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* मिथ्यात्व
(१) मिथ्यात्वसंयुक्त जीवों को अरहंत देव, निग्रंथ गुरु और निर्मल जिनभाषित धर्म आदि की प्राप्ति होना दुर्लभ है||गाथा १।। (२) जो सुख के लिए कुदेवों को पूजते हैं वे जीव उल्टे अपनी गाँठ का सुख खोते हैं और मिथ्यात्वादि के योग से पाप बाँधकर नरकादि में दुःख भोगते हैं ।।३।। (३) मिथ्यात्व के उदय में रक्ताम्बर व पीताम्बर आदि मिथ्या वेषधारियों को धर्म के लिए हर्षित होकर पूजता है परन्तु धर्म की तो इससे उल्टे हानि ही होती है।।५।। (४) मिथ्यात्व से मारे गये कुगुरुओं के निकट संसार से उदासीनता उत्पन्न हो ही नहीं सकती।।८।। (५) मिथ्यात्व व कषाय के वशीभूत हुए अज्ञानी जीव संसार भ्रमण के कारण रूप कर्म को हँस-हँस के बाँधते हैं ।।९।। (६) सब पापों में मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है क्योंकि व्यापारादि आरम्भ से उत्पन्न हुए पाप के प्रभाव से जीव नरकादि दुःखों को तो पाता है परन्तु उसे कदाचित् मोक्षमार्ग की प्राप्ति हो जाती है पर मिथ्यात्व के अंश के भी विद्यमान रहते हुए जीव को मोक्षमार्ग अतिशय दुर्लभ होता है, वह सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तपमयी बोधि को प्राप्त नहीं कर पाता ।।१०।। (७) जिनके तीव्र मिथ्यात्व का उदय है उन्हें जिनवाणी नहीं रुचती ।।१३।। (८) मिथ्यात्व के तीव्र उदय में विशुद्ध सम्यक्त्व का कथन करना भी दुर्लभ होता है जैसे पापी राजा के उदय में न्यायवान राजा का आचरण दुर्लभ होता है।।१७।। (९) वह ही कथा है, वह ही उपदेश है और वह ही ज्ञान है जिससे जीव मिथ्या और सम्यक् भावों को जाने ।।२४ ।। (१०) जिनराज को पा करके भी यदि मिथ्यात्व नहीं जाता तो इसमें बड़ा आश्चर्य है।।२५।।