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भूमिका
में इतना साहस है कि मैं उसको कबूल कर लेता।"
उन्होंने माने खुले जीवन के बारे में लिखा है :
"जब मेरे अन्दर अपनी पत्नी के साथ विषय-संबन्ध रखने की अरुचि काफी बढ़ गई, और इस सम्बन्ध में मैंने काफी परीक्षा कर ली, तभी मैंने १९०६ में ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। उसी दिन से मेरा खुला जोवन शुरू हो गया। सिर्फ उस अवसर को छोड़ कर, जिसका कि मैंने 'यंगइन्डिया' और 'नवजीवन' के अपने लेखों में उल्लेख किया है, और कभी मैं अपनी पत्नी या अन्य स्त्रियों के साथ दरवाजा बंद करके सोया या रहा होऊ, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता । और वे रात मेरे लिए सचमुच काली रातें थीं। लेकिन जैसा कि मैंने बार-बार कहा है, अपने बावजूद ईश्वर ने मुझे बचाया है।
"जिस दिन से मैंने ब्रह्मवर्य शुरू किया, उसी दिन से हमारी स्वतंत्रता का प्रारंभ हुआ है। मेरी पत्नी मेरे स्वामित्व के अधिकार से मुक्त हो गई, और में अपनी उस वासना की दासता से मुक्त हो गया, जिसकी पूर्ति उसे करनी पड़ती थी। . "जिस भावना में मैं अपनी पत्नी के प्रति अनुरक्त था, उस भावना में और किसी स्त्री के प्रति मेरा आकर्षण नहीं रहा है। पति के रूप में उसके प्रति मैं बहुत बफादार था और अपनी माता के सामने किसी अन्य स्त्री का दास न बनने की मैंने जो प्रतिज्ञा की थी, उसके प्रति भी मैं वैसा ही बफादार था।
___ "जिस तरह मेरे अन्दर ब्रह्मचर्य का उदय हुआ, उसके कारण अदम्यरूप से स्त्रियों को मैं मातृभाव से देखने लगा। स्त्रिया मेरे लिए इतनी पवित्र हो गई कि में उनके प्रति कामुकतापूर्ण प्रेम का खयाल ही नहीं कर सकता। इसलिए तत्काल हरेक स्त्री मेरे लिए बहन या बहन की तरह हो गयी।
"फिनिक्स में मेरे पासपास काफी स्त्रियां रहती थीं। दक्षिण अफ्रिका में अंग्रेज व हिंदुस्तानी अनेक बहनों का विश्वास प्राप्त था।""भारत लौटने पर यहां भी जल्दी ही में भारतीय स्त्रियों में हिलमिल गया।".."दक्षिण अफ्रिका की तरह यहां भी मुसलमान स्त्रियों ने मुझसे कभी परदा नहीं किया। पाश्रम में मैं स्त्रियों से घिरा हुआ सोता हूँ, क्योंकि मेरे साथ वे अपने को हर तरह सुरक्षित महसूस करती हैं। मुझे यह भी याद दिला देनी चाहिए कि सेगांव-पाश्रम में कोई पेशादगी नहीं है। ...
. "अगर स्त्रियों के प्रति मेरा कामुकतापूर्ण झुकाव होता तो, अपने जीवन के इस काल में भी, मुझमें इतना साहस है कि मैंने कई पलिया रख ली होतीं। . "गुप्त या खुले स्वतंत्र प्रेम में मेरा विश्वास नहीं है। उन्मुक्त प्रेम को मैं तो कुत्तों का प्रेम समझता हूं। और गुप्त प्रेम में तो, इसके मलावा कायरता भी है।"..
" . .. (५) अन्तिम और सबसे बड़ा प्रयोग
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. सन् १९४७ के साम्प्रदायिक दंगे के समय महात्मा गान्थी नोनाखाली गये। मनु बहन गान्धी श्रीरामपुर में उनके साथ हुई। उस समय बहिन की उम्र १८-१६ वर्ष की रही।
मनु बहिन रिस्ते में महात्मा गांधी की पोती होती थी। उनकी माता का देहान्त उस समय हो गया जब वह केवल बारह साल की'. थी। बा ने कभी इन्हें मां की कमी महसूस न होने दी। प्रागीखान महल में वा की अस्वस्थता के समय मन बहन सरकार द्वारा उनकी परिचर्या के लिए नांगपुर जेल से वहां भेजी गई। तेरह महीने तक मनु बहन बा की सतत सेवा करती रही। बा का मनु बहन पर असीम स्नेह था। सन् ४४ की २२ फरवरी को बा का देहावसान हुआ। उसी रात को, बा के अग्निदाह के बाद बापू ने मनु बहन को अपने पास बुलाया और बाकी की कई चीजें उसके हाथ में दीं। उनमें बा को हाथी दांत की दो पुरानी चड़ियां भी थीं। उस समय बापू ने कहा:"...अब तुम्हारा काम यह है कि जैसे भरत ने राम के बदले राम की पादुका को गादी पर बैठाकर उनसे प्रेरणा ली थी, वैसे ही तुम भी इन चीजों से प्रेरणा लो। और या कसी सती थी ! उसका सबूत यह है कि उनकी ये चूड़ियां मनों लकड़ियों की प्राग में से भी सही सलामत निकली हैं।" बापू मनु बहन को प्यार में 'मनुड़ी' कहते। और इस १४-१५ साल की बच्ची की देख-भाल करते। वे बार-बार कहा करतें—'मैं तो तुम्हारी माँ बन चुका १-हरिजन-सेवक, ४-११-३६ ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० २६-३१ का सारांश
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