Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 224
________________ करने पर, अन्यत्र-दूसरे में, समवाये-मिल जाने पर, न-नहीं, व्यपदिश्येत व्यपदेश बनना चाहिए/बन सकेगा, सर्वथा किसी भी रूप में। सरलार्थ : अन्योन्याभाव का निषेध करने पर दृश्यमान सभी पदार्थ/पुद्गल-स्कन्ध वर्तमान में एकरूप हो जाएंगे और अत्यन्ताभाव का निषेध करने पर सभी द्रव्य एक दूसरे के साथ मिल जाने से किसी भी रूप में किसी भी द्रव्य का का भी नहीं हो सकेगा॥११॥ अब, वस्तु को सर्वथा अभावात्मक मान लेने पर आनेवाले दोषों को बताते हैं - अभावैकान्त-पक्षेऽपि भावापह्नव-वादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधन-दूषणम् ॥१२॥ भाव छोड़कर अभाव के, एकान्तपक्ष में नहीं बनें। बोधवाक्यप्रामाणिकतब, साधन दूषण होगा किससे?॥१२॥ शब्दश: अर्थ :अभाव-एकान्तपक्षे अभाव का एकान्त/भाव का पूर्णतया निषेध कर सर्वथा अभाव मानने पर, अपि=भी, भाव-अपह्नववादिनां भाव का सर्वथा निषेध करनेवालों के यहाँ, बोध-ज्ञान, वाक्यं= वाक्य, प्रमाण प्रामाणिक, न-नहीं, केन=किसके द्वारा, साधन=स्वमत की स्थापना, दूषणं परमत का खण्डन। सरलार्थ : भाव का सर्वथा निषेध करनेवाले वादिओं के यहाँ अभाव के एकान्त/सर्वथा अभाव के पक्ष में भी बोध/ज्ञान और वाक्य प्रामाणिक सिद्ध नहीं हो सकेंगे; तब फिर वेस्वमत की स्थापना और परमत का खण्डन किससे करेंगे ?॥१२॥ __ अब, उभयैकान्त आदि अन्य एकान्तों को सर्वथा स्वीकार कर लेने पर आनेवाले दोषों को स्पष्ट करते हैं - विरोधानोभयैकान्तं स्याद्वादन्याय-विद्विषां। अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्ति वाच्यमिति युज्यते॥१३॥ स्याद्वाद नय विद्वेषी के, उभयैकान्त नहीं बनता। विरुद्धता से अवाच्यता, एकान्त अवाच्य नहीं रहता॥१३॥ शब्दश: अर्थ :विरोधात् विरुद्ध होने से, न नहीं, उभय-एकान्त-उभय - देवागम स्तोत्र (आप्तमीमांसा)/२१९ -

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