Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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सूत्रकृताइसूत्रे
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जे इह सायाणुगा नरा अज्झोववन्ना कामेहि मुच्छिया
९ १० १४ १२ १५ १३ ११ किवणेण समं पगमिया न वि जागति समाहिमाहित॥४।
छाया य इह सातानुगा नरा अध्युपपन्नाः कामेषु मूच्छिताः । कृपणेन समं प्रगभिता नापि जानन्ति समाधिमाख्यातम् ॥४॥
अन्वयार्थ:(इह) इहलोके (जे नरा) ये नराः (सायाणुगा) सातानुगाः= सुखशीलाः (अज्झोववन्ना) अध्युपपन्नाः =ऋद्धिरससातगौरवेपु गृद्धाः, तथा (कामेहिं) कामेषु = शब्दादिपु (मुच्छिया) मूच्छिताः (किवणेण) कृपणेन इन्द्रियपराजितेन(सम)
शब्दार्थ-'इह-इह' इसलोकमें 'जे नरा-ये नराः' जो मनुष्य 'सायाणुगा सातानुगाः' सुख के पीछे चलते हैं 'अज्झोववन्ना-अध्युपपन्नाः' तथा ऋद्वि रस और साता गैरवमें आसक्त है एवं कामेहि-कामेषु शब्दादि काममोगों में मुच्छिया-मूच्छिताः' आसक्त है 'किवणेण-कृपणेन । वे इन्द्रिय लंपटों के 'समं-समम्' समान् 'पगभिया-प्रगल्भिताः' धृष्टता पूर्वक कामभोगका सेवन करते हैं 'अहियंपि-आहितमपि' ऐसे लोग कहने पर भी 'समाहि-समाधिम् समाधि धर्मध्यानको 'न-न' नहीं 'जाणंति-जनन्तीति' जानते हैं ॥४॥
-अन्वयार्थ:इस लोक में जो मनुष्य सुखशील आरास चाहने वाले होते हैं, ऋद्धि रस और साता के गौरव में आसक्त हैं तथा शब्दादि कामभोगो में मूर्छित हैं,
शा- 'इह-इह' मा सोभा जे नरा-ये नरा'ने मनुष्य 'सायाणुगा-साता. नुगाः' सुमनी पाछ या छ 'अज्झोववन्ना-अध्युपपन्ना' तथा ऋद्धिरस गमन साता गैरवमा सासरत छ मेवम् 'कामेहि -कामेपु' शण्ट पोरे अमलागीमा 'मुच्छियामूच्छिता' मासरत छ 'किवणेण कृपणेन' ते धान्द्रय ८ पटोना 'सम -समम्' समान 'पगभिया-प्रगल्भिता' टतापू: आमलोगनु सेवन ४२ छ 'अहिय पि-आहितमपि' मावा सो ४ा छता ५४ 'समाहि-समाधिम्' समाधि-मध्यानने 'न-न' नथी 'जाण ति-जानन्तीति' andu ॥ ४ ॥
-सूत्राथઆ લેકમ જે મનુએ સુખશીલ આરામને પસન્દ કરનારા હોય છે ઋદ્ધિ, રસ અને સાતાના ગૌરવમા આસક્ત છે, તથા શબ્દાદિ કામગોમાં મૂર્ણિત છે, તેઓ કૃપણાના