Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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उत्तराध्ययन सूत्र बत्तीसवाँ अध्ययन
दुःख समूह की परम्परा को प्राप्त होता है और प्रद्विष्ट चित्त
अतिशय द्वेष से दूषित चित्त वाला वह जीव अशुभ कर्म को चय करता है अर्थात् बांधता है जिससे उसे फिर विपाक ( कर्मभोग) के समय दुःख होता है ।
सविरत मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोह-परंपरेण ।
लिप्प भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणी - पलासं ॥ ४७ ॥
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भावार्थ - जिस प्रकार पुष्करिणी पलाश जल में उत्पन्न हुए कमल का पत्ता जल में रहता हुआ भी जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार शब्द में विरक्त मनुष्य शोक रहित होता है और संसार में रहता हुआ भी इस शब्द विषयक दुःख उत्तरोत्तर दुःख - समूह की परम्परा से लिप्त नहीं होता है।
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विवेचन - प्रस्तुत गाथाओं ( क्रं. ३५ से ४७ तक) में श्रोत्रेन्द्रिय के विषय, शब्द से रागद्वेषविमुक्त होने की प्रेरणा प्रदान की गयी है। जो श्रोत्रेन्द्रिय विषय में तीव्र आसक्ति रखता है वह शब्द मुग्ध हरिण के समान अकाल में मृत्यु को प्राप्त कर अपनी दुःख परंपरा को बढ़ा लेता है। जो शब्द में आसक्त नहीं होता, प्रिय शब्द में राग और अप्रिय में द्वेष नहीं करता, वही वीतराग कहलाता है।
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हरिण - मिगे - स्पष्टीकरण - यद्यपि 'हरिण' और 'मृग' दोनों शब्द समानार्थक हैं, तथापि मृग-शब्द अनेकार्थक (पशु, मृगशिरा नक्षत्र, हाथी की एक जाति और हरिण आदि अनेक अर्थों का वाचक) होने से यहाँ केवल 'हरिण' शब्द के अर्थ में द्योतित करने हेतु 'हरिण - मृग' (हरिण - वाचक मृग ) शब्द प्रयुक्त किया गया है।
गंध के प्रति राग-द्वेष से मुक्त होने का उपाय
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घाणस्स गंधं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुण्णमाह ।
तं दोस- हे अमणुण्णमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ४८ ॥
कठिन शब्दार्थ - घाणस्स घ्राणेन्द्रिय का, गंधं - गंध को ।
भावार्थ गन्ध को घ्राणेन्द्रिय का ग्रहण (विषय) कहते हैं। जो गन्ध मनोज्ञ है उस सुगन्ध को राग का कारण कहते हैं और जो गन्ध अमनोज्ञ है उस दुर्गन्ध को द्वेष का हेतु-कारण कहते हैं किन्तु जो उन सुगन्ध और दुर्गन्ध में समभाव रखता है, वह वीतराग है।
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