Book Title: Uttaradhyayan Sutra
Author(s): Sudharmaswami, Lakshmivallabh Gani
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
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उत्तरा
॥ ९॥
1899990
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पयेद्विनयं कुर्यात् यतो विनयाच्छीलं सम्यगाचारं प्रतिलभेत स विनयवान्, शीलवान् कण्हुइ इति कस्मादपि स्थानान्न निष्कास्यते सर्वत्राप्याद्रियते, अयं परमार्थः - विनयवान् सर्वत्र सादरो भवति. ॥७॥ ॥ मूलम् ॥ - निसंते सिया मुहरी । बुद्धाणं अंतिए सया ॥ अट्टजुत्ताणि सिक्खिजा | निरहाणि उ वजए ॥ ८ ॥ व्याख्या - अथ विनयपरिपाटी दर्शयति-नितरामतिशयेन शांतो निःशांतः क्रोधरहितः साधुः, सियाशब्देन स्यात् भवेत् साधुना क्षमावता भाव्यं, पुनः सुशिष्योऽमुखरी अवाचालः स्यात्, पुनर्बुद्धानामाचार्याणां ज्ञाततत्वानामंतिके समीपे अर्थयुक्तानि हेयोपादेयसूचकानि सिद्धांतवाक्यानि शिक्षेत तु पुनर्निरर्थकानि निःप्रयोजनानि धर्मरहितानि स्त्रीलक्षणादिसूचकानि कोकवात्स्यायनादीनि वर्जयेत् ॥ ८ ॥
॥ मूलम् ॥ - अणुसासिओ न कुपिज्जा । खंतिं सेविज्ज पंडिये ॥ खुद्देहिं सह संसगिंग । हा कीडं च वज्जए ॥ ९ ॥ व्याख्या - पुनर्विनयी साधुरनुशासितो गुरुभिः कठोरवचनै स्तर्जितोऽपि | हितं मन्यमानः सन्न कुप्येत् कोपं न कुर्यात्, पंडितस्तत्यज्ञः क्षांतिं सेव्येत क्षमां कुर्वीत. पुनः सु
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9999999656909630
1600006
सटीकं
॥ ९ ॥

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