Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 206
________________ १६८ तीर्थकर भगवान महावीर बार बार शत-शत बन्दन कर, लौटे सब अपने अपने थल । नैसर्गिक शुभ छटा विहंसती, वातावरण भासता निश्छल । वहाँ हृदयहारी तडाग ने, द्विगणित किया सुशोमा अश्वल । शोभित नील अरुण सित शतदल हरित पातयुत जलकण चञ्चल ॥ निकट रम्य सर के शुभ उपवन, नाम 'मनोहर' मनहर जिसका । अनुपम सुन्दरता हंसती-सी, अति अभिराम रूप मदु इसका ॥ हरी हरो हरियाली में हैं, खिले लाल पीले नीले-से । श्वेत कासनी विविध पुष्प भी, मानों अर्चा हित उद्यत-से ॥ किस महान मानव की पूजा, मौन सँजोते पुष्प मुदित मन । दिखे तभी पाषाण शिला पर, समाधिस्थ समरस सु-साधु बन । यह सन्मति प्रासीन अकेले, उपवन के एकान्त स्थान में ।

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