तरंग एकता को कमे पायेगा?
मजनू ने सहर छोडा तू सहग भी छोड़ दे
नजारे की हवस है तो लैला भी छोड़ दे। इक़बाल इसी अन्तर्जन्म की ओर इशारा कर रहा है । संसार जो चीज़ दे रहा है उसे त्याग दे। यानि उमे सत् मत समझ वग्ना कागज के फूल हाथ लगेगे । उमे ग्रहण नही करेगा तो वह चीज़ नप्ट नही हो जायेगी। जो है वह कभी नष्ट नहीं होगा। प्रिया सत् है वह कभी नप्ट नहीं होगी। उसे संसाररूप मे वरण न करके तेरी आत्मा द्वैत की भूल-भुल्लया से वच जायगी। जब तू मंमार रूप में उसका त्याग करेगा तो वह तेरे भीतर प्रगट होगी। वही सच्चा रूपहोगा जहां दोआत्माएं एक हो सकेगी।
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आज पश्चिमी फिल्मों के जोश में प्रेमी अपनी प्रेमिका से मिलता पीछे है पहले उसके शरीर का रस पाने को व्यग्र है । उनका प्रेम रह नहीं पाता क्योंकि यह दुर्जेय आत्मा बहुत स्वार्थी है । इसका कोई मूर्ख नहीं बना सकता । रस लेने के बाद यह जान जाती है कि प्रिया के इस संसारी रूप और उममें कोई एकता नही । जहां मयम है वहां वह ऐमी शारीरिक भूल नहीं करेगा । वह शरीर की कामना का बलिदान करेगा। जानेगा कि यह अमन् की कामना थी। जो दीख रहा था उसकी कामना थी। इममे उसका प्यार रसविहिन नहीं होगा। बल्कि उसके भीतर प्रिया सभी माधुर्यों के साथ जगेगी। वह इस संयम से उसे और अच्छी तरह प्राप्त कर लेगा। संयम के मायने ये नहीं कि हम औरों के और अपने बीच कोई बनावटी रोक लगा रहे हैं । हम केवल इतना जान रहे है कि औरों का जो रूप हमें दीख रहा है वह संमार-प्रपंच में पड़ी उनकी परछाई है। हम उस प्रतिविम्ब में मुग्ध हो रहे हैं । यदि हम उसे असन् जान लें तो उनका मन् रूप हममे ही अभिन्न हो हमारे भीतर जगेगा। वह हमारे अकेलेपन को दूर करेगा। उम स्थिति में हम उमके वाह्य रूप का ग्ग ले सकेंगे बिना लिप्त हुए।
महावीर एक ऐसे ही प्रेमयज्ञ की बात कर रहे है जहां यह संमार प्रेमियों को उलझाना नही बल्कि उनके पीछे चलता है। उनके दुःख वे दुःख नहीं हैं जो मंमार देता है। ___ "वे गमे रोजगार नही है, गर्म इश्क है"
महावीर कहते हैं कि उम गमे इश्क को जगा कि ग़मे रोजगार का पता ही न रहे।
"न होना गमे इश्क तो गमे रोजगार होना" ।
महावीर कहते हैं इस तरह गर्म हम्नी में नजान नहीं मिलती। जब नक प्रिया केवल गरीर दीग्वंगी प्रिया दर्द वनकर दिल में न जग सकेगी। दर्द न होगा तो मुहब्बत न होगी।
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लोभायनि शक्ति (Libido) का वशीकरण आज के मनोविज्ञान की मवमे बड़ी खोज है लोभायनिशक्ति।
इम रूप में स्वयं रुद्र मनुष्य में उपस्थिन है। महावीर का अनगामन यद्यपि लोभायनिगक्ति का जिक्र नही करना परन्तु उमका मार इम शक्ति को नियंत्रित करने में है। एक वान महत्वपूर्ण है वह यह कि फ्रायड और जग ने लोभायनिशक्ति को जिम रूप में जाना महावीर उममे अधिक पहले ही व्यक्त कर चके है । यदि महावीर विचारधाग का आज का मनोवैज्ञानिक मनन कर नोवे उम निगगा और अमहायता में मक्त हो जायंगे जो फ्रायड और जग के चिन्तन ने उन्हें दी। इन्होने लोभायनिगक्ति को एक ऐसी जीवन इच्छा कहा है जिसमें जीवन इच्छा और मृत्य इच्छा दोनों है । जीवन के पूर्वाद्ध में जीवन इच्छा बलवती रहती है और उनगर्द्ध में मृत्यु इच्छा । इम विचारधाग के अनमार प्रौढता को प्राप्त होने के पश्चात् यह अवश्यंभावी है कि मनुष्य के विचार, कर्म और इच्छाए जीवन विरोधी हो जाये।
इन्होंने लोभायनिशक्ति को एक भयानक मर्प के रूप में देखा जिम पर न तो चेतन काब पा सकता है न अचेतन । लोभायनिगवित को नियति या भाग्य भी कहा हे जिमके आगे मनग्य का वग नहीं चलना । यह चाहे तो दो मित्रों को मिला दे या चाहे मव को हमारे विरुद्ध कर दे।
महावीर का दर्शन इसके विरुद्ध है । वे यह नहीं मानते कि जीवन के पूर्वार्द्ध में मनुष्य की जीवन इच्छा जीवन के पक्ष में होती है
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और उत्तगर्द्ध में मृत्यु के पक्ष मे । महावीर लोभायनिगक्ति को मनाय का भाग्य विधाता या कृर गामक नही मानने । फ्रायड और जग के मर्मभेदी दर्शन और अकाट्य तथ्यों मे निगग हुए आज के मनग्य के लिए अभी आशा है महावीर के दर्शन में क्योकि महावीर के विचारोको यदि फायड और जुग की गब्दावली में रखा जाय तो एक शक्ति है जिमे यह कर,नृशंम और मनमानी चलने वाली लोभायनिवित प्रणाम करती है और पूरी तरह उमके वश में हो जाती है और वह शक्ति है प्रेम । महावीर वार-बार प्रेम पर जोर दे रहे है क्योकि मानसिक तल पर मवम मगक्न लोभायनिगक्ति को केवल प्रेम देवता ही मान्य है। जब मनप्य की आत्मा में प्रेम का उदय होता है तो लोभार्यानक्ति मनमानी कग्ना छोड देती है। उसकी मन्य चाह मनन् जीवन चाह में बदल जाती है क्योकि यह मनन् जीवन चाह मन्य के दुम्बो को अपने में लीन कर लेनी है । लोभानिक्ति मे इन्छाओं का यह द्वैन मिट जाता है। मनग्य की आत्मा परिवृत हो जाती है । मन्य वाह के दूर होते ही दुर्वामनाए, ऋग्ना, शील, हिमा, बैर, द्वेष आदि मनग्य की आत्मा में दूर हो जाने है क्योंकि ये गव मत्य चाह के हीम्पान्तर है। महावीर इमी मन्य को जीतने की बात जीवन भर अपने गियों में कहते रहे । आज पश्चिम का प्रौढ व्यक्ति गममता है कि वह स्वभाव मे आय के कारण जीवन और आनन्द विरोधी है और उसे यया वर्ग की अठखेलियो आर उछ मलनाओं को पर्दाग्न नग्ना नाहिये । वह ममनना है कि वह उनकी आलोचना केवल यांवग करना है। उधर यवा वर्ग ममझना है कि उसके मभी कम जीवन की बगियों और इच्छाओं के प्रतीक हजार उनम कुछ भी कल पिन नहीं है। यह फायट आर जग की देन है जिन्होंने कहा कि जवानी नक लोभार्यानशक्ति जीवन के पक्ष में रहती है और उसके बाद मन्य के पक्ष में हो जाती है । इममे यवा वर्ग और वृद्धता के बीच खाई बन गई है और मनुष्य जाति का मानसिक विकाम रुक गया है। इसमकं पानी को चलता
