Book Title: Taranvani Samyakvichar Part 2
Author(s): Taranswami
Publisher: Taranswami

View full book text
Previous | Next

Page 195
________________ १८८] * तारण-वाणी * जाता है। अनादिकाल से जीवों के मिथ्यादर्शन-ज्ञानचारित्र' अपनी भूल से चले आ रहे हैं, इसी. लिये जीव अनादिकाल से दुःख भोग रहे हैं, अनंत दुःख भोग रहे हैं। जीव धर्म करना चाहता है, किंतु उसे सच्चे उपाय का पता नहीं होने से वह खोटे उपाय किये बिना नहीं रहता, अत: जीवों को यह महान् भूल दूर करने के लिये पहले सम्यग्दर्शन प्रगट करना चाहिये । इसके बिना कभी किसी के धर्म का प्रारम्भ हो ही नहीं सकता। सीनों काल और तीनों लोक में जीवों का सम्यग्दर्शन के समान दूसरा कोई कल्याण और मिध्यात्व के समान अकल्याण नहीं है । सम्यग्दर्शन अंधश्रद्धा के साथ एक रूप नहीं है, उसका अधिकार प्रात्मा के बाहर या म्वच्छंदी नहीं है; वह युक्तिपुरस्सर ( विवेक की तोल पर ) ज्ञान सहित होता है; उसका प्रकार वस्तु के दर्शन ( देखने ) के समान है। आप उसके साक्षीपना की शंका नहीं कर सकते । जहाँ तक (म्बम्बम्प की) शंका है वहां तक सच्ची मान्यता नहीं है। उस शंका को दबाना नहीं चाहिये, किन्तु उसका नाश करना चाहिये । ( किसी के ) भरोसे परवन्तु का ग्रहण नहीं किया जाता । प्रत्येक को स्वयं स्वतः उसकी परीक्षा करके उसके लिये यत्न करना चाहिये। प्रश्न-सम्यग्दर्शन होने पर क्या होता है ? उत्तर–सम्यग्दर्शन होने पर स्वरस (प्रात्मरस ) का अपूर्व आनन्द अनुभव में आता है। आत्मा का सहज पान दप्रगट होता है। प्रात्मीक आनन्द उछलने लगता है । अंतरंग में अपूर्व आत्मशांति का वेदन होता है । भात्मा का जो सुख अंतरंग में है वह अनुभव में आता है । इस अपूर्व सुख का मार्ग सम्यक्दर्शन ही है। मैं भगवान आत्मा चैतन्य स्वरूप हूँ, इस प्रकार जो निर्विकल्प शांतरस अनुभव में आता है वही शुद्धात्मा अर्थात् सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान है। यहां सम्यग्दर्शन और आत्मा दोनों अभेद रूप से लिये गये हैं। बारम्बार ज्ञान में एकाग्रता का अभ्यास करना चाहिये___सर्व प्रथम प्रात्मा का निर्णय करके फिर अनुभव करने को कहा है। सबसे पहिले जब तक यह निर्णय नहीं होता कि-मैं निश्चय ज्ञान स्वरूप हूँ, दूसरा कोई रागादि मेरा स्वरूप नहीं है तब तक सच्चे श्रुतज्ञान को पहिचान कर ( शास्त्र ज्ञान को पहिचान कर ) उस शास्त्रज्ञान का परिचय करना चाहिये। सत् श्रुत के परिचय से ज्ञानस्वभाव प्रात्मा का निर्णय करने के बाद मति-श्रुतज्ञान को उस ज्ञान स्वभाव की ओर ले जाने का प्रयत्न करना, निर्विकल्प होने का प्रयत्न करना ही प्रथम अर्थात् सम्यग्दर्शन का मार्ग है। इसमें तो बारंबार ज्ञान में एकाग्रता का अभ्यास ही करना है,

Loading...

Page Navigation
1 ... 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226