Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

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Page 213
________________ (२०२) अभिषिक्त किया है, और वे विद्याधरों के साथ आपके चरणों की वंदना करने के लिए आज ही इस नगर में आ रहे हैं, अतः प्रिय निवेदन करने के लिए मैं आपके पास पहले आ गया हूँ। उसके वचन सुनकर हर्षवश रोमांचित होते हुए राजा ने अपने अंग के सारे आभूषण उसको दे दिए, और पर्याप्त धन भी दिया, देवी कमलावती भी अत्यंत प्रसन्न हुई, सुरसुंदरी के हर्ष का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता था। राजा सूरि को प्रणाम करके सपरिवार नगर में आए, आतें ही कोतवाल को आदेश दिया कि नगर को सजाओ, घास-फूस को हटाकर सभी मार्गों को कस्तुरी, कुंकुम मिश्रितजल से सींचकर सुंदर बनाओ, रास्तेपर फूल को बिछवाओ, बाज़ारों को सुसज्जित कराओ, प्रत्येक भवन में वंदनमाला की योजना करो, द्वार पर निर्मल जल से पूर्ण सुवर्णकलश रखवाओ, भवन के द्वारों पर पताकाओं को फहराओ । सुंदर फूलों के तोरण बनवाओ, गो-रचना, सिद्धार्थक, दूर्वा आदि से युक्त स्वस्तिक की रचना करवाओ। इस प्रकार राजा का आदेश प्राप्त कर कोतवाल नगर की सजावट में लग गया । हर्ष से चंचल नगर के लोग जब इधर से उधर घूम रहे थे, इतने में राजा के अंत:पुर में प्रियंवदा पहुँच गई। देखते ही सुरसुंदरी ने हर्ष से आलिंगन करके बैठने के लिए आसन दिया, आसन पर बैठ जाने पर सुरसुंदरी ने पूर्व वृत्तांत पूछा, प्रियंवदा ने कहा कि जब वेताल आपको ऊपर ले गया, मैं मूच्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी । एक क्षण के बाद होश में आने पर शोकसंतप्त होकर हाय ? मेरी बहन कहाँ चली गई ? मेरा भाई अभी तक क्यों नहीं आया ? निश्चय ही उस पिशाच ने कुछ अनिष्ट कर दिया होगा, इस प्रकार सोचती हुई मैंने आकाशमार्ग से समस्त रत्नद्वीप में आपका अन्वेषण किया, बाद में लवण

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