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करने के लिए महावीर कहते है कि बुढापा गरीर को ग्रस्त करता है । मानसिक शक्तियों में उमका मम्बन्ध नहीं । इसी तरह जवानी गरीर को आती है। जवानी के मायने यह नहीं कि मानमिक गक्तिएं जकर जवान होंगी। महान अंग्रेज कवि वायग्न जवानी में मरा था और उसकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पाया गया था कि उमका दिल और दिमाग़ एक बहुत बूटे आदमी के हो गये थे। महावीर कहते है कि एक वृद्ध व्यक्ति भी तरुणों की तरह जीवन की उमंगों से भर मकता है जमा कि हम मवकी आंखों ने नेहरूजी को देखा। जिम व्यक्ति की आत्मा में प्रेम का जोग मवल होकर उठता है वही व्यक्ति लोभायनिशक्ति को वश में कर मकना है । लोभायनिशक्ति यदि भयानक नागिन है तो प्रेम वह मधुर बीन बजाने वाला है जो उम नागिन को वश में कर लेता है। लोभायनिशक्ति यदि प्रकृति है तो प्रेम पुम्प है।
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सृष्टि (Cosmology) सन् १९५० के बाद विज्ञान की दुनियां मे एक नया विचार होएल, बोदो, " गोल्ड आदि ने दिया। उन्होंने कहा कि पदार्थ की निरन्तर रचना हो रही है सृष्टि में । इममे पूर्व वैज्ञानिकों का म्याल था कि नया पदार्थ नहीं रचा जा रहा है। मृष्टि में पदार्थ जितना था उतना ही है केवल एक पदार्थ दूसरे में रूपान्तरित हो जाता है। परन्तु एक यह नया विचार था जिमसे विस्तृत होनी दुनियां ( Expanding universe ) का ख्याल पैदा हुआ । होएल ने बताया कि लगभग मोलह मौ करोड़ वर्ष पहले एक विशाल हमारी दुनियां जैमी ही दुनियां थी जो नाट हुई और उमकी समस्त ऊर्जा गविन ( Energy) एक अंगठे के बगवर जगह में केन्द्रित हो गई। यही में नया पदार्थ मृाट होता रहता है।
यह एक हैग्न की बात है कि हजारों वर्ष पूर्व मुष्टि के मम्बन्ध में जो तीर्थंकरों ने कहा वह वान विज्ञान मन् १९५० में पकड़ मका । तीर्थकर निगोद तत्व का जिक्र करने है। यह पदार्थ की वह ािन है जब वह पदार्थ भी नहीं बन सका है। यह अदृश्य है । इमे पदार्थ का आम्भिक रूप कहा जा सकता है । इमे अत्यन्त कप्टप्रद भी कहा है । सम्भवतः यह वही अंगूठे के बगबर जगह है जिमम ममम्न पदार्थ पदार्थ बनने मे पूर्व की स्थिति में ,मे पड़े है। पदार्थ के आरम्भिक रूप की परिभाषा आईस्टिन ने भी यही की है। वह उमे शक्तियों की एक मनत् बनी (A constant agitation of energies) कहता है । उसके अनुमार भी पदार्थ का यह आदि रूप अदृश्य है हवाओं और गविनयों की तरह।
इम निगोदावस्था में रहने के बाद जीव पृथ्वी, जल, अग्नि आदि
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बनकर प्रकट होता है। उमक बाद वह पेड, पौधे आदि जीव वनकर प्रगट होता है । म नग्ह उमका विकास क्रम चल रहा है। मतलब यह है कि ये चग्ण हम्बय जीव के विकाम के। नीर्थकर जीव के विकाम के मिद्धान को प्रस्तुत करने हए बना रहे है कि एक स्थिति उमकी वह थी जब वह पन्थर के रूप में भी नहीं था; जब वह अदृश्य पदार्थ के रूप में था। यह समझना कि जीव गरीर में स्थित आत्मा को कहते है और गरीर इममे भिन्न है एक भल होगी। वास्तव में जब नक हम जीव रूप में अपन को अनभव करने रहेंगे नब तक गरीर में मर्वथा भिन्न गद्ध, वेतन किमी मना की कल्पना करना मन्य मे दूर जाने के ममान होगा। जनदर्शन दानिको की इम भल को नहीं दोहगना। उसके अनुमार जान के मायन ह कि जीव अपने को पदार्थ मे अलग एक मना के रूप में जानता और महमम करता जाय । जब वह उम स्थिति में होगा जहा मक्ष्म में महम कम पदार्थ भी उसे अपने में भिन्न नजर आने लगेगे और उनके बीच वह अपनी म्वतत्र मत्ता को जान लेगा वह क्षण उमके निर्वाण का होगा। उम क्षण जीव की दार्शनिक मन्य हो जायेगी और उमकी जगह हम में आत्मा प्रगट हो जायेगी। जीव के मायने हे आत्मा का वह विकृत रूप जो अपने को पदार्य मे भिन्न नही समझना । एकेन्द्रिय जीव अपने को पदार्थ में बिल्कुल भी भिन्न नही ममझना। दो इन्द्रिय जीव अपने को भिन्न ममझने लगता है । पर्चन्द्रिय जीव यानी मनग्य अपने कोपृथ्वी, जल, वनम्गनि आदि में नो भिन्न ममझता है परन्तु गरीर में भिन्न नही समझना। एम कारण वह जीव है । जब आत्म-ज्ञान द्वारा वह अपने को गरीर और उमके कर्म जाल मे मवंया भिन्न ममझ लेता है और उनका इनके प्रति मोह ट जाना ह नो जीव का अस्तित्व समाप्त हो जाना है। उमके ट्ट ही हममें नानमय आत्मा प्रगट हो जाती है। जब तक पदार्थों के प्रति किमी न किमी रूप में मोह बना रहेगा, चाहे पदार्थ कितना भी मक्ष्म हो, हममे जीव की मत्ता बनी रहेगी। जीव होना ही भवचक्र में बंधे रहना है।
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उपरोक्त विवेचन मे यह बात नीर्थनगे की विचारधाग के अधिक अनुकूल प्रतीत होती है कि निगोद रूप में जीव जोर पुदगल एक ही है। इम तल पर जीव अपने को उन अदय शक्तियों में बिल भी भिन्न नही समझता जो पदार्थ का आदिम्प है अर्थात् जीव और गद्गल में पूर्ण एकना है। यह एक निम्न स्तर की एकता है जहाँ जीव मछिन है और अपनी स्वतंत्र मत्ता को बिल्कुल नही पहचानता। मनल पर बैन नहीं है। जब तीर्थकर कहने ह कि पत्थर में जीव है नीलोग हमने ह कि नम आत्मा कमे हो मक्ती ह परन्तु गीर्थार यह नहीं कह रहे है कि पत्थर में आत्मा है । वे यह नही कर रहे हैं कि निगांद में आत्मा ह । वका रह है। निगोद में जीव है, पत्थर मे जीव है । जीव के मायने उम जीवन में यक्न होना नहीं है जिसे जीव गान्त्र ममझता है। जीवन और हे जो जीव गाग्त्र का विषय नहीं है। वह बन्ने, घटने, उगने आदि जीवन जंगी क्रियाओ मे मक्त है । वह स्थिर जीवन है। उस मान्यता क अनगार जीव का निगोद गरीर ही जीव है। मक मायने यह ना कि निगो नल पर जीव और पुद्गल में भेद नहीं है। अन जिनना निगोंद पदार्थ ह वह ग्वय जीव है । नीधागे की मान्यता के अनगार निगोद में जीय निरन्तर उच्च अवस्था में यानी पृथ्वी, जल आदि म्पों में नियगिन हो रहा है। पृथ्वी, जल आदि म्पो में भी जीव अपने को अपने शरीर में भिन्न नहीं ममझता । यानी यह कहना गलन होगा कि पन्थर में जीव ह। यह कहना नीर्थकगेकी विचारधागा अधिक निकट होगा वि पन्थर म्नय जीव है। यह जीव की वह यिनिह जब वह जग भी जेनन नहीं हो पाया है और पूर्णनया मछिन है।
