Book Title: Shwetambar Sthanakvasi Jain Sabha Hirak Jayanti Granth
Author(s): Sagarmal Jain, Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 160
________________ श्रावकाचार का मूल्यात्मक विवेचन ___- डॉ. सुभाष कोठारी* भारतीय सभ्यता और संस्कृति का विश्व के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। यहाँ के धार्मिक और आध्यात्मिक वातावरण ने हमेशा दुनिया को प्रभावित किया है। जैनधर्म में इस आध्यात्मिक साधना का मूल आधार आचार माना गया है। यहाँ आचार से तात्पर्य उन व्रतों और नियमों से है, जिनका पालन करने से व्यक्ति के जीवन में अहिंसा, क्षमा, अपरिग्रह आदि प्रवृत्तियों का समावेश होता है। हमारे ऋषियों, महर्षियों, आचार्यों और तीर्थंकरों ने इस आचार साधना को दो भागों में विभाजित किया है। पहला, उन व्यक्तियों के लिए, जो समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त और त्यागी हैं और दूसरा उन व्यक्तियों के लिए, जो गृहस्थावस्था को त्यागकर समस्त सांसारिक बंधनों से मुक्त तो नहीं हो सकते हैं परन्तु मुक्त होने की दिशा में आंशिक रूप से प्रयत्न करते हैं। जिससे उनके मानस में कुछ व्रत, नियम एवं त्याग की भावना उत्पन्न होती है। जैन दर्शन की भाषा में इन्हें क्रमशः साध्वाचार और श्रावकाचार कहते हैं। चूँकि मेरा विषय श्रावकाचार से सम्बन्धित है अतः मैं अपने आपको उसी तक सीमित रखेंगा। श्रावक शब्द का अर्थ एवं स्वरूप श्रावक शब्द जैन दर्शन का एक "टेक्निकल" शब्द है जो संस्कृत की धातु से बना है जिसका अर्थ श्रवण करना होता है। अर्थात् व्यक्ति निष्ठापूर्वक निर्गन्थ वचनों को सुनता है और अपनी क्षमता के अनुसार उन पर अमल करता है, वह श्रावक है। वैसे देखा जाय तो श्रावक शब्द तीन अक्षरों के योग से बना है और उन तीनों के अपने-अपने अर्थ है। "श्रा" शब्द तत्त्वार्थ श्रद्धान की सूचना देता है। "व" शब्द विवेकयुक्त दान की प्रेरणा करता है और "क" शब्द कर्मरूपी पाप को सेवा भावना द्वारा नष्ट करने का संकेत प्रदान करता है। इस प्रकार श्रद्धा विवेक और क्रिया का सम्मिश्रण जिस व्यक्ति में होता है, वह श्रावक है। जैन आगम ग्रन्थों में श्रावक-आचार का प्रारम्भ सूत्रकृतांगसूत्र से होता है जहाँ इसमें श्रावक और श्रमणोपासक नामों का उल्लेख मिलता है। इसके बाद स्थानांगसूत्र में श्रावक के पालन करने योग्य पाँच अणुव्रतों और तीन मनोरथों का वर्णन किया गया है। तदन्तर समवायांगसूत्र में श्रावक के आध्यात्मिक विकास की ग्यारह प्रतिमाओं का उल्लेख देखा जा सकता है। उपासकदशांगसूत्र, जो कि जैन आगम साहित्य में श्रावक-आचार का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र प्रतिनिधि ग्रन्थ है, उसमें श्रावकों की जीवन चर्या, बारह व्रत, नियम, प्रतिमाओं आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है। ___इसके बाद परवर्ती श्वेताम्बर और दिगम्बर अनेक ग्रन्थकार हुए हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थों में श्रावक आचार का संक्षेप और विस्तार से वर्णन किया है। जिनमें उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र, हेमचन्द्र का योगशास्त्र, आ. जवाहरलाल जी म.सा. का गृहस्थ धर्म, आ. समन्तभद्र का रत्नकरण्डक-श्रावकाचार, सोमदेवसूरि का उपासकाध्ययन और पं. आशाधर का सागारधर्मामृत मुख्य है। 151 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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