Book Title: Shant Sudharas
Author(s): Rajendramuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 197
________________ १७५ पारिभाषिक शब्द चिदानन्दमय-केवल चैतन्यमय और आनन्दमय। चौरासी लाख-पृथ्वीकाय के मूलभेद ३५० हैं। इनको अनुक्रम से पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान से गुणा करने पर पृथ्वीकाय की सात लाख जातियां बनती हैं। इसी प्रकार अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के भी मूलभेद ३५० हैं। इनको भी पूर्वोक्त विधि से गुणा करने पर प्रत्येक की सात-सात लाख जातियां बनती हैं। प्रत्येक वनस्पति के मूल-भेद ५००, साधारण वनस्पति के ७००, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय के १००, नारक, देवता व तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय के २०० तथा मनुष्य के ७०० मूलभेद हैं। पूर्व प्रक्रिया वर्ण, गंध आदि से गुणन करने पर क्रमशः इनकी संख्या दस लाख, चौदह लाख, दो लाख, दो लाख, दो लाख, चार लाख, चार लाख, चार लाख, चौदह लाख जातियां होती हैं। सबको मिलाने पर चौरासी लाख योनियां हो जाती हैं। जिनधर्म-अर्हत् द्वारा प्रतिपादित धर्म। ताप-क्रोध, मान आदि कषाय चतुष्क का उत्ताप। तिर्यञ्च-एक, दो, तीन, चार इन्द्रिय वाले सभी जीव तथा पांच इन्द्रिय वाले स्थलचर-भूमि पर चलने वाले, खेचर-आकाश में उड़ने वाले तथा जलचर-पानी में रहने वाले जीव। तीन गुप्ति-मन, वचन और काया का गोपन-संवरण। तीर्थंकर-तीर्थ के दो अर्थ हैं-प्रवचन और चतुर्विध संघ। जो इनके कर्ता हैं वे तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रवचन का अर्थ है-शास्त्र। जिस संघ के चार घटक साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका-होते हैं वह चतुर्विध संघ कहलाता है। त्रस-स्थावर-जो जीव हित की प्रवृत्ति और अहित की निवृत्ति के लिए गमनागमन करते हैं, वे त्रस हैं। वे दो-तीन-चार या पांच इन्द्रियों वाले होते हैं। जो गतिशील नहीं हैं, वे स्थावर हैं। उनमें एक ही इन्द्रिय होती है। उनके पांच प्रकार हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय।

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