एक क्रम चल रहा है जिसके अनमार कुछ जीव निगोद में पृथ्वी, जल आदि म्पो में विकमित होने रहने है। उमग जाहिर ह कि पृथ्वी, जल आदि पदार्थ निग्लर बह रहे है । यही सिद्धान विग्नन हाती दुनिया का है । दमे ही होएल पदार्थ की निरन्तर रचना के सिद्धान के रूप में प्रस्तुत करना है। इस दृष्टिकोण में जन द्वनवाद वदों के एकत्र के मा
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धिक निकट प्रतीत होता है । सम्भवतः एकत्व का इनना मुन्दर और वैज्ञानिक निष्पण अन्यत्र कही नहीं हुआ। जीव व पुद्गल की अलग सत्ता शुरू में नहीं है । शुरू में निगोद और पृथ्वीकायिक रूपों में जीव व पुद्गल एक है। उनमें कोई भिन्नता नही। परन्तु ज्यों-ज्यों उच्च अवस्थाओं में जीव चेतन होता जाता है त्यों-त्यों उमे पुद्गल अपने से भिन्न नजर आने लगता है। उमकी चेतना द्वैत की उत्पत्ति करती है। अन्ननः जब वह पुद्गल को अच्छी तरह पहचान कर पूरी तरह अपने मे अलग कर देता है तो वह आत्मा बन जाता है। इस रूप में वह पुनः द्वैत भाव मे मक्न हो जाता है। पुद्गल के मभी मदम म्पों को जब वह अपने में भिन्न जान लेना है तो वे मभी रूप उसकी चेतना से अलग हो जाने है । वे होकर भी उसके लिए नहीं रहते । वह मर्वया स्वतंत्र हो जाता है। इस तरह पूर्णतया चेतन हो जाने पर न जीव रह जाता है न पुद्गल । आन्मा के तल पर दोनों केचलियों की तरह हो जाने है जिन्हें आत्मा पीछे छोड़ चुकी है। __ महावीर का यह विचार कि पृथ्वी और जल में भी जीव है कोई नई बात नहीं है यद्यपि इमे मुनकर अधिकांश दार्शनिकों को बड़ा आघात लगता ह । यह विश्वाम तो मनुष्य जाति की आदि सम्पदा रहा है। ग्रीक, जर्मन, इजीपशियन, मैक्मिकन, सभी प्राचीन सभ्यनाएं इम विश्वास के नीचे पली है । जर्मन महाकवि गेटे अपने विख्यान काव्य ‘फाउन्ट' में पृथ्वी की आत्मा (The spirit of Earth) का आव्हान करता है। इसी तरह युरोप में हिकेट (Hecate) को संमार की आत्मा (World Spirit) कहा है। इसके अतिरिक्त अग्नि की आत्मा, जल की आत्मा, पत्थरों की आत्मा, पर्वतों की आत्मा के अस्तित्व को अनेक धर्मों और प्राचीन कथाकारों ने माना है। हिमालय और विंध्याचल तथा समुद्रों की आत्माओं के अस्तित्व को प्राचीन भारतीयों ने भी स्वीकार किया है। पचभूनों की आत्माओं को भी भारत में तथा अन्य देशों में भूतात्मा (Elemental Spirits) के नाम से मान्यता दी
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गई है। महावीर का दर्शन सभ्य और अमभ्य मान्यताओं को दो भागों में नहीं बांटना । उन्होंने मनुष्य के चेतन और अचेतन के मभी अंधेरे और उजले तत्वों को अर्थ दिया है । उन्हें उनकी मही जगह दिवाई है जिमसे मनुष्य के मानसिक क्षितिज पर कुहामा बनने के बजाय वे उसके उत्तरोत्तर विकास में सहायक बनें। ___ इम तरह हम देखते है कि जीव के नीन विशिष्ट रूप है । एक तो निगोद रूप जहां वह अमर्न पदार्थ मे भिन्न नहीं है । दूमग वह रूप जिमे स्पिरिट (Spirit) या चैतन्य विहीन आत्मा कहना अधिक उपयवत होगा। नीमग रूप जीव का वह है जो जीवित प्राणियों में है, जो चेतन है। ___ मुम्लिम विचारधाग में भी इन म्हो (जिन आदि रूपों में) के अस्तित्व को माना गया है । किम्मा हानिमनाई आदि गुगनी अग्बी कथाओं में पर्वतों की म्ह (Spirits) का जिक्र है । वे पवन स्थिर है हजारों वर्षो मे गफाओं में अपनी जगह अचल खडे है। ये हिलइल नही सकने । परन्तु हानिम जो जानी है उममे उन पर्वतों की म्ह (Spirits) वान करती है। प्राचीन विश्वामों में पूरे नगर की आत्मा का भी अग्नित्व स्वीकाग गया है। कितने ही जड पदार्थो की उपासना इम भाव में की गई है कि उनमें भी म्ह है। यह विश्वाम मनग्य के रोजाना के जीवन में कदम-कदम पर व्यक्त है। कोई भी दर्शन टर्म भठला कर या इमका दमन करके इमं विश्वाम मे अंधविश्वाम नो बना सकता है परन्तु मनाय को, इममे मुक्ति नहीं दिला मकना । पदार्थों की म्हों में निहित जोगक्ति है उमे मनप्य ने आदि यग में पहचाना था और उमका यमबद्धविकाम तांत्रिक पद्धनियों में किया गया। परिणाम खौफ़नाक निकले और मनाय जानि आज तक इन म्हों के भय की वन्दी है । दार्गनिक इम ममम्या पर विचार करना अपनी बद्धि की बरबादी मममने है । इमलिए जादूगर,प्रेत विद्या-विशारद और इमरीकाली विद्याओं में ग्मे हुए लोग मनुष्य की आत्मा को और भी जकड़ने जा रहे है। यह ममम्या कितनी
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विकट हो चली है इसका अन्दाजा इमी वान मे लगाया जा सकता है इंगलैंड आदि यगंपिय देशों में चल-विद्या (Witch-craft) विट विद्यालयों में विषय बनाई गई है और बहुन मे युवक और यवनियां: जान को जिन करने के लिए और पदार्थों की म्हों को कब्जे में करने लिये नरह- के रहस्यमय मार्गों पर लगे हुए है। मम्भवतः महावीर पश्चान् कंवल फ्रायड और जुग ही ऐसे विचारक हा जिन्होंने टन वा को अंधविश्वास कहकर इन पर मोचने से इंकार नही किया बल्किड मष्टि में इनकी मही जगह पर रखा जिसमे मनग्य की चेतना इन भयभीन या अम्न न हो और न इनमें मोहित हो। इम मंदर्भ में । आवश्यक है कि हम महावीर के विचारों कोममनं क्योंकि अब नई पी. को अंधविश्वामों की गहराई में उनग्ने मे नहीं रोका जा सकता । आ मनप्य की चेतना वह नहीं है जो दस वर्ष पूर्व थी। आज यह कह देना यह अंधविश्वाम है पर्याप्त नहीं है किमी को किमी चीज़ मे हटान: लिए। आज मनप्य की चेतना दूसरे प्रश्न कर रही है। वह पूछनी है यह अंधविग्वाम क्यों मामूहिक रूप में हमारी चेतना पर बैठा है ? आ से पहले लोग समझते थे कि अंधविश्वाम को अपनाना व्यक्ति की अपन भल है। परन्तु अब मनोविज्ञान ने बना दिया है कि बड़े-बड़े वद्धि मान वैज्ञानिकों के जीवन भी अनेकों एमे अंधविश्वामों में अम्न है ज उन्होंने स्वयं नहीं अपना रखे हैं। वे उनमे बचना चाहते हैं। वे जानने कि यह अंधविश्वाम है । परन्तु फिर भी अंधेरे घर की नग्ह व अंध विश्वाम म्वतः उनके अचेतन मे उठ आते हैं और उनके मन-मम्तिाक के मलिन कर देने है। ___ यही बात पदाथों के प्रति बढ़नी आमक्ति में निहित है। आज के दुनियां में अधिकाग लोग आन्मिक नव की श्रेष्ठता को मानते हैं वैगग्य भाव में प्रेरित होकर हजागें पारचान्य युवक और यवनिएं घर से निकल पड़े हैं बिना कोई पदार्थ माथ लिये । परन्तु उनमे बात करने पर पता चलता है कि पदार्थ का भून उनके अनन मे उठकर उन्हें जकड़
