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( ३८६) प्राप्ति आदि होना कठिन है. ओघनियुक्तिमें साधुको लक्ष्य कर कहा है कि--
छक्कायदयावतेवि संजओ दुल्लहं कुणइ बोहिं । आहारे नीहारे, दुगुंछिए पिंडगहणे अ ॥ १ ॥"
षड्जीवनिकाय ऊपर दया रखनेवाला संयमी साधु भी, आहार निहार करते, तथा गोचरीमें अभ ग्रहण करते जो कुछ भी धर्मकी निन्दा उपजावे, तो उसे बोधि दुर्लभ होता है. भिक्षा मांगनेसे किसीको लक्ष्मी व सुखआदिकी प्राप्ति नहीं होती. कहा है कि--
लक्ष्मीर्वसति वाणिज्ये, किंचिदस्ति च कर्षणे । अस्ति नास्ति च सेवायां, भिक्षायां न कदाचन ॥ १॥"
पूर्ण लक्ष्मी व्यापार में बसती है, थोडी खेतीमें है, सेवामें नहीं के बराबर है तथा भिक्षामें तो बिलकुल ही नहीं है. उदरपोषण मात्र तो भिक्षासे होता है. जिससे अंधेआदिको आजीविकाका साधन होजाता है । मनुस्मृतिके चौथे अध्यायमें तो ऐसा कहा है कि--ऋत १, अमृत २, मृत ३, प्रमृत ४ और सत्यानृत ५ इन उपायोंसे अपनी आजीविका करना, परन्तु नीचकी सेवा करके अपना निर्वाह कभी न करना चाहिये. बाजारमें पडे हुए दाने बीनना इसे ऋत कहते हैं १. याचना किये बिना मिला हुआ अमृत २ व याचना करनेसे मिला हुआ मृत कहलाता है ३. प्रमृत खेती ४ तथा सत्यान्त व्यापारको