Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

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Page 51
________________ ४८ ] * तारण - वाणी निजानन्द रसलीन ) अपनी सिद्ध के समान श्रात्मा में विलास करती है, रमण करती है उनकी अपनो आत्मा इस तरह स्वयं विगसायमान प्रफुल्लित हो जाती है जिस तरह सूर्य के उदय होने पर कमल विगस जाता है, खिल जाता है। और इतना ही नहीं जिन्हें 'जिन डवन मिलन' कहिए अन्तरात्मोपदेश मिलने लगता है उनका काल भी विलीयमान हो जाता है-मृत्यु का भय छूट जाता है अर्थात् सम्यग्दृष्टि को मृत्यु भय नहीं रहता । तथा उसके भीतर उस आत्मप्रकाश में नाम और नामाश्रित गुण उसकी सुन्य समाधि में समा जाते हैं इन किन्हीं का भी उसे भान नहीं रहताआराधना नहीं रहती । वह केवल एक अपनी आत्मा के आनन्द - परमानन्द का भोक्ता हो जाता है ||३|| १२४ - रंज रमन सुइ नन्द, अनन्द नन्द सुइ मुक्ति पौ-बनजारे हो ! पर्म तव पद बिंद मौ-बनजारे हो ! बनजारे - मोक्ष के वेपारी हो ! आनन्द में रमण करने वाली जो तुम्हारी आत्मा उस अपनी आत्मा को आत्मीय मानन्द से भरपूर यानी ओत-प्रोत कर देना ही मुक्ति पाने का मार्ग है, साधन है । कैसा है वह तुम्हारा आत्मा ? सात तत्वों में सर्वोत्तम तत्व है, छः द्रव्यों में परमो - त्कृष्ट द्रव्य है, नौ पदार्थों में सर्वोत्तम पदार्थ है, पंचास्तिकाय में सर्वोत्तम जीवास्तिकाय है इस तरह जो सत्ताईस तत्त्व कहे गए हैं उन सब में मुख्य सर्वश्रेष्ठ केवल एक जीवतन्त्र ही है । वही जीवतत्व- परमतत्व तुम्हारी आत्मा है और वह बिंद कहिए मोक्षपद विभूषित है, उसे प्राप्त करो । यही तुम्हारा सच्चा व्योपारीपना और सारभूत व्यापार है । इस व्यापार में तुम अपनी चतुराई का उपयोग करो कि जिससे तुम्हें चिंतामणिरत्न का लाभ होगा। आचार्यों ने आत्मा को ही चिंतामणिरत्न कहा है । १२५ – सम्यक्त और सम्यक्ती की महिमा का वर्णन करते हुए कहते हैं-जाकी उवन सेज रवि प्रलय पड़े, ताके नयन कोई मत अंजन कहे । सम्यक्त रूपी सेज से – सम्यक्त गुण से प्रीति करते हो अर्थात् सम्यक्त के उदय होते ही कमों पर प्राय पड़ जाती है । और उस सम्यक्त प्राप्त - सम्यक्ती पुरुष की दृष्टि में विचारधारा में कोई रखमात्र भी दोष किसी के भी कहने को नहीं रह जाता है अर्थात् उसके समस्त कार्य निर्दोष होते हैं । १२६-- तं बिंद रमन सुइ कमल कलिय जिनु, अन्मोय तरन सिद्धि जयं । हे भव्य ! तुम मोक्षभाव में रमण करोगे अर्थात् जीवनमुक्त दशा बना लोगे तब ही तुम आत्म- ध्यान कर सकोगे, और जब तुम्हारी प्रीति अर्थात् अनुमोदना तरन स्वरूप जो 'जिन' कहिए अन्तरात्मा से हो जायगी तभी तुम्हारी मोक्ष को - आत्मकल्याण करने वाली समस्त साधनायें, उनकी सिद्धि होगी और उन साधनाओं की वृद्धि होगा । "भावमोक्ष ही आत्मकल्याण के लिए मूलमंत्र है"

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