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रहा है । पदार्थ उनमे छूट नही पा रहा है और मनग्य और भौतिकवादी हुआ जा रहा है। यह कह देना कि उनकी माधना में कमी है या उनका आध्यात्मवाद ढकोमला है प्रश्न का उत्तर नहीं है। मनोविज्ञान ने नये क्षितिज खोल दिये है। मालम होता है कि पदार्थ एन म्ह भी है जिसे केवल मानमिक रूप मे त्यागकर हम उममे मक्त नहीं हो मकने। ___ महावीर का दर्शन मभी पदार्थों की जीव की हेगरकी (Hurarchy) में स्थान देकर उन्हें एक निम्न ग्नर का जीव बनाता है । यही नरीका पदार्थ में पूर्णतया निलिान और मक्त होने का है। पदार्थ और जीव का द्वैत इम ज्ञान में कट्टर द्वैत नहीं रह जाना।।
महावीर का मष्टि ज्ञान परी मष्टि को एक विकाम कम (Evolutionary Process) में देखना है। यह विनार हमलं, मा. वर्गमा आदि आनिक विकामवादियों के हृदय के निकट है। आज के जीवशास्त्रवेत्ता खगना आदि लेबोरेट्री में पदार्थो के गयोग गे जीवित नत्व को बनाने की रहस्यमय कोगियों में लगे हैं। उनका विश्वाम है कि जीविन गर्गगें और पदार्थों के बीच कंबल विकाम की ही दुर्ग है। जिम दिन वे प्रयोगों द्वाग अपने दम विवाम को गिद्ध कर गकंग, महावीर को ममझने में हम और आमानी होगी। यह विगाल दष्टिकोण, मन्यग्राहिता और निरपेक्ष नजर, जो महावीर में जगी, मनग्य जानि की महाननम उपलब्धि है । महान अग्रज नाटककार जार्ज बर्नाटग, जो अन्यन्न अहमवादी और म्वतत्र विचारो का जनक था और जिमने पूर्ववर्ती किमी भी महापुरूप को अपनं ममान नहीं ग्वीकाग वह भी महावीर के व्यक्तित्व को प्रणाम करता है। उसने पाट गन्दी में ग्वीकार किया है कि तीर्थकगें की विचारधाग बट अकली मम्पनि है जिगम से अपने विचारों की पूर्ण प्रति नि मिलनी है।
एक विशेष निहामिक नथ्य है जिस पर न नो निहागकागें ने प्रकाग डाला है न दानिको नं । वह नन्त्र में मधिन है। नत्र विद्या बांद. हिन्दू, मस्लिम और ईमाई मभी धर्मो ने अपने-अपने ढग में
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विमिन की। मध्यकाल में एक जमाना ऐमा भी आया जब तांत्रिकों का जोर बहुत बढ़ गया था और माघारण नर-नारी उनके भय से आतंकित रहते थे। आज भी जो हमारे ममाज में भ्रष्ट माधुओं का भय और जोर है वह उमी का प्रतीक है। महावीर की विचारधाग में नंत्र कोई भी उपद्रव नहीं कर मका। यह एक विलक्षण नथ्य है कि जैनाचार्यों ने नंत्र का गहन अध्ययन और विकाम किया परन्तु जैन विचाग्याग में विकमिन हुए तन्त्र ने कभी भी माघारण नर-नारियों को भयभीन नही किया। अधिकांग लोग नो यह भी नहीं जानते कि जन नत्र नाम की भी कोई चीज है। परन्तु कोई भी जैन मन्दिरमा नहीं है जिसमें धातु की गोलनग्नग्यि भगवान की मूनि के पीछे न मिले। उन न ग्यों पर तन्त्र विधिएं और मंत्र उन्कीर्ण है। जब अन्य धर्मों में नन्त्र के जोर मे भय और अमर पैदा करके, भत गक्तियों को जगा कर, माधारण मनग्य को इन करिश्मों में अपने मार्ग पर खीचने की प्रवृति मारी दुनिया में जोर कर रही थी उम ममय नीर्थकरों के अनयायी तंत्र का प्रयोग मनग्य को उन भयों मे मक्त करने में कर रहे थे। कहना न होगा कि आज जो माधारण नर-नारी तंत्र को धर्म और आन्माननि की चीज़ न ममझ अवरोध मममने लगे हैं, इम चेतना के जगने में मवम अधिक हाथ महावीर के गियों का रहा । एक गप्न ज्ञान को प्राप्त करके उसे केवल मनग्य की भय-मक्ति के लिए प्रयक्त करना और फिर उम काल के गर्भ में छपा देना-यह महान उदाग्ना और लोभहीनता जिम पग्म पुम्प के पदचिन्हों पर चल कर जैनाचार्यों को प्राप्त हुई वह पूरी मनुष्य जानि के लिये वन्दनीय है।
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पशुबलि
सभी जानते है कि महावीर ने पगबलि का विरोध किया। परन्तु यह " विषय केवल अहिमा मे ही मम्बद्ध नहीं है। महावीर के दम विरोध के पीछे भाग्नीय जाति की चेतना के विकाम का एक अत्यन्त प्रकाशमय क्षण छपा है। हम यह नही भलना चाहिये कि मावीर के पश्नात् वैदिक धर्मावलम्बियो ने भी पगाल छोट दी। यह तभी मभव हो मकता था जब महावीर के विचागे ने केवल उनके विचारों का बण्डन न किया हो बल्कि महावीर ने म्वय उनके माथ मिलकर म ममम्या पर विचार किया हो. और उनकी चेतना को को ऐगा मार्ग माया हो जिगके प्रकाश में पावलि के पीछे छपा दर्शन फीग और बेजान लगने लगा हो।
पहले नोहम जानना होगा कि पगलिया विधान क्या था। यह केवल देवताओं को प्रमन्न करने के लिये पराओं का गबन चलाने की परंपग नही थी। ऋग्वेद १०:११, के अनगार बलि देने वाला उम पग में प्रविष्ठ कर जाता है जिगकी वह बर्गल दे रहा है। यही एक बद्धिमान बलि देने वाले की परिभाषा कही गई है। उमी नग्ह ऋग्वंद १०.९. मं वर्णिन किया गया है कि विमानम्ह म्बय देवताओऔर पगाने मिलकरपुष्प की बलि दी। यह पुरुप कोई माघारण मनग्य नहीं है। ऋग्वंद के अनमार यह पृथ्वी को चागे और मेघेरे हुए है। दम पुम्प के अनिग्विन पृथ्वी पर कोई अन्य प्राणी न था। उम बलि के पश्चान् ममग्न पग और प्राणी, मूर्य और चन्द्रमा, इन्द्र, अग्नि और वाय का जन्म हुआ।
___ इस तरह वैदिक बलिदानों के पीछे मनोवैज्ञानिक नव था, वह यह कि हम म्वय अपना बलिदान कर किमी पग के माध्यम में ताकि हमाग पुनर्जन्म उमी देवना में हो जिमके आगे हम बलिदान कर रहे
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है। इसका उद्देश्य था मनोवैज्ञानिक आत्मा को निरन्तर शुद्ध करना और उमे देवना कं, म्वय ईश्वर के निकट करना । यह विश्वाम मनुष्य जाति के लिये आम बान रही है कि इस तरह मनोवैज्ञानिक बलिदान करके हम अपनं को और नाजा नथा पृष्ट कर लेने है । मनग्य अपनी जंगली अवस्था में केवल जीवित रहने ही के लिये बहन में पाप करने को मजवर था। दम कारण उम मल को धोना उनके लिये परमावश्यक था। उस स्थिति में मनोवैज्ञानिक मफाई का उमे एकमात्र यही नगेका नजर आया कि वह पाओं का गलिदान करते हुए यह मच्ची भावना ग्य कि वह म्बय अपना बलिदान कर रहा है । दम नगह वह उम मनोवैज्ञानिक नल पर मर जायेगा। परन्तु मनोवैज्ञानिक नल पर मनप्य नष्ट नहीं होना । अनः नुग्न बाद उमका पुनर्जन्म एक और माफ़ और मथर मनोवैज्ञानिक नल पर हो जायेगा । जिम नरम हम नये वस्त्रों के लिए लालायित रहते है उमी नह प्राचीन मनप्य नई. माफ और घली मनोवैज्ञानिक चादगे के लिये लालायिन था। उन्हें ओर कर वह ममझता था कि उसकी आत्मा का परिकार हो गया।
