Book Title: Tattvarthadhigam Sutra
Author(s): Labhsagar Gani
Publisher: Agamoddharak Granthmala

View full book text
Previous | Next

Page 19
________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ३ हीयमान ( घटने वाला), ४ वर्द्धमान ( बढ़ने वाला ), ५ अनवस्थित ( अनियमित बढ़ता, घटता जाता रहे, उत्पन्न होय ) और ६ अवस्थित (निश्चित-जितने क्षेत्र में जिस प्रकार से उत्पन्न हुआ हो उतना केवलज्ञान तक कायम रहे या मरने तक रहे वा दूसरे भव में साथ भी नावे । तीर्थंकरों को मनुष्य पणे उत्पन्न होती वक्त यह ज्ञान होता है। (२४) ऋजुविपुलमती मनःपर्याय । मनःपर्याय के १ ऋजुमति और २ विपुलमति ये दो भेद हैं. (२५) विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः। विशुद्धि (शुद्धता ) और अप्रतिपाति पणा (आया हुआ जाय नहीं) इन दो कारणों से उन दोनों में फरक है यानी ऋजुमति से विपुलमति विशेष शुद्ध है, और ऋजुमति पाया हुआ जाता भी रहे लेकिन विपुलमति आया हुआ जाय नहीं। (२६) विशुद्धि-क्षेत्र-स्वामि-विषयेभ्योऽवधि-मनःपर्याययोः । १ विशुद्धि ( शुद्धता) २ क्षेत्र (क्षेत्र प्रमाण ), ३ स्वामी (मालिक), और ४ विषय इन चार तरह से अवधिज्ञान और मन: - पर्याय ज्ञान में विशेषता ( फरक ) है। (अवधि से मन:मर्याय शुद्ध है । मन:पर्याय ज्ञान से अढ़ाई द्वीप और ऊर्ध्व ज्योतिष्क तक तथा अधो हजार योजन तक का क्षेत्र दिखे और अवधि से असंख्य लोक दिखे, मन:पर्याय का स्वामी साधु मुनिराज और अवधिज्ञान के स्वामी संयत या असंयत चारों गति वाले हो सकते हैं, मनःपर्यव से पर्याप्त संज्ञी के मनपणे परिणमाये हुये द्रव्य जाना जावे और अवधि से तमाम रूपी-रूप, रस,

Loading...

Page Navigation
1 ... 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122