Book Title: Tattvarthadhigam Sutraam Tasyopari Subodhika Tika Tatha Hindi Vivechanamrut Part 07 08
Author(s): Vijaysushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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सप्तमोऽध्यायः
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मैत्रीभावना से भावित अन्तःकरण-हृदयवाला साधक ही हिंसादिक पापों से विराम पाता है अर्थात् -अटक जाता है। सच्चे मित्र के चित्त में अपने मित्र की हिंसा-वध करने की, असत्यझूठ बोलकर उसको ठगने की, तथा चोरी करके उसका वित्त-धन इत्यादि ले लेने को भावना नहीं होती है।
मैत्रीभावनायुक्त साधक विश्व के समस्त जीवों को अपना मित्र मानता है। अर्थात् उसके हृदय में जगत् के सकल जीवों के हित की ही भावना होती है।
* इस दृष्टि से षोड़शक ग्रन्थ में १४४४ ग्रन्थों के प्रणेता पूज्याचार्यदेव श्रीमद् हरिभद्र सूरीश्वरजी महाराज श्री ने कहा है कि "परहितचिन्ता मैत्री" पर के हित की चिन्ता को अर्थात् भावना को मैत्री कहते हैं।
* श्रीयोगशास्त्र ग्रन्थ में कलिकालसर्वज्ञ पूज्याचार्य श्रीमद् हेमचन्द्र सूरीश्वर जी महाराज ने भी मैत्री भावना के सम्बन्ध में कहा है कि
मा कार्षीत् कोऽपि पापानि, मा च भूत् कोऽपि दुःखितः ।
मुच्यतां जगदप्येषा, मतिमंत्री निगद्यते ॥१॥ कोई भी जीव-प्राणी पाप नहीं करे, कोई भी जीव-प्राणी दुःखी न होवे, तथा सम्पूर्ण विश्व दुःख से मुक्त हो; ऐसी भावना मैत्री है । * बृहद्शान्ति स्तोत्र में भी कहा है
शिवमस्तु सर्वजगतः, परहित-निरताः भवन्तु भूतगणाः ।
दोषाः प्रयान्तु नाशं, सर्वत्र सुखी भवन्तु लोकाः ॥ २ ॥ अखिल विश्व का कल्याण हो, प्राणी-समूह परोपकार में तत्पर बनें, व्याधि-दुःख-वैमनस्य आदि विनष्ट हों और सर्वत्र सारा लोक सुखी बने। अहिंसा-दया आदि के पालन के लिए ऐसी मैत्री भावना अनिवार्य है।
समस्त जीवों-प्राणियों पर ऐसी मैत्री भावना रखने से ही उक्त महाव्रतों-व्रतों में कुशलतापूर्वक वास्तविक रीति से रह सकता है । [२] प्रमोद भावना
प्रमोद यानी मानसिक हर्ष। अपने से अधिक गुणवान का सत्कार या गुणानुवाद करना ही प्रमोद भावना है। उनकी ईर्ष्या करने से व्रत का विनाश होता है, और आदर-सत्कार करने से अपने गुणों की वृद्धि होती है। इसलिए व्रती को उक्त भावना आदरणीय है। यह भावना व्रत का पोषण करने वाली है।
- विशेष - सम्यक्त्व-समकित, ज्ञान, चारित्र तथा तप इत्यादिक से सम्पन्न महान् (उत्तम) आत्मानों को वन्दन, स्तुति, प्रशंसा, वैयावच्च इत्यादि करने से प्रमोद की, मानसिक हर्ष की अभिव्यक्ति होती है। प्रमोद भावनायुक्त जोव-प्रात्मा ज्ञानादिक गुणों से सम्पन्न उत्तम गुणीजनों को देखकर प्रानन्द-हर्ष पाते हैं, तथा अपने इस अानन्द को शक्ति के संयोग-प्रमाणे यथायोग्य वन्दनादिक द्वारा व्यक्त करते हैं।