Book Title: Shramanvidya Part 2
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Sampurnanand Sanskrut Vishvavidyalaya Varanasi

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Page 211
________________ १९२ अवचूरिजुदो दव्वसंगहो से या परमाणुवाद से की जा सकती है। इसी तरह जीवास्तिकाय की तुलना आत्मद्रव्य से की जा सकती है । वास्तव में जैन दर्शन का विवेचन अन्य दर्शनों के विवेचन से पूर्णतया मेल नहीं खाता । काय-शरीर की तरह प्रदेशों का प्रचय रूप होने से ये पाँचों अस्तिकाय कहे जाते हैं । षड् द्रव्य उक्त पञ्चास्तिकाय के साथ काल को मिलाकर 'षड् द्रव्य' कहे जाते हैं । काल का प्रत्येक अणु स्वतन्त्र होने से इसे अस्तिकाय नहीं माना गया । सुदूर अतीत में काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के विषय में जैन आचार्यों में मत भिन्नता रही, किन्तु द्रव्य की परिभाषा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य के आधार पर काल को गणना स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में कर ली गयी । आचार्य कुन्दकुन्द के प्राकृत ग्रन्थ पञ्चत्थिय संगहो तथा तत्त्वार्थ सूत्र के श्वेताम्बर परम्परा सम्मत 'कालश्चेत्येके' सूत्र और उसके भाष्य से इन तथ्यों की जानकारी मिलती है । कुन्दकुन्द ने पञ्चास्तिकाय के विवेचन के साथ काल को स्वन्त्र द्रव्य मानने के आधारों का प्रतिपादन किया है । भाष्यकार ने 'इत्येके' द्वारा इसका उल्लेख तो किया, किन्तु उसके समर्थन या विरोध में कुछ नहीं लिखा । इस प्रकार षड् द्रव्य का सिद्धान्त प्रचलित हुआ । इन छह द्रव्यों में जीवास्तिकाय के अतिरिक्त शेष पाँच अजीव हैं तथा पुद्गल के अतिरिक्त शेष सभी अमूर्ति हैं। लोक विज्ञान जैन दार्शनिकों ने पचास्तिकाय सिद्धान्त के आधार पर लोक विज्ञान का निरूपण किया है । यह लोक पञ्चास्तिकायों का समवाय है । अकृत्रिम, अनादि और अनन्त है | काल द्रव्य परिवर्तन का हेतु है । छह द्रव्यों के अतिरिक्त लोक का अन्य कोई जनक या कर्ता नहीं है । ये सभी द्रव्य स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं और कभी भी अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते । प्रत्येक द्रव्य के गुण और पर्यायों के कारण उसका परिवर्तन लक्षित होता है । द्रव्यत्व रूप से वह सदा अपने स्वभाव में अवस्थित रहता है । यही द्रव्य का 'उत्पादव्ययध्रौव्य' रूप लक्षण है और उसके 'गुणपर्याय युक्त' स्वरूप को अभिव्यक्त करता है । पर्यायों के परिवर्तन से लोक में वैविध्य दृष्टिगोचर होता है । जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय की क्रियाशीलता के कारण यह विविधता और अधिक बढ़ जाती है । जीव और कर्म पुद्गल का अनादि सम्बन्ध संसार की विचित्रता का हेतु है । बन्धन और मुक्ति का सिद्धान्त इसी में से प्रतिफलित होता है । इस प्रकार पश्चास्तिकाय और षड्द्रव्य सिद्धान्त के द्वारा लोक संकाय पत्रिका - २ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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