Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 151
________________ जैनधर्म में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का उद्भव एवं इतिहास 2. उपासना की विविध साधना पद्धतियाँ आत्मा और परमात्मा, जिन और शिव के पारस्परिक सम्बन्धों और स्वरूप को लेकर विविध उपासना पद्धतियों का विकास हुआ है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में जब सृष्टि के प्रांगण में जीव ने आँखें खोली होंगी तो विविध प्राकृतिक दृश्यों और शक्तियों को देखकर वह आश्चर्यचकित रह गया होगा। प्राकृतिक घटनाओं और बदलते हुए दृश्यों को उसने उत्सुकता, जिज्ञासा और कुतूहल भरी दृष्टि से देखा होगा। इसी मनःस्थिति में उसने पंच तत्त्वों -- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश की शक्तियों के स्प में विभिन्न देवों की कल्पना की होगी। ज्यों-ज्यों उसका सम्पर्क विविध शक्तियों से होता गया, उसकी देव कल्पना विस्तार पाती गयी और बहुदेववाद की धारणा पुष्ट होती गयी, पर जब बहिर्मुखी उत्सुकता और जिज्ञासा कम होने लगी, तर्क और ज्ञान सक्षम होने लगा तो बहदेववाद से पंचदेव उपासना और त्रिदेव -- ब्रह्मा, विष्णु महेश की प्रतिष्ठ के क्रम में एक ब्रहम-एकेश्वरवाद, एकत्ववाद, निर्गुण-निराकार, निरंजनशक्ति जो सर्वोपरि है, सर्व शक्तिमान है, की धारणा पुष्ट बनी। यह निर्गुण-निराकार ब्रह्म कहीं बाहर नहीं। इसकी उपासना ने बहिर्मुखी प्रवृत्ति को अन्तर्मुखी बनाया। ज्ञान, योग, ध्यान और सदाचार उपासना के मुख्य अंग बने, पर सर्व साधारण के लिए निर्गुण-निराकार उपासना सहज-सरल न थी। अतः अवतारवाद के रूप में सगुण-साकार उपासना सामने आयी, जिसमें विभिन्न अवतार परमात्मा की. अभिव्यक्ति के रूप में प्रकट हुए। भक्ति, समर्पण, स्तुति, स्तवन इस उपासना के मुख्य अंग बने। दोनों उपासनाओं का मुख्य उद्देश्य विकारों को दूर कर शुद्ध और निर्मल बनकर परमात्मा से साक्षात्कार करना रहा है। सगुण-साकार रूप में आलम्बन की प्रवृत्ति होने से मन की एकाग्रता सधने में विशेष सहायता मिलती है। यह सगुण-साकार आलम्बन प्रारम्भ में मंगल चिहून स्वस्तिक, ध्वज, कलश, वृक्ष आदि के रूप में सामने आया। कालान्तर में इसने स्मृति चिहन का स्प ग्रहण किया। चिता पर बनाये जाने वाले ऐसे स्मृति चिहन आगे चलकर स्तूप और चैत्य कहे जाने लगे। मथुरा व अन्यत्र हुई खुदाई से प्राप्त पुरातात्विक अवशेष आयागपट्ट इसी प्रकार के प्रतीक चिह्न है। इनके साथ सम्बन्धित महापुरुषों के जीवन की विशिष्ट घटनाओं की स्मृति जुड़ी हुई थी। उसका स्मरण कर जीवन में विशेष प्रेरणा जगे, यह अभीष्ट था। इनके साथ किसी चमत्कार, अतिशय या पूज्य भाव का जुड़ाव नहीं था, न उनकी पूजा होती थी। फोटोग्राफी का विकास होने पर जिस प्रकार आज हम अपने पूर्वजों या परिचितों के चित्र संचित-संरक्षित करते हैं, ताकि उनकी स्मृति बनी रहे, पर हम उनकी न पूजा करते हैं, न किसी प्रकार की अभ्यर्थना करते हैं। प्राचीन जैन शास्त्रों में, अंग सूत्रों में चैत्य आदि के जो संकेत मिलते हैं, वे इसी रूप में स्मृति चिहन होने सम्भावित है। चैत्य का अर्थ मूल स्प में उस अवस्था या स्थान से है, जहाँ साधक अपनी चित्तवृत्ति का, चेतना का अन्तरावलोकन, ध्यान करता है। इसी अर्थ में इसे ज्ञान से जोड़ा जा सकता है। बाद में चैत्य शब्द का अर्थ अपनी आन्तरिकता को छोड़कर बहिर्मुखी बन गया और उसका अर्थ मन्दिर किया जाने लगा। भगवान् महावीर का युग बौद्धिकजागरण का युग था। चली आती हुई गतानुगतिक पारम्परिकता को उन्होंने झकझोरा । कहा जाता है उनके समय में 363 दार्शनिक मत प्रचलित थे। आजीवक मत का प्रवर्तक गोशालक अपने को तीर्थंकर मानता था। पूरण काश्यप, संजय वैलट्ठीपुत्र, पकुध कात्यायान, अजित केशकम्बल आदि प्रमुख दार्शनिक अपनी-अपनी विचारधारा का प्रचार कर रहे थे। महावीर ने इन सबका आलोड़न-विलोड़न कर शुद्ध चेतना के स्तर पर आत्मवादी धर्म की प्रतिष्ठा की, जिसमें इन्द्रियजयता और आत्मानुभव प्रमुख थे, पर महावीर के साथ ही तीर्थकर परम्परा समाप्त हो गयी। उनके प्रथम एवं ज्येष्ठ शिष्य गणधर इन्द्रभूति गौतम को उसी रात्रि केवलज्ञान हो गया, जिस रात्रि महावीर निर्वाण को प्राप्त हुए। इस कारण इन्द्रभूति गौतम महावीर के धर्म संघ के उत्तराधिकारी न बन सके और गणधर सुधर्मा प्रथम पट्टधर- उत्तराधिकारी बने। सुधर्मा के बाद जम्बूस्वामी द्वितीय पट्टधर हुए। जम्बूस्वामी के साथ केवलज्ञान की परम्परा समाप्त हो गयी। जम्बू अन्तिम केवली थे। केवली काल के बाद श्रुतकेवली काल प्रारम्भ होता है। यह काल वीर निर्वाण सं. 64 से 170 तक कुल 106 वर्ष तक चलता है। इस काल में आचार्य 142 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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