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श्राद्धविधि प्रकरण ले जाता है वैसे ही किसी पापी विद्याधर ने विद्या के बल से लड़की सहित मुझे वहां से उठाकर यहां पर फक्त मुझे फेंक कर जैसे कौवा खाद्य पदार्थ को लेकर उड़ जाता है त्यों वह पद्मावती राजपुत्री को लेकर न जाने कहां भाग गया ? बस इसी दुःख से मैं रुदन कर रही हूं। यह सुनकर शुकराज ने उसे सांत्वना दे वहां ही रक्खी और स्वयं पिछली रात को कितने एक घासके झोंपड़ों में विद्याधर को ढूंढने लगा। इतने में ही वहां किसी पुरुष को रुदन करते देख वह शीघ्र ही उसके पास जाकर दया से उसके दुःख का कारण पूछने लगा। दयालु को कहे बिना दुःखका अंत नहीं आ सकता; ऐसा समझकर उसने कहा कि हे वीरकुमार ! मैं गगनवल्लभपुर नगर के राजा का वायु समान गति करने वाला वायुवेग नामक पुत्र हूं। किसी राजा की पद्मावती नामा कन्या को हरण कर ले जाते हुए तीर्थ के मन्दिर पर आते हो मेरा विमान तीर्थ महिमा के लिये गतिरुद्ध हो गया, मैं उसे उल्लंघन न कर सका इतना ही नहीं किंतु मेरी विद्या खोटी हो जाने से मैं तत्काल ही जमीन पर गिर पड़ा। दूसरे की कन्या हरण करने के पाप के कारण मैं पुण्यरहित मनुष्य के समान जब जमीन पर गिर पड़ा तब तुरंत ही मैंने उस कन्या को छोड़ दिया, तब जैसे चील के पंजे से छूटकर पक्षिणो जीव लेकर भाग जाती है वैसे ही वह कन्या कहीं भाग गई। धिःकार है मुझ पापी को कि अघटित लाभ की वांछा से उद्यम किया तो उल्टा कितना बड़ा अलाभ हुआ । विद्याधर के ये वचन सुनकर सर्व वृत्तांत का पता लग जाने से प्रसन्नता प्राप्त शुकराज उस कन्या को वहां ही ढूंढ़ने लगा। देवांगना के समान रूप लावण्ययुक्त उस कन्या को शुकराज ने मंदिर में से प्राप्त किया। तदनन्तर उस कन्या का उसकी धाय माता के साथ मिलाप करा दिया और उस विद्याधर को भी नाना प्रकार के औषधादिक उपचार कर शुकराज ने अच्छा किया। विद्याधर पर उपकार करके उसे जीवदान देने के कारण वह शुकराज का प्रीति पूर्वक उपकार मानने लगा और कहने लगा कि मैं जब तक जीवित रहूंगा आप का उपकार न भूलंगा। सचमुच ही पुण्य की महिमा कैसी अगाध और आश्चर्यजनक है ! शुकराज ने विद्याधर से पूछा "तेरे पास आकाशगामिनी विद्या विद्यमान है या नहीं ? उसने कहा विद्या तो अक्षर मात्र (मुखपाठ मात्र) है परन्तु चलती नहीं ; परन्तु जिस पुरुष ने इस विद्या को सिद्ध किया हो, यदि वह पुरुष मेरे सिर पर हाथ रखकर फिर से शुरू करावे तो चल सकती है,अन्यथा अब यह मेरी विद्या चल नहीं सकती। समय सूचक शुकराज ने कहा कि ऐसा तो यहां पर अन्य कोई नहीं है, इसलिए तू इस तेरो विद्या को पहले मुझे सिखा दे फिर तेरे बतलाये मुजब इसे सिद्ध करके जैसे किसी का कुछ उधार लिया हो और वह पीछे दिया जाता है वैसे तुझे मैं ही वापिस दंगा, यानी तुझे वहाँ विद्या फलीभूत होगी । विद्याधर ने प्रसन्नता पूर्वक वह विद्या शुकराज कुमार को सिखलाई । शुकराज ने उस विद्या को विमलाचल तीर्थ और अपने पुण्य के बलसे तत्काल सिद्ध करके उस विद्याधर को सिखाई । जिससे उसे वह पाठ सिद्ध विद्या के समान तत्काल ही सिद्ध हो गई । फिर वे दोनों पुरुष खेचर और भूचर सिद्ध विद्या वाले बन गये। विद्याधर ने अन्य भी कई एक विद्याएं शुकराज कुमार को सिखलाई। अगणित पुण्य का संचय करने वाले मनुष्य को क्या दुर्लभ है ? अब शुकराज कुमार गांगिल ऋषि की आज्ञा लेकर नवीन रचित विमान में उन दोनों स्त्रियों ( राजकन्या पद्मावती तथा उसकी धाय माता) को बैठाकर विद्याधर