तीर्थकगं की परम्पग विचारो की वह पहली कडी है जिमने मनाय न म भ्रम को नोड़ा, उग कट यथार्थ में पर्गिचत किया कि इम तरह भावना में पराओं में अपना निदान करक वह जिम चीज की प्राप्ति कर रहा है वह आत्मनोधन नहीं है । वह केवल नये कपड़े है जो आत्मा को मिल रहे हैं, जिनमें आत्मा का अपना मैल दूर नहीं होता। दम पर हिमा कर्मों का एक और मल चढ़ता जा रहा है। भले ही मनोवैज्ञानिक वस्त्र कितने ही उजले हो ।
महावीर ने बलि के पीछे छपे मभी अर्थों को ध्वस्त कर दिया। उन्होंने इस महान गल्प ( math) को विम्फटिन (explode) कर दिया। यह ध्यान देने योग्य ह कि महावीर के पश्चात् आर्य परम्पग में कोई भी महान् दार्गनिक गिगी भी मन का नहीं हुआ जिमने पगबलि को मान्यता दी हो। अम्वमेघ यज्ञ आदि की परम्पग आर्यसंस्कृति
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से हमेशा के लिये लुप्त हो गई । भारतीय जनमानम में सत्य का यह मिताग बहुत गहगई तक धंस गया । माघारण मे साधारण हिन्दू भी यह जान गया कि पशुओं की वलि में पाप मिलता है आन्मा का परिष्कार नहीं होता । इस तरह महावीर और उनमे पूर्व के तीर्थकर हमे हजारों वर्ष पूर्व उम सभ्यता के मर्य की ओर ले गये जिम तक पहुंचने में पश्चिम को हजारों वर्प और लगे।
यदि हम वृहदारण्यक उपनिषद् १:१ देन्ये नो उममें जिम ढग में अश्वमेघ यज्ञ का जिक्र किया गया है उममे प्रगट होता है कि यह ममार त्याग का संकेत ( Symbol ) है। जब अव की वलि दी जाती है तो हम ममार की बलि दे रहे है. जिम तरह के मंमार मेहम चिपटे हुए थे आज तक उमका हम बलिदान करते है । इस विचार को प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् पोलड्यशेन ने वहुन मन्दर और विस्तृत ढग मे अभिव्यक्त किया है। गोपेनहावर ने भी वृहदारण्यक की दमविचारधागवाजिक किया है । परन्तु श्रेवर पहला परिचमी विद्वान है जिमने दमको एक बीमार दिमाग की उत्पत्ति कहा था । वास्तव में ऐमा प्रतीत होता है कि वैदिक काल भी आर्य जाति के मम्तिाक और आत्मा की चरम थिनि का काल नही था। अनार्यों के माथ निरन्तर यद्ध करने के कारण आर्य जाति का मनम ढीला, विकृन और मैला हो गया था। ये इनिहाय मे प्रगट है कि भाग्न के मूल निवामी अनार्यों को मार कर और खदेड़ कर और उनके माथ अत्याचार करके आर्यों ने अपनी मत्ता ग्थापित की। अपने उस पाप को छपाने के लिये कभी उन्होंने अनार्यों को गक्षम कहा, कभी दम्य, कभी दानव । उनकी स्त्रियों का नो वरण कर लिया पग्न्न उनसे मामाजिक सम्बन्ध स्थापित नहीं किये । ये अनेक ज्यादतिएं थी जिनका भार आर्यों की आत्मा पर था। इस कारण उन्होंने पावलि आदि अमभ्य परम्पगओं को मान्यता दी।
हाइनग्नि जिमर और मिन्वानलेवी आदि विद्वानों ने अपनी खोज में मिद्ध कर दिया है कि जैन धर्म वेदों मे हजारों वर्ष पुगना है।
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जैन परम्पग तो म्वय इम बान को अर्मे मे कहनी आई है । वेदों में म्वय ऋषभदेव आदि नीन नीर्थकों के नाम पूज्य व्यक्तियों की श्रेणी में उल्लिविन है। इसके माथ मोहनजोदडों आदि की खुदाई मे प्रगट होता है कि भारत के मूल निवामी जैन धर्म के अनयायी थे । इममे यह बान मिद्ध होती है कि प्रागनिहामिक युग में जब आर्यों और अनार्यों के अगटे मना हेतु नही हुए थे और मनुष्य निर्विघ्न रूप से मभ्यता की ओर बढ़ रहा था उम ममय उनके विचार मन्य के अधिक निकट थे क्योंकि तब वह ममम्न मनप्य जाति के कल्याण की वान और अच्छी नगह मोच मकना था। नीर्थकों की परम्पगमे ग्ग, वर्ण, जाति के भेदो में मक्त विचारधाग के बीज बमे है । वे अनार्यों के भी गम थे और आर्यों के भी। उनकी पूजा दोनों ने ममान रूप मे की। अनः निश्चय ही उनका दर्शन वह विलक्षण मत्य अपने मे रखता था जो द्वन्द्वरत इन दोनो जातियों को ममान रूप मे अपील कर सकता था। बिहार के भील और जयपुर के पाम के मीनागृजर जिम श्रद्धा मे आज भी तीर्थकरो की उपामना करने है वह याद दिलाती है उम प्रागनिहामिक युग की जब अनार्य भी निर्भय होकर अपने वैभवशाली प्रामादो और नगरों में तीर्थकगे का जयघोष करते थे।
मनुस्मृति इमकी माक्षी है कि जैन धर्म वेदों में प्राचीन है और यग के आदि में स्थित था। उममे विमलवाहनादिक मन और जैन कुलकगे के नाम लिखे है। निम्न श्लोक प्रथम जिन ऋषभदेव को मार्ग दर्शक तथा मुगमग दोनों के द्वारा पूजिन कहता है :
कुलादिबीजं मर्वेषा प्रथमो विमलवाहनः । चक्षुप्मान् यशस्वी वाभिचन्द्रोऽथ प्रमेनजिन् ॥१॥ मन्देवी च नाभिश्च भग्ने कुल मत्तमाः । अष्टमी मम्देव्या तु नाभेजति उग्क्रमः ॥२॥ दर्शयन् वर्त्म वीराणा मगमग्नमस्कृतः । नीतित्रितयकर्ता यो युगादो प्रथमो जिन. ॥३॥
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यजुर्वेद के निम्न उद्धहरण मे भी स्पष्ट होगा कि आर्यों से पूर्व भारत में ऋषभदेव, अरिष्टनेमि, सुपार्श आदि तीर्थंकर अनार्यों द्वारा भी पूजे जा रहे थे। उन्हें वेदों ने भी पूज्य कहा । उनकी तपोज्जवलता और अमोघ सत्यता का प्रमाण इसके अतिरिक्त क्या हो सकता है कि परस्पर दुराग्रह और बैर से ग्रस्त आर्य और अनार्य दोनों ही उन्हें समान भाव मे पूजते रहे ।
ॐ ऋषभपवित्रं पुरुहूतमध्वरं यज्ञेषु नग्नं परमं माहसम्तुतं वरं शत्रु जयंनं पशद्रिमाहुतिरिति स्वाहा । ॐ त्रातारमिंद्र ऋषभं वदन्ति । अमृतामिंद्र हवे सुगतं सुपार्श्वमिद्रं हवे शक्रर्माजितं तद्वर्द्धमानपुरुहूतमद्रमाहुरिति स्वाहा । ॐ नग्न गधीर दिग्वाममं ब्रह्मगब्भ सनातनं उपैमि वीरं पुरुषमंर्हतमादित्यवर्णं तमसः परस्तात
स्वाहा |
