Book Title: Tattvagyan Vivechika Part 02
Author(s): Kalpana Jain
Publisher: A B Jain Yuva Federation

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Page 238
________________ * जैन जयतु शासनम् . सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः बारह भावना (वीर छन्द) अनित्य भावना नित्य अनित्य स्वभाव स्वयं का, नित्य नियत ही है रहता। है अनित्य उत्पाद और व्यय रूप सदा मिटता रहता। तब अनित्य कैसे होगा आराध्य विचार करो चेतन। नित ज्ञानानन्दी आराध, इसी से होते विरहित तन। अशरणभावना निज से भिन्न, विनाशी, अशरण शरणप्रदाता हों कैसे? परम शरण शाश्वत सुखदायी, शिव सौभाग्य बने इससे॥ शरण हेतु पर-आश वृथा है, शरण स्वयं शाश्वत नित ही। इसके आश्रय से होता है प्रतिपल जीवन आनन्दी। संसार भावना मोहादि संसार सभी नि:सार मात्र अज्ञानमयी। मैं संसार रहित हूँ सारासार विवेकी ज्ञानमयी। पर का आकर्षण असार दुखमय दुखकारक है संसार। सारभूत शाश्वत आतम को ध्याकर पालूँ सुखमय सार।। एकत्वभावना ज्ञान निकेतन नाथ स्वयं ही नंतानंत गुणों का घर। आनन्दकन्द स्वयं एकाकी नहीं कभी पर से विग्रह।। स्वयं सदा एकत्व स्वभावी शुद्धातम का कर चिंतन। ध्यान एक ही सदा रहे बस तन से विरहित मैं चेतन / / एकत्वानेकत्व स्वभावी अनेकत्व है दुखदायक। अनेकत्व तज भज दृष्टि एकत्व सदा जो सुखदायक। हो जाऊँ परिपूर्ण स्वयं स्वाधीन सदा ऐश्वर्यमयी। संग अंग से रहित सिद्ध हो होता जीवन आनन्दी। अन्यत्व भावना पर से पूर्ण विभक्त अपेक्षा नहीं मुझे पर की किंचित्। सत्ता से जो भिन्न सदा मुझ काम करें कैसे किंचित् ? / / मैं अनन्य अविनाशी चेतन आनंदकंद अनंत विभु। मानूं ध्याऊँ तो हो जाऊँ अशरीरी शिव सिद्ध प्रभु॥ अनन्यत्व अन्यत्व धर्म हैं सदा शाश्वत वस्तु में। अन्य-अन्य माना करता जो पाता दुख ही इस जग में॥ अनन्यत्व एकत्व स्वभावी नित चेतन को ध्याने से। तन विरहित हो जाते चेतन सुखमय सिद्ध स्वपद पाके।

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