Book Title: Sursundari Charitra
Author(s): Bhanuchandravijay
Publisher: Yashendu Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 226
________________ ' (२१५) के समान अनेक गोशीर्ष वृक्षों से सुशोभित उद्यान में क्रीड़ा निमित्त उतर गए, वहाँ मणिमय शिलातल पर केले के वन में अंत:पुर की स्त्रियों के साथ अनेक गीत, नृत्य, नाटक आदि में लगे हुए रहने से आनंदपूर्वक समय व्यतीत कर रहे थे । इतने में रसोइए ने आकर भोजन करने के लिए प्रार्थना की, जिन-बिम्ब की पूजा करके, चैत्यवंदन करके, विद्याधरों के साथ उत्तम भोजन करने के बाद सुरसुंदरी के साथ, कदलीवन में राजा प्रविष्ट हुए । सुंदर शथ्या पर सोए हुए राजा ने सुरसुंदरी के साथ विषयभोग करने के बाद सुरसुंदरी ने राजा से कहा कि अब कुछ देर सरस प्रश्नोतर से आनंद प्राप्त करें। उसके बाद दोनों जब प्रश्नोत्तर में आनंद का अनुभव कर रहे थे, इतने में एक कालानाग वहाँ आया । वह पूर्वभव का वैरी था, उस दुष्ट ने रोष में आकर दोनों की पीठ में काट लिया। रानी 'सर्प-सर्प' कहकर चिल्लाई, इतने में हाथ में तलवार लिए रक्षकगण वहाँ पहुँच गए, अपराधी साँप भी भयभीत होकर ज्यों ही भागने लगा, त्यों ही उन्होंने उसको मारकर खंड-खंड कर दिया । एकाएक परिजनों का कोलाहल हुआ, राजारानी दोनों विषविकार से व्यस्त हो गए, बड़े-बड़े विषवैद्य बुलाए गए, मंत्रजाप होने लगे, अनेक औषधियाँ मंगाई गईं, मंत्र पढ़कर जल छींटा जाने लगा, इस प्रकार विषवैद्य तथा विद्याधर जब व्याकुल हो गए। धृतसिक्त अग्नि की तरह विषविकार जब बढ़ने लगा तब राजा ने अस्पष्ट शब्द में दिव्यमणि लाने के लिए कहा, किंतु वे लोग कुछ समझ नहीं पाए, इतने में राजा की बहन प्रियंवदा समझ गई और उसने एक विद्याधर से कहा, बाहुवेग ! तुम जल्दी कुंजरावर्त जाकर भानुवेग पुत्र चंद्रवेग से मेरा नाम कहकर दिव्यमणि ले आओं, उससे कहना कि विद्या प्रसाधन के समय

Loading...

Page Navigation
1 ... 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238