________________
श्राद्धविधि प्रकरण से ही सारा आकाश ऊंचा रहा हुआ है, वैसे ही तुच्छहृदयी किस मनुष्य के मन में कल्पित अभिमान पैदा नहीं होता?
उस तोतेके ये वाक्य सुनकर, राजा मनही मन विचार करने लगा कि यह तोता कैसा वाचाल और अभिमानी है कि जो स्वयं अपने वचनसे ही मेरे अभिप्रायका खंडन करता है । अथवा अजाकृपाणी न्याय, काकतालीयन्याय, घुणाक्षर न्याय या बिल्वपतन मस्तक स्फोटन न्याय जैसे स्वभाविक ही होते हैं वैसे यह तोता भी स्वभाविक ही बोलता होगा वा मेरे बचनका खंडन करने के लिये ही ऐसा बोलता है ! यह समस्या यथार्थ समझ में नहीं आती। जिस वक्त राजा पूर्वोक्त विवार में मग्न था उस समय वह तोता फिर से अन्योक्ति में बोला
पक्षिन् प्राप्तः कुतस्त्वं ननु निजसरसः किं प्रमाणो महान्यः । कि मे धाम्नोऽपि कामं प्रलपसि किमुरे मत्पुरः पापमिथ्या ॥ भेकः किंचित्ततोऽधः स्थित इति शपथे हंसमभ्यर्ण गंधिक् ।
दृप्पत्यन्येऽपि तुच्छः समुचितमिति वा तावदेवास्य बोध्दुः ॥१॥ एक कूप मण्डूक हंसके प्रति बोला कि अरे हंस तू कहांसे आया हंसने कहा कि मैं मानसरोवर से आया हूं तब मेंडकने पूछा कि वह कितना बड़ा है ? हंसने कहा कि मानसरोवर बहुत बड़ा है ? मेंढक बोला क्या वह मेरे कुएं से भी बड़ा है, हंसने कहा कि भाई मानसरोवर तो कुएं से बहुत बड़ा हैं। यह सुनकर मेंडक को बड़ा क्रोध आया और वह बोला कि मूर्ख इस प्रकार विचारशून्य होकर मेरे सामने असम्भवित क्यों बोलता है ? इतना बोलकर गर्वके साथ जरा पानी में डूबकी लगाकर समीप के बैठे हुए हंसके प्रति बोला कि हा! तुझे धिक्कार हो, ऐसा कहकर वह मेंढक टांगे हिलाता हुआ पानी में घुस गया। इस प्रकार तुच्छ प्राणी दूसरों के पास गर्व किये बिना नहीं रहते। क्योंकि उसे उतनाही ज्ञान होता है अथवा जिसने जितना देखा है वह उतना ही मानकर गर्व करता है। अतः रे राजा तू भी कूप मंडूक के समान ही है। कंए में रहनेवाला बिचारा मेंडक. मानसरोवर की बात क्या जाने, वैसे ही तू भी इससे अधिक क्या जान सकता है। तोते के पूर्वोक्त वचन सुन कर राजा बिचारने लगा कि सवमुच यह तोता कूपमंडूक की उपमा के समान मुझे गिनकर अन्योक्ति द्वारा मुझे ही कहता है । इस आश्चर्यकारक वृत्तांत से यह तोता सचमुच ही किसी ज्ञानी के समान महा विचक्षण मालूम पड़ता है। राजा इस प्रकार के विचारमें निमग्न था इतने ही में तोता फिरसे बोल उठा कि
ग्रामीणस्य जडाऽग्रिमस्य नितमां ग्रामीणता कापिया । स्वप्रामं दिविषत्पुरीयति कुटीमानी विमानीयति ॥ स्वर्भक्षीयति च स्वमक्ष्यमखिलं वेषं धुवेषीयति । .
स्वं शक्रीयति चात्मनः परिजनं सर्वसुपौयति ॥१॥ मूर्ख शिरोमणि ग्रामीण मनुष्यों की ग्रामीणपन की विचारणा भी कुछ विचित्र ही होती है। क्योंकि वे