Book Title: Uttaradhyayan Sutra Part 02
Author(s): Nemichand Banthiya, Parasmal Chandaliya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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जीवाजीवविभत्तीणामंछत्तीसइमंअज्झयणं जीवाजीव विभक्ति नामक छत्तीसवां अध्ययन
उत्तराध्ययन सूत्र का यह अंतिम अध्ययन हैं। इसमें जीव और अजीव की विभक्ति (पृथक्करण) करके सम्यक् रूप से निरूपण किया गया है। संसार में जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व मूल हैं। इन दोनों का सम्यक् ज्ञान प्राप्त करके ही साधक संयम को समझ सकता है। दशवैकालिक सूत्र के चौथे अध्ययन में यही बात कही है -
जो जीवे वि वियाणेड, अजीवे वि वियाणेइ। जीवाजीवे वियाणंतो, सो हु णाहीइ संजमं॥ · अध्ययन के अंत में संलेखना-संथारा आदि का विवेचन तथा समाधिमरण की सुंदर व्याख्या की गई है। प्रस्तुत अध्ययन की पहली गाथा इस प्रकार है.:विषय निर्देश और प्रयोजन जीवाजीवविभत्तिं, सुणेह मे एगमणा इओ। जं जाणिऊण भिक्खू, सम्म जयइ संजमे॥१॥ :
कठिन शब्दार्थ - जीवाजीवविभत्तिं - जीवाजीवविभक्ति - जीव और अजीव के भेदों को, सुमेह - सुनो, मे - मुझे, एगमणा - एकाग्रमना होकर, जं - जिसे, जाणिऊण - जान कर, भिक्खू - भिक्षु - साधु, सम्मं - सम्यक् प्रकार से, जयइ - यतनावान् होता है, संजमे - संयम में।
भावार्थ - श्री सुधर्मा स्वामी अपने शिष्य जम्बू स्वामी से कहते हैं कि हे आयुष्मन् जम्बू! अब इसके आगे जीवाजीवविभक्ति - जीव और अजीव के भेदों को मुझ से एकाग्र चित्त हो कर सुनो, जिसे जान कर भिक्षु सम्यक् प्रकार से संयम में यतना करता है।
लोकालोक का स्वरूप जीवा चेव अजीवा य, एस लोए वियाहिए। अजीव देसमागासे, अलोए से वियाहिए॥२॥
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