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तब अभी तक तो मैं तृप्त हुआ नहीं इसलिए जहाँ तृप्ति होगी वहाँ जाऊँगा ऐसा बोलता हुआ वह कपटी विप्र वहाँ से चल दिया।
(गा. 436 से 444) पश्चात वह बालसाधु का रूप लेकर रूक्मिणी के घर गया। रूक्मिणी ने नेत्र को आनंद रूप चंद्र जैसा उनको दूर से ही देखा उसके लिए आसन लेने रूक्मिणी घर में गई, तब वहाँ पहले से रखे हुए कृष्ण के सिंहासन के ऊपर वह बैठ गया। जब रूक्मिणी आसन लेकर बाहर आई तब कृष्ण के सिंहासन पर उसको बैठा हुआ देखकर विस्मित हुई और नेत्र को विकसित करती हुई बोली कृष्ण या कृष्ण के पुत्र के बिना इस सिंहासन के उपर बैठे हुए किसी भी पुरूष को देवतागण सहन नहीं कर सकते। तब उस कपटी साधु ने कहा मेरे तप के प्रभाव से किसी भी देवता का पराक्रम मुझ पर चलता नहीं है। तब रूक्मिणी ने पूछा कि आप किस कारण से यहाँ पधारे हो? तब वह बोला मैंने सोलह वर्ष से निराहार तप किया हुआ है और मैंने जन्म से ही माता का स्तनपान भी नहीं किया, अब मैं यहाँ पारणा करने आया हूँ।
(गा. 445 से 451) इससे जो योग्य लगे वह मुझे दो। रूक्मिणी बोली हे मुनि! मैंने चतुर्थ तप से आरंभ करके वर्ष तक का तप तो सुना है, परंतु किसी भी स्थान पर सोलह वर्ष का तप सुना नहीं। यह सुनकर बालमुनि बोले- तुमको उससे क्या मतलब है? जो कुछ भी हो और वह मुझे देने की इच्छा हो तो दो। नहीं तो मैं सत्यभामा के मंदिर में जाता हूँ। रूक्मिणी बोली मैंने उद्वेग के कारण कुछ भी आज बनाया नहीं है। बालमुनि ने पूछा- तुमको उद्वेग होने का क्या कारण है? रूक्मिणी ने कहा मुझे पुत्र का वियोग हुआ है उसके संगम की आशा से मैंने आज तक कुल देवी की आराधना की। आज अंत में कुलदेवी को मस्तक का बलिदान देने की इच्छा से मैंने मेरी ग्रीवा पर प्रहार किया, तब कुलदेवी ने कहा, पुत्री! साहस कर नहीं, यह तेरे आंगन में रहा हुआ आम्रवक्ष जब खिल उठेगा तब तेरा पुत्र आएगा। आज यह आम्रवृक्ष विकसित हो गया परंतु मेरा पुत्र तो अभी तक नहीं आया। इसलिए हे मुनिराज! तुम होरा देखो। मेरे पुत्र का समागम कब होगा? मुनि बोले, जो खाली हाथ से पूछे उनको होरा का फल मिलता नहीं है। रूक्मिणी बोली कहो तुमको क्या दूँ ? मुनि बोले तप से
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)