ॐ स्वस्तिन इन्द्रो वृद्धश्रवा स्वस्तिनः पूषा विश्ववेदाः स्वस्तिनस्तार्क्ष्यो अग्प्टिनेमि स्वस्तिनो वृहस्पतिर्दधातु । दीर्घायुस्त्वायबलायर्वा शभाजाताय । ॐ ग्क्ष ग्क्ष अरिष्टनेमिः स्वाहा । वामदेव शान्त्यर्थमनविधीयते मोम्माकं अरिष्टनेमिः स्वाहा ।
भारत में आर्य परम्परा जहां मम्कृत वेद वाणी बनकर विलती रही और आर्यो को सत्यान्वेषण मे प्रवृत्त करती रही वहां इस परम्परा मे बहुत मे नुकसान भी हुए। अनार्यो के प्रति जो बैर आर्यों में था वह अनार्यो के विश्वाम और ज्ञान के प्रति भी बढ़ता गया। इसमें आर्यो का ज्ञान एकागी हो गया । पूर्ण मत्य में आर्य महरूम रह गये । उसके दण्ड स्वरूप आर्य चेतना के दो टुकडे हो गये। एक तो पुपान, इन्द्र, वृहस्पति,
द्र आदि देवताओं के प्रकाश में अधकार में प्रकाश की ओर बढ़ता गया । परन्तु चेतन का दूसरा टकडा उतना ही अन्धविश्वास, ग्राम्य देवीदेवनाओं, दोनों-टोटकों की गजलकों में बघना गया। कालान्तर में यह भेद भारतीयों के विश्वासों और कर्मों में भीषण विरोधाभास बनकर प्रगट हुआ । शायद इतिहास इस जाति के प्रति इतना क्रूर न हुआ होना
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यदि गजननिक वैर भाव ने अपने पूर्वजों में मिली मम्पत्ति के प्रति यह दुगव वग्नने की हमे प्रेग्णा न दी होती। शकगचार्य ने और वाद के चिन्नकों ने जन विचारधाग को वैदिक विचारधाग मे विल्कुल अलग
और वेद विरोधी कह कर दम जानि का बहुत नुकमान क्यिा । इस विपय पर बहुत कुछ कहने को है और उमपर बोलने में एक अलग ही विषय बनने का भय है। यही कामना करता हूँ कि किमी दिन हमारी जाति जैन और वैदिक ज्ञानघागओं को अपने में ममान रूप में ममाने हुए इम लम्बी ऐनिहामिक भूल की शृखला को नोड देगी। जन विचार धाग के प्रति इम द्वेप मे पूर्व कभी आर्योमे इसके प्रति मही मन्याकन
और आदर भाव जरूर रहा होगा जिमका आभाम यजर्वेद और मनुम्मृति के उपरोक्न उदाहरणो मे मिलता है । इस प्रकरण को ममाप्त करने के लिए योगवशिष्ठ के निम्न उहग्ण मे मन्दर अन्य उसहरण उपलब्ध नही है :
"नाहं गमोन मे वांछा भावेप च न मे मनः । गानिमाम्थातुमिच्छामि म्वात्मन्येव जिनो यथा ॥१॥
(अर्थात् मै गम नही हूं, मेरी कुछ इच्छा नहीं है और भावों वा पदार्थों में मेग मन नहीं है। मै नो जिनदेव के समान अपनी आत्मा में ही शान्ति स्थापना करना चाहता है)।
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हिन्दी साहित्य और महावीर (महावीर जयन्ती पर २२.४.७५ को आकाशवाणी, दिल्ली से प्रसारित वार्ता) हिन्दी माहित्य की आत्मा में जो पूज्य पुरुष बसे है वे हैं गम,
कृष्ण, महावीर और नानक । जहां गम हिन्दी के मर्यादा मूल है वहां कृष्ण प्रेम और शृंगार के स्रोत हैं । महावीर मानवीय मन्यों के उद्गम है और नानक कर्मप्रेरणा के अविरल प्रवाह । जो हिन्दी इन मनीपियों में प्रेरित है उमकी आत्मा गर्वाङ्ग मम्पन्न है तो इममें कोई आश्चर्य नही।
महावीर हिन्दी माहित्य में तप, त्याग, करणा, प्राणियों में प्रेम आदि भावों की आत्मा है । जिम तरह मनग्य गरीर में आत्मा के दर्शन नहीं होते परन्तु आत्मा ही गरीर का मार है उमी तरह महावीर नाम लिखे हुए हिन्दी माहित्य में बहुत कम गढ़ने को मिलता है परन्तु लिम्वने के पीछे जो मनोदशा है उसके कण-कण में महावीर वमे है।
यह कहना उपयक्त होगा कि महावीर विषय हिन्दी को इतना प्रिय है कि उसने दमे अपने हृदय में छपा कर नेत्र मृद लिये है । जो पढना चाहें, जो उमकी लग्जा को समझने है वे उमे हिन्दी के रोमरोम में देख मकत है।
यह एक भारतीय परम्पग रही है कि हर प्रिय चीज़ को परोक्ष कप में ही प्रकट किया जाना है। देवता भी परोक्ष प्रिय है । दमी तरह महावीर को नाम में नहीं मिद्धान्नो में हिन्दी ने अपने कण-कण में अभिव्यक्त किया है। हिन्दी माहित्य में जो नायक-नायिका के मूल गण है वे मत्र महावीर की क्षमा, दया, महिष्णुता, प्रेम और त्याग की
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अनुकृतिय है। हिन्दी में गम और महावीर के अतिरिक्त शायद ही कोई ऐमा चरित्र हो जिमके गुण बार-बार नायकों के गण वनकर कवियों व लेखकों की वाणी में उतरे हों।
श्रमण जानियों ने हमेशा ही बोलचाल की भाषा को प्राथमिकता दी। केवल मंस्कृत में ही ग्रंथ रचना करना जैन कवियों को कभी प्रिय नहीं रहा । म्वयं महावीर ने उम भाषा का प्रयोग किया जो जनमाघारण की भाषा थी। जहां मंस्कृत में देवमेन मुरि, शाकटायन, जिनमेन, हरिपेण, धनंजय और हरिचन्द्र जैसे महाकवियों ने जन आगम को गीनिकर और ग्मरंजिन किया, वहाँ यापनीय आचार्य उद्योतन मृरि और पुष्पदन्त नया भट्टारक धर्मभूषण, क्षेमेन्द्र कीर्ति, धनपाल आदि ने प्राकृत और अपभ्रंश भाषाओं को अपनी पवित्र आराधना मे ममृद्ध किया।
हिन्दी के आदि जनन में नि:संदेह जैनाचार्यों का बहुत ममर्थ हाथ रहा । यहां तक कि हिन्दी का विकाम, भाषा प्रवाह, मोड भी जनाचार्यों ने बहुत कुछ निर्धारित किया । मनिशीलविजव ने "तीर्थमाला" नाम से एक पयर्टन ग्रंथ मन् १८८३ में हिन्दी मे लिखा । परन्तु आज भी उमका उल्लेख हिन्दी माहित्य में नही मिलता।
यह एक विचित्र विडम्बना है कि जो माहित्य रचना जैनाचार्यों ने की वह उच्चकोटि की होते हुए भी माहित्य में उचित स्थान व आदर न पा सकी । इसका कारण सम्भवतः उम युग का श्रमणों के प्रति विद्वेष था । परन्तु अब वह युग ममाप्त हो चुका है । हरिचन्द्र जमे महाकवि को भी जिन्हे महामहोपाध्याय दुर्गाप्रमाद ने माघ की कोटि का बताया मंस्कृत मे उक्त संकुचित भावना के कारण उचित स्थान न मिल सका।
मानतुगाचार्य का अत्यन्त मधुर स्रोत जो भक्ति माहिन्य का एक अनूठा रत्न है आज तक अपना उचित स्थान किंचित दुगग्रहों के कारण न पा सका । काल के गर्भ में बसे वे वैमनस्य इतिहाम के तिमिर
