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प्राणियों को इष्ट जन के मिलने से दुख ताजा होता है। तब वे जल से मुखकमल धोकर दुख के उदगार व्यक्त कर परस्पर बातें करने लगे। पुष्पदंती ने
वैदर्भी को उत्संग में बिठाकर कहा कि हे आयुष्मति। सद्भाग्य से हमें तेरे दर्शन हुए हैं, इससे विदित होता है कि अभी हमारे भाग्य जागृत हैं। अब अपने घर रहकर सुख से समय व्यतीत कर। दीर्घकाल में तुझे पति दर्शन भी हो जायेंगे। क्योंकि जीवित नर ही लाभ प्राप्त करते हैं। राजा ने हरिमित्र को संतुष्ट होकर पांच सौ गाँव दिये। और कहा कि यदि नल राजा को ढूँढ लाओगे तो तुझे आधा राज्य दे दूंगा। उसके बाद राजा ने नगर में जाकर दवदंती के आगमन का उत्सव किया
और सात दिन तक देवअर्चना और गुरूपूजा विशेष प्रकार से कराई। आठवें दिन विदर्भपति ने दवदंती से कहा कि अब नलराजा के समाचार शीघ्र मिले, ऐसा करवाने का मैं पूरा प्रयत्न करूँगा।
इधर जिस समय नलराजा दमयंती को छोड़कर अरण्य में घूम रहे थे, उस समय एक ओर वन के तृण में से निकलता हुआ धुंआ उनको दिखाई दिया। अंजन के जैसा श्याम रंग के उस धुंए के गोरे आकाश में ऐसे व्यापक हो गए कि जैसे पंखवाला कोई गिरी आकाश में जा रहा हो, ऐसा भ्रम होने लगा। एक निमेष मात्र में तो वहाँ भूमि में से विद्युत वाला मेघ के जैसा ज्वालामाल से विकराल अग्नि का भभका निकला। थोड़ी देर में जलते बांस की तड़तड़ाहट और वनवासी पशुओं का आनंद स्वर सुनने में आया। ऐसा दावानल प्रदीप्त होने पर उसमें से अरे! क्षत्रियोतम ईश्वाकुवंशी उर्वीश! मैं तुम्हारा कुछ उपकार करूँगा, अतः मेरी रक्षा करो। ऐसे शब्द सुनाई देने पर उन शब्दों के अनुसार नलराजा गहन लताग्रह के समीप आए। वहाँ उसके मध्य में रहा हुआ रक्षा करो, रक्षा करो ऐसा बोलता हुआ एक विशालकाय सर्प उनको दिखाई दिया। नल ने पूछा कि हे सर्प! तू मुझे मेरे नाम को और मेरे वंश को किस प्रकार जानता है ? और तुझे ऐसी मनुष्य की वाणी कैसे प्राप्त हुई वह कह। सर्प बोला- मैं पूर्व जन्म में मनुष्य था, उस जन्म के अभ्यास से इस भव मे भी मुझे मानुषी भाषा प्राप्त हुई है।
(गा. 873 से 884) फिर हे यशोनिधि- मुझे उज्जवल अवधिज्ञान है। इससे मैं तुमको तुम्हारे नाम को और तुम्हारे वंश को जानता हूँ। इस प्रकार सुनकर नलराजा को दया आई। इससे उन्होंने इस कांपते सर्प को खींच लेने के लिए वनलता के उपर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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