Book Title: Shrimad Devchandra Part 2
Author(s): Buddhisagar
Publisher: Adhyatma Gyan Prasarak Mandal

View full book text
Previous | Next

Page 645
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०६६ श्री बाहुजिन स्तवन. रीते थाय. ते दया कही छे. ते ए पांचमें बोले स्वरूप अविराघकरूप भावदयाना पात्र छोजी. सर्व जीवे, सर्व आगम मध्ये एहवा भाव दया अरूपी आत्मपरिणति ते धर्म सरदहीवो. अरूपी धर्मेज अरूपी परमानंद नीपजे. ए धावो. तथा श्री भगवती सूत्रे अया सामाईयं ए पाठ तथा श्री विशेषावश्यक मध्ये जीवो गुण पडिवन्नो नयस्स दव्ययस्स सामाईयं, आत्मगुणस्वधर्म प्रवृत्तिः तयायाधको अहिंसा, इति व्याख्यानात् तथा धर्म संग्रहण्यां नाम ठपणा दःवर खित्ते काले तहेव भावेअ एसोखलु धम्मनिखखेवो छविहो होई. ए गाथानी प्रथम संक्षेप व्याख्या पहिलां करीने पछी विस्तर वाचनाए स्वगुणपर्यायाधारत्वं द्रव्यत्वं तस्य परसंगित्वमेवाधर्मः पंक्ति ? रथ न्यायात् अधर्म एव हिंसा ए आसमये तेहनो न करवो ते अहिंसा ए आशये गाथा सूत्रे कहे छे. गुण गुण परिणति परिणमे, बाधक भाव विहीन, प्रभुजी । द्रव्य असंगी अन्यनो, शुद्ध अहिंसक पोन. प्रभुजी ॥ वाहु० ॥६॥ तथा गुण जे ज्ञानादिक ते गुगनी परिगति जाणवादिक स्वस्वकार्ये परिगमे गुण परिगतिनो बाधक भाव जे आवरण तेही विहीन कहेतां राहत एले निवारण गुण परिणाम तेहज स्वस्वकार्य करे, ते निरावरण गुण थयो ते शाथी थयो ? जे कारणे द्रव्य आत्मा अन्यनो असंगी थयो तिवारे गुण निरावरण भयो पहनो अहिंसकपण नीaat तथा For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 643 644 645 646 647 648 649 650 651 652 653 654 655 656 657 658 659 660 661 662 663 664 665 666 667 668 669 670