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में खो चुके हैं। आज उस कालुप्य का स्थान नहीं है । पूर्ण मनुष्य जाति चतुर्दिशाओं से भद्र विचारों व साहित्य को धर्म संकीर्णता से उठकर विरुद्ध मौन्दर्य परम्परा में अंगीकृत करे, यही साहित्य के भविष्य का द्योतक हो सकता है । साहित्य उद्गम मूख रहे हैं । भाषा वह भूमि है जिम पर यदि साहित्य न उगा तो अश्लील और बेहूदा साहित्य स्वतः उगेगा। भूमि उत्पन्न किये बिना न रहेगी जब तक उममें उर्वग शक्ति है। वह भाषा धन्य है जो धार्मिक मनोभावों से मुक्त है, जिस पर धर्म गामन नही करते अपितु वह मुन्दरम् शामन करता है जो सभी धर्मों का आगध्य है। आदिकाल से मनुष्य ने माहित्य को धर्माधीन कर रखा है । आज ममय आ गया है कि इस दामता मे मनप्य मुक्त हो और मौन्दर्य का आव्हान मक्त नेत्रों मे कर मके । इम मक्ति का सेन बनाने के लिये आवश्यक है कि अन्य धर्मों में प्रेरित काव्य को भी हिन्दी उमी नगह मान्यता दे । इममे बंधे हुए आवेग खलंगे और एक ऋण में हम मभी मुक्त होंगे।
महावीर का अमर हिन्दी काव्य पर परोक्ष रूप मे बहन पड़ा है। यहां तक कि चरित्रों का गठन, भावों की अभिव्यक्ति उमी कोमल महृदय, हिमाहीन परिवेश में है । जो महावीर ने श्रावक के लिये मान्य मिद्धान्त दिये थे वे प्रेमचन्द्र, जयगकर प्रमाद, मदर्शन, जैनेन्द्र आदि लव्यप्रतिष्ठिन माहित्यिकों के मर्म में बहे है । मन्दग्म के जिम दर्शन के लिये महावीर के प्राणों ने मभी उपमर्गो मे होड लडाई थी वही मंघर्ष अपनी मीमाओं में नुलमीदाम, मग्दाम, मीग, निगला, महादेवी और पन्त का रहा है। केवल महावीर नाम में न आ मकने का कारण वह धार्मिक अलगाव और परम्पग है जिममें इन कवियों का जन्म हुआ।
नामों की प्रनिष्ठा नो एक वाह्य अभिव्यक्ति है । माहिन्य की एक आन्तरिक अभिव्यक्ति भी होती है । उम आन्तरिक अभिव्यक्ति में महावीर जगह-जगह हिन्दी को अपनी पावन चरण रज में मुक्न कर रहे है।
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महावीर के जीवन पर हिन्दी में बहुत कम काव्य रचना हुई। वर्तमान यग में पं. अनूप गर्मा का "वईमान" और वीरेन्द्र मिश्र का "अन्तिमतीर्थकर"दो प्रमुख कृतिय है। इन्हें विवरणात्मक कहना अधिक उपयुवन होगा । वीरेन्द्र जी की भाषा परिमाजित है और विषय के अनरूपगली गरिमामय है। इन दोनों ही कृतियों की विशेषता है कि ये मेक्यूलर मड में लिखी गई है। किसी धर्म का प्रणेना हो जाना किमी भी महापुरूप को लगभग माहित्य में वहिप्कृत कर देता है । कारण यह है कि उसकं अनयायी उम पर जिम श्रद्धा या अन्धविश्वाम के माथ लिखते हैं वह पतनी उग्र और अनिरंजिन होती है कि उममे माहिन्यमलिना नहीं बनी। इन दोनों कवियों ने महावीर को एक नायक के रूप में लिया है, एक अलौकिक दिव्य विभनि के रूप में नही। इन्होंने उन्हें मनप्य जीवन की परिधि में उतारा है। यह प्रयाम नि:संदेह प्रशंसनीय है। नन्मय बग्वाग्यिा और जयकुमार 'जलज' ने भी महावीर को विषय बनाकर कुछ अच्छी कविताएं लिखी है।
पग्नु हिन्दी का जो अंग महावीर के व्यक्तित्व में अत्यधिक मम्पन्न हुआ वह है दर्शन तथा वंचारिक माहिन्य । इममें सर्वप्रथम नाम आता है गण्ट्रपिता महात्मा गांधी का । सम्भवतः संस्कृत में या किसी भी पान्चान्य भाग में महावीर के अहिंमा, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य आदि मिद्धान्तों पर एनने मगल और हृदयग्राही ढंग से नहीं लिखा गया जितना महात्मा गांधी ने हिन्दी में लिया। गांधी जी ने हिन्दी में दर्शन माहित्य को इन नरह महावीर के मिद्धान्तों मे भर दिया है कि यह कहना अनुपयक्त न होगा कि बाद में जो भी मौलिक दार्शनिक चिन्तन हिन्दी में हुआ वह महावीर परम्पग में ही हुआ। इम दृष्टि मे काका कालेलकर, महात्मा भगवानदीन, मुनि विद्यानन्द, आचार्य नुलमी, डा. सम्पूर्णानन्द. विनोबा भावे के नाम उल्लेखनीय है । इन मवने अलग एक और नाम नाना है आधुनिक युग के एक मौलिक चिन्नक का जिमने महावीर की पवित्र वाणी में फिर हिन्दी के वैचारिक माहित्य
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को झकझोर दिया। वे है आचार्य रजनीश । इम तरह हिन्दी के दार्शनिक साहित्य पर महावीर की छाप बहुत गहरी उतर चुकी है और आश्चर्य नही यदि यही स्रोत एक नई ऐमी दर्शन -परम्परा को जन्म दे दे जो आधुनिक युग की आवश्यक्ताओ की पूर्ति कर सके।
हिन्दी काव्य जगत में महावीर पर जो रचना हुई वह अधिकाशन : प्रशमको और धर्मभीरओ की रचना है, प्रेमियो की नही । इस कारण उसमे शाश्वत तत्व नम है और वह स्थायी मूल्य की रचना नही हो सकी। रघवीर शरण मित्र ने जिम मेक्यूलर भावना मे 'वीरायन' लिखा है वह एक दिशाबोध है और उस परम्परा में होने वाली रचनाए नि. मदेह एक दिन मौन्दर्य के गान स्रोतों को दृढ लेगी। जिम भावना मे सरदाम, मीरा, रमग्वान ने कृष्ण पर लिखा, जब तक भक्ति प्रेम के उस रजत तप तक नही निखरेगी तन तक महावीर पर पदावलिया ही लिखी जा मकती है, साहित्य रचना नहीं हो सकती। पश्चिम हेमिग्वे, ज्विग, दोनोवस्की आदि के अमर में साइक्लोजिकल मेल्फ (Psychological Self ) को ही केन्द्र मानकर रचना करता रहा । इस तरह क्लामिक तत्व सब मम गये । परन्तु हिन्दी में प्रेमचन्द्र, जयशकर प्रमाद, निगला, जेनेन्द्र, महादेवी वर्मा, मैथिलीशरण गुप्त किमी ने भी उन "स्वत्व" या साइक्लोजिनल सेल्फ की व्यवन नहीं किया । सभी उसे उस दार्शनिक मन्य की ओर ले चले ह जहा मरकर उसे एक नया जीवन मिल जाता है । भने सघर्षमय जीवन- कोलाहल से हटकर मनाय की आत्मा हिन्दी मे निरन्तर, एक दार्शनिक पुनर्जन्म उनी रही है—जो मान्दयं ने आलावित हा । अज्ञेय ने अवश्य इस परम्परा से हटकर रचना की थी। महावीर के आत्मनिग्रह की संवेदना तक हिन्दी मे बगी ह । नारद भक्तिमत्र मे प्रेमी की मनोदशा का जो वर्णन है वही एक सच्चे जेन का स्वरूप है। उसके अभाव में साहित्य के फल नहीं मिलने ।
जेमा मने पहले वह । महावीर का इम्पेक्ट हिन्दी साहित्य पर
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बहुत गहग है। जितना भी हिन्दी के पीछे सौन्दर्य बोध या स्थेटिक कन्मंट है वह पूग महावीर के आत्म-निग्रह (Self Restraint) या मंयम मे जन्य है । महावीर कहते है "इम दुर्दमनीय आत्मा को जीत लो।" इम अहं, म्वन्व या माइक्लोजिकल मल्फ को हिन्दी माहित्य हमेगा प्रेग्नि करना रहा है एक ऐसे निर्वाण की ओर जहां यह मिट जाय, इमको दार्गनिक मृत्य हो जाय, ताकि इमका जन्म अन्तग्नम में बमे मन्दग्म की गोद में हो। यह दार्शनिक मृत्यु (Philosophical Death) प्लेटो को भी विदित थी। पश्चिम का माहित्य लरमन्नीव, दोस्नोवस्की आदि के अमर में इसे भूल गया। परन्तु महावीर के रहने हिन्दी को एंज़िम्टैशियलिम्ट ( Existialist ) माहित्य नही बहका मकता । यह एक बहुत बड़ी देन है महावीर की हिन्दी को जिमका मूल्यांकन नहीं हो मकना जमे मूर्य की रश्मियों का मल्यांकन नहीं होता।
