Book Title: Sutrakrutanga Sutram Part 01
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 677
________________ समयार्थ योधिनी टीका प्र. अ. २ उ. ३ साधूनां परिषदोपसर्ग सहनोपदेश. ६६३ गृहेऽपि वसन् पुरुषो यदि देशविरतिमंगीकृत्य सर्वप्राणिषु समताभावं कुर्वन् जिनोदितधर्माराधst Hafa aara desisaari गच्छतीति जिनप्रतिपादिताऽहिंसाया इदं फलं यत् गृहमावसन्नपि स्वर्गगामी भवति, देशविरतेरपि यदा ईदृशी गतिस्तदा सर्वविरतेस्तु का कथा ॥ १३ ॥ संप्रति सर्वविरतेर्महिमानमाह 'सोच्चा' इत्यादि । मूलम् २ १ ३ ४ ६ ५ सोच्चा भगवाणुसासणं सच्चे तत्थ करेज्जुवकमं । ११ ७ १० १२ सवत्थ विणीयमच्छरे उछं भिक्खु विरुद्धमाहरे || १४ || छाया श्रुत्वा भगवदनुशासनं सत्ये तत्र कुर्यादुपक्रमम् | सर्वत्र विनीतमत्सर उच्छे भिक्षुर्विशुद्धमाहरेत् ||१४|| जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित धर्म की आराधना करता है तो अवश्य ही उसे देवलोक की प्राप्ति होती है । जिनप्रतिपादित अहिंसा का यह फल There arाला भी स्वर्ग के सुखों का भोक्ता वन जाता हैं । जव देशविरति से भी एसी गति की प्राप्ति होती है तो सर्वविरति के फल का तो कहना ही क्या है ||१३|| अव सर्वविरति की महिमा कहते हैं - " सोच्चा" इत्यादि । शब्दार्थ –'भगवाणुसासणं- भगवदनुशासनम् ' भगवान के अनुशासन अर्थात् आगमको 'सोच्चा- श्रुत्वा' सुनकर 'सच्चे - सत्ये' उस आगम में कहेगये सत्य ' तत्थ - तत्र' संघम में 'उवकमं - उपक्रमम्' उद्योग 'करेज्ज - कुर्यात् ' करते रहे 'सव्वत्थ - सर्वत्र' प्राणिमात्र में 'विणीयमच्छरे - विनीतमत्सरः' 'मत्सररहित ढोकर અગીકાર કરીને અને સમસ્ત પ્રાણીએ તરફ સમતા ભાવ ધારણ કરીને જિનેન્દ્ર ભગવાન્ દ્વારા પ્રરૂપિત ધર્મની આરાધના કરે તે તેને અવશ્ય દેવલાકની પ્રાપ્તિ થાય છે. જો દેશ વિરતિને આ ગીકાર કરવાથી દેવગતિ રૂપ ફળની પ્રાપ્તિ થાય છે તે સવિતિના ફળની તે વાત જ શી કરવી ? એટલે કેસવિરતિ દ્વારા મેક્ષની પ્રાપ્તિ થાય એમા કોઈ આશ્ચયૅ ની વાત નથી. ૫૧૩૫ हुवे सूत्रार सर्व विरतिनो महिमा वर्णुचे छे- "सेोच्चा" प्रत्यादि शब्दार्थ -- 'भगवाणुसासण - भगवदनुशासनम्' लगवानना गनुशासन अर्थात भागभने 'सोच्चा- श्रुत्वा' सालणीने 'सच्चे - सत्ये ते भागभभां उस भत्य तत्थ तत्र' अयभभा 'उचक्कम --उपक्रमम्' उद्योग 'करेज - कुर्यात् ता रहे 'सव्वत्थ-सर्वत्र प्राणि सू -८४

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