Book Title: Udisa me Jain Dharm
Author(s): Lakshminarayan Shah
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 90
________________ करके इस धर्म को धर्मवृद्धि-साधने के लिये अपना जीवन यावर कर दिया था। जैन पुराणोंसे और भी मालूम होता है कि पादलिप्स नामक जैन साधु ने पाटलिपुत्र, मुरुड राजाके मस्तिष्क रोग को अच्छा किया था। मे साधु पादलिप्त उज्जयिनीके राजा विक्रमादित्य के जैनगुरु सिद्धसेन के मान समसामयिकही थे । ग्रीक भौगोलिक टोमी ने 11 पूर्व भारत में मुरुड राज्य की भौगोलिक सीमारेखा निर्णित रूप में बताई है। उनके लेखसे मालूम होता है कि ई० द्वितीय शताब्दी में मुरुड राज्यका विस्तार तिरहूत से गंगा नदी के मुहाने तक हुआ था । चीन देशके बु (Woo) राजवंश के विवरण से १२ भी जान पड़ता है कि ई० तीसरी शताब्दी में मुरुड पूर्व भारत में राजत्व करते थे, जैसे कि फरांसीसी पंडित सिलवालेवि प्रतिपादन कर गये हैं । इस प्रकार उडीसा मे रक्तबाहु का प्राक्रमण वास्तव में पूर्व भारतीय मुरुंडो का प्राक्रमण था और यहां से प्राप्त असंख्य मुद्रायें जिनको कुशाण मुद्रायें अनुमानित किया गया है बयार्थमे इन मरुडों द्वारा प्रचलित मुद्रायें थी । १६४७ सालमं शिशुपालगढ़ मैं जो पुरातात्विक भूखोदन हुआ था, उसमे उडीसामें जैन मुरुड राजत्वका सुस्पष्ट प्रमाण मिल चुका है। इस भूखोदन से Fit हुई एक स्वर्ण मुद्राके वारेमें मालोचना करते हुये डॉ. श्रत मदाशिव झाल्टेकार कहते हैं कि यह मुद्रा "महानाबा घिराजा धर्मदामघर" नामधेय किसी एक मुरुड राजा द्वारा प्रचलित की गई थी डॉ माल्टेकार आगे और भी कहते है कि यह मुरुड राजा मोडीसामें ई० तीसरी शताब्दी में शासन १०. इडियन कल्चर, भाग ३ ०४६ 3 ** ११ इडियन एन्टीक्वेरी, भा० १३ ५०३३७ १२ सिल्बा लेखी, Molanser Charles de Harlez pp. 176 186 ' -

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