महावीर मुन्दरम् के उपामक है। उनकी नग्नता उमी मुन्दरता की खोज है जिमे लज्जा की आवश्यकता नही। परन्तु एक अन्तर है। उनका मुन्दरम् आत्मा मे भिन्न नहीं है । मन्दग्ना का त्याग सिखाया है महावीर ने । वह मत्र जो मुन्दर लग रहा है जब उमका त्याग कर दंगी आत्मा तब मुन्दरता अनन्य होकर आत्मा के भीतर ही जगेगी। इम नगह हम स्वयं मुन्दग्ना के निर्झर होंगे, मन्दग्ना के लोभी नहीं। यह त्याग भी एक कला है । जो इम कला को जानता है उमे न्यागी हुई चीज़ और मूक्ष्म होकर मिलनी है । यह क्रम चलता रहता है और अन्ततः वह इतनी मुक्ष्म हो जाती है कि आत्मा ही बन जाती है।
मन्दरता की स्थापना हिन्दी साहित्य में महावीर के इसी अन्दाज से हुई है । यह अन्दाज हिन्दी को उर्दू में बिल्कुल अलग कर देना है। ये भापाएं मिलती-जुलती होते हुए भी मौन्दर्य बोध में भिन्न है । उर्दू के पीछे जो मौन्दर्य प्रपात का शोर है वह हिन्दी जमा नहीं है । उर्दू ने सुन्दरता और प्रेमी के द्वैत को माना है । परन्तु हिन्दी की रगों में यह
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द्वत नहीं है क्योंकि विलक्षण पुरुष महावीर की उपस्थिति हिन्दीभाषियों के मनस से उस तिमिर को छिन्न कर चुकी है।
सुन्दरता के इसी स्वरूप की कामना प्लेटो, कोचे, लेसिंग, बर्क, लौन जायनस ने की । वर्डमवर्थ जिम ल्यमी ग्रे के सौन्दर्य से मुग्ध है उसकी आत्मा मन्दर परिवेश में नहीं है । वह स्वयं सौन्दर्य निझर है। चलते-फिरने, मचलने वादल उमे लावण्य दे रहे हैं । झरनों की मीठी झरझर उसके चेहरे में उतर गई है । मोममों का संगीत उसकी नसों में बस गया है।
एक महापुरुष के माथ कुछ देर चल लेने के बाद कोई भी जाति फिर अपनी पूर्व स्थिति को नहीं लौटनी। हमारी जाति भी महावीर के माथ दो पग चली है । महावीर हमारी आत्मा को अपने आलोक दे गये हैं। हिन्दी की पाठभूमि में जो मौन्दर्य बोध छुपा है वह वे छीटे हैं जो केवल ज्ञान की चांदनी गतों में उम अक्षय स्रोत मे गिर थे।
वह शालीन दिव्य घोप आज भी हिन्दी की मीनारों में गूंज रहा है। एक मान-स्तम्भ ग्च लिया है हिन्दी ने जिमे दूमग महावीर ही तोड़ मकता है । अन्यथा मैकड़ों वर्षों तक भी ये मान्यताएं घमिल न होंगी क्योंकि ये अपनायी नहीं गई हैं। स्वयं हिन्दी ही ऐमी हो गई है।
हिन्दी का ममम्नप्रेममाहिन्य उम त्याग, मर्यादा और उज्ज्वलता का प्रतिविम्ब है जो भारतीयों के हृदय में कभी महावीर मौरभ बन कर विला था। हिन्दी माहित्य में आज भी प्रेम की मान्यताएं वे ही हैं जो महावीर की थी, जो अन्यत्व मिटा दे। जो लेना नही । मब कुछ देकर भी मोचना है मै कुछ दे न मका । मैथिलीशरण गुग्न जिम उमिला का वर्णन करते हैं वह प्रेम की इमी परम्पग में पली है । यही वेदना महादेवी की है जो घनीभूत होकर उनरी है हिन्दी माहित्य की पलकों पर।
हिन्दी का भविष्य इमी मंयम में है । बर्नार्डशा ने इसी संयम में फूटने सौन्दर्य के महल धागे को देखा था जब सेंट जॉन
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में उसका नायक महावीर की मति के आगे नमन कर कहता है कि उसके जीवन की शान्ति का स्रोत यही है । महावीर का तप और कठिन व्रत उस कठोर चट्टान की तरह है जिससे मनुष्य भ्रमित हो जाता है कि यहां केवल कठोरना ही कठोरता है । परन्तु मीठे पानी के मारे स्रोत उन्ही कठोर चट्टानों में चलने है। मिट्टी के कोमल पहाड़ों मे निकले झरनों का पानी गदला होता है ।
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महावीर और नारी
नीर्थकर महावीर का वह व्रत था या दिव्य संकेत था उम मुक्त, पुरुष का प्रथम आहार ग्रहण कम्गा उस नारी से जोहंम रही होगी निश्छल मल आवेग में और नयन झार रहे होंगे आंम् जिमके पग एक बाहर होगा और एक देहरी के भीतर अंग जकड़े होंगे लोह शृंखलाओं में
क्या मंकेत कर रहा था परम पुरुप कि देखो नारी है किम अमानपिक दशा में कि चन्दनवाला ही नहीं, पनिन ममाज में मभी नारियें हो रही है बंधी चन्दनबाला मी मनम को जकड़े है अदृश्य वंद्रिय दुम्वों के झग्ने फुट रहे है नेत्रों में फिर भी कोमल हृदय जिनके हंम लेने है दुम्व में
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अन्तिम पहर गत्रि का मौन निगा थी गहन चन्द्रमा झांक रहा था एक छोर मे गगन के थक कर नारे अलमाये, अकुला रहे थे नभ में वेष्टिन, कोमल अंग लोह श्रृंखलाओं में कठोर भघिर बह रहा था गोगे कमनीय त्वचा में चन्दनवाला अपूर्व मन्दरी अभागिन नवयौवना पड़ी थी म पर केग वोले गहन निद्रा में दिव्य पुरुष प्रकट हुआ गिग्वा मा हिमाच्छादिन उनुग श्रृंग पर मानो उतर रही हो गजमी म्वर्णप्रभा भोर की नत नयन, कोमल चग्ण, वलिप्ठ अंग, अपूर्व यौवन मौन्दर्य प्रपात मानो नहा रहा था अपने ही वेग में 'मैं हरण कम्गा दुग्व तुम्हारे कोमलांगी भतल पर अभी चल रहे है चरण मेरे'
कौन कहता है नारी को अयोग्य बताया परम ज्ञान का, दिव्य तीर्थकर ने अयोग्य है वो वेड़िये जिनमे जकड़ लिया है पुरुप ने इम आनन्दमयी को अनाधिकार शामन उमके नारीत्व पर स्वावलम्बन और आत्माघार को जगने नहीं दिया उसके इतिहाम द्रोह करता रहा नारी से
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दूर करने होंगे ये तिमिर भरे अवगुठन विहंमने दो उस शिश को जो छिपा है नारी तन में महायता करो उसकी उम पथ पर बढने में जिस पर चली कभी मैत्रेयी, गार्गी दिव्य युग में भयो, दुष्ट कामनाओं की गजलके मत फेको उन पर निरन्तर जकड़ रहे हों उन्हे दुष्ट चाहों से
और फिर कहने हो नरक द्वार है ये तुमने खिलने कब दिया नारी पुष्प को घरा पे
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