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वै निःसंदेह जैन थे कलिंगके भाग्यविपर्ययमें अशोक मांसू गिरा कर रोते थे सही, मगर नन्दराजाके द्वारा अपहृत कालिंग जिन प्रतिमाको उन्होंने भी नहीं लौटाया था ।
उनके बाद जब खारवेल कलिंगके सिंहासन पर बैठे तब उन्होंने अपने राजत्वकी १७ वीं सालमें मगधके खिलाफ अभियान किया और उस कालिंग जिन प्रतिमा को कलिंग लौटा कर लाये ।
प्रशोकके बाद उनके नाती मगधके राजा हुए थे । प्रशोक पहले जैसे बौद्धधमं का पृष्ठपोषक था, ठीक उसी तरह सप्रति जैनधर्मका पुष्ठपोषक रहे । उनके राजत्वमें कलिंग में जैनधर्मका प्रभ्युत्थान होना सभव था। कलिंगमें मौर्यवंशके बाद स्वाधीन चेदिवशका अभ्युदय हुआ । इस वशके राजत्वकाल में कलिंग में जैनधर्म पुनर्वार जातीय धर्मके रूपमें प्रतिष्ठित हुषा ।
खारवेल इस वंशके तीसरे राजा थे। उनके कार्यकलाप और जैनधर्म के प्रति दानके बारेमें परवर्ती परिच्छेदोमें विस्तृत आलोचना की गई है। कलिंग में "आदिधर्म जैनधर्म" की वर्णना करते हुए भ० पार्श्वनाथ के जन्म से लेकर खारवेल तक धारवाहिक रूपमें एक सक्षिप्त प्रालोचना दी गयी है ।
इस अलोचना के पर्याय अशोकके समसामयिक कलिंगके जैन राजा को तथा मौर्योतर युगके राजा खारवेल की सूचाना दी गयी है। कलिंग में जैनधर्मकी प्राचीनताका प्रतिपादन करने में मौर्ययुग से बहु पूर्ववर्ती कलिंग के एक राजाका विषय यहां उपस्थापित करना प्रासंगिक प्रौर विधेय मानता हूँ । दे कलिगके राजा करकण्ड भ० महावीर से पहले धौर भ० पार्श्वनाथ के बाद वे कलिंग के राजाथे, यह सुनिश्चित है । कोई कोई उनको पार्श्वनाथ के शिष्य मानते हैं।"
8 Indian Culure Vol IV 319 ff.
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