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व्यक्ति को तीन गाँव के मध्य में रहने वाले कपटक्षपक तापस के सदृश पछताना पड़ेगा ॥३८६॥ एगागी पासत्थो, सच्छंदो ठाणवासि ओसन्नो ।
दुगमाई संजोगा, जह बहुया तह गुरु हुँति ॥३८७॥ ___शब्दार्थ : १. अपनी स्वच्छंद-मति से एकाकी रहने वाला, २. ज्ञानादि से विमुख (पासत्थ), ३. गुरु की आज्ञा नहीं मानकर स्वच्छंदता से चलने वाला, ४. हमेशा एक ही स्थान पर जमकर रहने वाला और ५. प्रतिक्रमणादि क्रिया में शिथिल रहने वाला इन दोषों के साथ द्विकादिकसंयोग से अर्थात् दो दोष, तीन दोष, चार दोष और पाँच दोष । एक दोष दूसरे दोष के साथ ज्यों-ज्यों जुड़ते जाते हैं, त्यों-त्यों दोषों का गुणाकार होता जाता है । और ऐसा साधु जितनेजितने अधिक दोषों का सेवन करता जाता है, उतना-उतना वह अधिकाधिक विराधक होता जाता है ॥३८७॥ गच्छगओ अणुओगी, गुरुसेवी अनियवासि अणियओ गुणाउत्तो। संजोएण पयाणं, संजम-आराहगा भणिया ॥३८८॥
शब्दार्थ : १. गच्छ में रहने वाला, २. सम्यग्ज्ञानादि का हमेशा अभ्यास करने में उद्यमी, ३. गुरु की सेवा करने वाला, ४. अनियतवासी अर्थात् मासकल्पादि नियमानुसार विहार करने वाला और ५. प्रतिक्रमणादि सम्यक् क्रियाकांडों में दत्तचित्त रहने वाला, इन पाँचों पदों (गुण) के संयोग से साधु संयमउपदेशमाला
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