Book Title: Tirthankar Bhagwan Mahavira
Author(s): Virendra Prasad Jain
Publisher: Akhil Vishwa Jain Mission

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Page 211
________________ अष्टम् सर्ग : निर्वाण एवं वन्दना १७३ गाते जिनको पञ्चम स्वर में, कुछ जन पढ़ते जिन सहसनाम । झन-झन ढ़प झांझ मृदंग आदि, वादित्र बज रहे सरगम मय । जिनके स्वर साथ साथ होते, श्रद्धा गायन मधुरिमलय मय ॥ यह भक्ति भाव आवेग देव ! तब सुगुण कथन का कहाँ अन्त । चाहे तन रोम-रोम बोले, बन लक्ष वाणियां, गुण अनन्त ॥ पर श्रद्धा में अभिभूत हए, अपनी सीमित वाणो में हो। गा तव यश करते तोष अमित, है भक्त जनों को बहुत यही ॥ तव संस्तुति है पीयूष कि जो देता शाश्वत अमरत्व सदन । सम्यक्त्व सहज दृढ़ हो जाता, होती कुमृत्यु को भीति शमन ॥ कर पान भक्ति की अजुलि सेवचनामृत, भक्त सबल बनता । भगवान स्वयं भी बनने को, सन्मति-पग-चिह्नों पर चलता ॥

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