Book Title: Surya Sahasra Nam Sangraha Trayam
Author(s): Dharmdhurandharsuri
Publisher: Jain Vidya Shodh Samsthan

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Page 119
________________ श्रीसूर्यसहस्रनामसङ्ग्रहवयम् "वृद्धिदः" 675 इति / वृद्धिं ददातीति सः / तमसां वृद्धि द्यतिखण्डयतीति वा // 675|| “वरप्रदः" 676 इति / वरा:-प्रकृष्टाः प्रदा:-दानशौण्डाः यस्मात् स तथा // 676 // "वर्चसः" 677 इति / वर्च:-तेजः, तदस्यास्तीति सः, अर्शादिभ्यो मत्वर्थेऽच् / / 677 // "विरूपाक्षः" 678 इति / विरूपाणि-जगद्विलक्षणानि अक्षाणिइन्द्रियाणि यस्य स तथा // 678 / "विरोचनः" 679 इति / विशेषेण रोचयति जगदिति स तथा // 679 / / “वरीयान्" 680 इति / अतिशयेन वरो वरीयान् सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः / / 680 / / "वरेण्यः" 681 इति / सर्वेषां देवानां मध्ये वरेण्यः-श्रेष्ठ इत्यर्थः / / 681 // "वरुणः" 682 इति / वृणोतीति वरुणः, सस्योत्पत्तिहेतुत्वात् / / 682 / / "वर्णाध्यक्षः" 683 इति / वर्णानां-वैश्यशूद्रभेदभिन्नानाम्, अध्यक्ष:अधिकारी / तान् अध्यक्ष्णोति-व्याप्नोतीति वा // 683 // "वरनायकः" 684 इति / वरश्वासौ नायकश्चेति सः, जगतो योग्याधिपतिरित्यर्थः / / 684 // "वरुणेश:" 685 इति / वरुणो नाम दिक्पतिः, तस्येश:-स्वामी / उश्च अरुणश्च वरुणौ, तयोरीश इति वा / तावीशौ यस्येति वा / 'उकारः पाकशासने // ' इत्येकाक्षरकोशोक्तेः / / 685|| "वृत्तिः" 686 इति / वर्तनं-वृत्तिः, तत्कारणत्वात् // 686 / / “वृत्तिधरः" 687 इति / वृत्तिं-मर्यादां धरतीति वृत्तिधरः तब्यवस्थाकारित्वात् // 687|| "वृत्तिचारी" 688 इति / वृत्तिं तत्तद्वर्णोक्तजीविकां चारयति 115

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