Book Title: Shravak Jivan Darshan
Author(s): Ratnasensuri
Publisher: Mehta Rikhabdas Amichandji

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Page 310
________________ श्रावक जीवन-दर्शन/२९३ जिस प्रकार प्रत्युत्तम विक्रय वस्तु को देखकर ग्राहकों की दृष्टि और मन आकर्षित होते हैं उसो प्रकार उन रूप-लावण्यपूर्ण कन्याओं को देख तमाम राजाओं को दृष्टि और मन आकर्षित होने लगे। उसके बाद विवश बने हुए वे सभी राजा अपनी विविध चेष्टाओं के द्वारा अपना-अपना प्राशय स्पष्ट करने लगे। "यह समस्त राजाओं के राजा समान राजगृह नगरी का राजा है। यह दुश्मनों के सुख को नष्ट करने में कुशल कौशल देश का राजा है। यह स्वयंवर को शोभा से देदीप्यमान गुर्जरदेश का राजपुत्र है। यह इन्द्रपुत्र जयन्त की ऋद्धि से भी अधिक सुशोभित सिन्धु देश के राजा का पुत्र है। यह शौर्य और प्रौदार्य की समृद्धि की रंगभूमि समान अंग देश का राजा है। यह सुन्दर ऋद्धि से आलिङ्गन किया हुआ और शान्त, कलिंग देश का राजा है। यह अपने रूप से कामदेव के गर्व को समाप्त करने वाला बंग देश का राजा है। यह असीम लक्ष्मी का अधिपति मालव देश का राजा है। यह प्रजा का पालन करने वाला और दया का मन्दिर नेपालदेश का राजा है। यह बहुत ही गौरवशाली ऐसा कुरु देश का राजा है। दुश्मनों को साफ करने वाला यह निषध देश का राजा है। यश की सौरभ से मलयाचल के समान यह मलय देश का राजा है।"-इस प्रकार सखी के द्वारा नामग्रहणपूर्वक सभी राजाओं का वर्णन करने के बाद इन्दुमतो ने जिस प्रकार अज राजा को वरा था, उसी प्रकार उन दोनों ने जितारि के गले में वरमाला डाल दो। उस समय अन्य राजाओं ने स्पृहा, उत्सुकता, सन्देह, दर्प, आनन्द, विषाद, लज्जा, अनुताप और असूया के भावों का अनुभव किया। कुछ राजाओं को स्वयंवर पर, कुछ राजाओं को अपने आगमन पर, कुछ राजाओं को अपने भाग्य पर और कुछ राजाओं को संसार पर वैराग्य पैदा हुआ। उसके बाद विजयदेव राजा ने शुभ दिन देखकर भव्य महोत्सव के साथ उन दोनों कन्याओं का जितारि के साथ विवाह किया। बहुत-सा धन, सैन्य आदि प्रदान कर जितारि का सन्मान भी किया। पुण्य के बिना मनोवांछित की प्राप्ति नहीं होती है-इस प्रकार निश्चय कर बड़े-बड़े राजा भी हताश हो गये। ईर्ष्या के उत्कर्ष से द्वेष करने वाले वहाँ बहुत से राजा थे, फिर भी वे जितारि का कुछ भी पराभव नहीं कर सके। रति और प्रोति सहित कन्दर्प को और दूसरे राजाओं के दर्प को विडम्बित करता हुआ वह जितारि उन दोनों पत्नियों से सुशोभित होकर अपने नगर में आया। उसके बाद उन दोनों का दिव्य देवियों को तरह पद्राभिषेक किया गया। राजा अपने दोनों नेत्रों की तरह उन दोनों पर समान प्रेम रखता था। फिर भी सौतपने के कारण उन्होंने अधिकता व न्यूनता मानी क्योंकि एक ही वस्तु की अभिलाषा से प्रेम अस्थिर हो जाता है। हंसी तो प्रकृति से हमेशा सरल थी, परन्तु मायावी सारसी कभी-कभी बीच-बीच में माया कर देती थी। वह राजा को खुश करती थी, इस प्रकार उसने स्त्रीकर्म को दृढ़ किया। हंसी सरल होने से उसने अपने स्त्रीकर्म को शिथिल किया और राजा को मान्य हुई।

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