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बिगड़ जाता है, अथवा विषयवासनाओं आदि के चक्कर में वर्षों तक फंसा रहकर अपना स्वभाव खराब कर लेता है संसारी जीव यह जानते हुए भी मोह से मूढ़ बना रहता है, इसके पीछे निकाचित कर्मदोष ही कारण है ॥ २४९ ॥ कम्मेहिं वज्जसारोवमेहि, जउनंदणो वि पडिबुद्धो । सुबहुँ पि विसूरंतो, न तरइ अप्पक्खमं काउं ॥ २५० ॥
शब्दार्थ : यदुनंदन श्रीकृष्ण क्षायिकसम्यक्त्वी होने के कारण स्वयं जागृत थे और अपनी पापकरणी के लिए बहुत पश्चात्ताप भी करते थे; किन्तु वज्रलेप के समान गाढ़ चिपके हुए निकाचित कर्मों के कारण आत्महितकारक कोई भी अनुष्ठान न कर सके । अपने आत्महित की साधना करना सरल बात नहीं है । इसके लिये महान् पुण्योदय आवश्यक है ॥२५०॥
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वाससहस्सं पि जई, काऊणं संजमं सुविउलं पि । अंते किलिट्टभावो, न विसुज्झइ कंडरीओ व्व ॥ २५९ ॥
शब्दार्थ : एक हजार वर्ष तक प्रचुरमात्रा में तप-संयम की आराधना करके भी कोई मुनि यदि अंतिम समय में अशुभ परिणाम ले आता है, तो वह कर्मक्षय करके विशुद्ध नहीं हो सकता । वह अपने अंतिम क्लिष्ट (राग-द्वेष युक्त) भावों के कारण दुर्गति में ही जाता है; जैसे कण्डरीक मुनि मलिन परिणामों के कारण नरक में गया ॥२५१॥
उपदेशमाला
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