Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 09 10
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 66
________________ श्रीतत्त्वार्थाधिगमसूत्रे आदि से व्याकुलता, अप्रिय वस्तु के वियोग से क्षोभ तथा प्रिय वस्तु के वियोग से शोक आदि के संकल्प मन में उठते हैं तब मन की स्थिति बड़ी दयनीय एवम् अशुभ हो जाती है। इस प्रकार के विचार जब मन में गहरे जम जाते हैं और मन उनमें खो जाता है, चिन्ता-शोक के समुद्र में डूब जाता है तब वह आर्तध्यान की कोटि में पहुंच जाता है। ये विचार कई कारणों से जन्म लेते हैं।आर्तध्यान के चार कारण एवं चार लक्षणों के सन्दर्भ में आगम शास्त्रीय वर्णन प्राप्त होता है - १. अमणुन्नसंपओग - अमनोज्ञ संप्रयोग-अप्रिय अनचाही वसतु का संयोग होने पर उससे पिंड छुड़ाने की चिन्ता करना कि कब यह वस्तु दूर हटे। जैस भयंकर गर्मी हो, कड़कड़ाती सर्दी हो तब उससे छुटकारा पाने के लिए तड़पना। किसी दुष्ट या अप्रिय आदमी का साथ हो जाये तो यह चाहना कि यह कैसे मेरा साथ छोड़े- इन विषयों की चिन्ता जब गहरी हो जाती है तो चिन्ता, मन को कचोटने लगती है और मनष्य भीतर ही भीतर बहुत दुःख, क्षुब्धता, व्याकुलता का अनुभव करता है। यही गहरी व्याकुलता अमनोज्ञ संप्रयोग-जनित है अर्थात् अनिष्ट के संयोग से यह चिन्ता उत्पन्न होती है तथा अमनोज्ञ-वियोग चिन्ता की तीव्र लालसा रूप आर्तध्यान का प्रथम कारण है। २. मणुन संपओग - मनोज्ञ संप्रयोग- मनचाही वस्तु के मिलने पर, जो प्रसन्नता व आनन्द आता है, उस वस्तु का वियोग होने पर विलीन हो जाता है और आनन्द से अधिक दुःख व पीड़ा का अनुभव होता है। प्रिय का वियोग होने पर मन में जो शोक की गहरी घटा उमड़ती है वह मनुष्य को बहुत सदमा पहुंचाती है, उससे दिल को गहरी चोट लगती है और आदमी पागल-सा हो जाता है। अप्रिय वस्तु के संयोग से जितनी चिन्ता होती है, प्रिय के वियोग में उससे अधिक चिन्ता व शोक की कसक उठती है। आर्तध्यान का यह दूसरा कारण है- मनोज्ञ वस्तु के वियोग की चिन्ता। ३. आयंक सम्पओग - आतंक-सम्प्रयोग/ आतंक नाम है- रोग का, बीमारी का। रोग हो जाने पर मनुष्य उसकी पीड़ासे व्यथित हो जाता है और उसे दूर करने के विविध उपाय सोचने लगता है। रोगी, व्यक्ति,पीड़ित होकर कभी आत्महत्या तक कर लेता है। वह रोग की पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए बड़े से बड़ा पाप व हिंसा आदि के विषय में सोचने लगता है- यह रोग चिन्ता आर्तध्यान का तीसरा कारण है। ४. परिजुसिय काम-भोग संपओग - प्राप्त काम-भोग सम्प्रयोग अर्थात् काम, भोग आदि की जो सामग्री, जो साधन उपलब्ध हए है, उनको स्थिर रखने की चिन्ता कि ये कहीं छूट न जाये और भाविष्य में उन्हें बनाये रखने की चिन्ता तथा अगले जन्म में भी वे काम भोग कैसे प्राप्त हों ताकि मैं वहाँ भी सुख व आनन्द प्राप्त कर सकूँ- इस प्रकार का चिन्तन चिन्ता और भविष्य की आकुलता आर्तध्यान का चौथा कारण है। इस आर्तध्यान में भविष्य चिन्ता की प्रमुखता रहती है। अत: इसे निदान माना जाता है। जो जीव आत्मा, आर्तध्यान करता है उसकी आकृति बड़ी दीन-शोक-संतप्त तो रहती ही है। कभी-कभी तो यह व्याकुलता सीमा भी लांघ जाती है।

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