Book Title: Satya Sangit
Author(s): Darbarilal Satyabhakta
Publisher: Satyashram Vardha

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Page 10
________________ उसे बिलकुल निरर्थक और ढोग समझते हैं। ये दोनों ही अतिवाद हैं। प्रार्थनाओ से हमारे हृदय पर ही प्रभाव पड़ता है बस इतना ही लाभ है और यह कम लभ नहीं है । प्रार्थना से हमारा हृदय गान्त हो जाता है थोड़ी देर को दुनिया के दुःख भूल जाता है सनाथता का अनुभव होता है जिनकी प्रार्थना की जाय उनके जीवन का प्रभाव अपने पर पड़ता है दृढ़ता आती है कर्मठता जाग्रत होती है इसी प्रकार के लाभ मिलते है । इसमे अर्थ नहीं मिलता अथवा अर्थप्राप्ति प्रार्थना का लक्ष्य नहीं है पर धर्म काम और मोक्ष तीनों पुरुषार्थ प्रार्थना के लक्ष्य है । सदाचार तथा कर्तव्य की शिक्षा धर्म है । गीत का आनन्द काम है दुनिया के दुख भूल जाना मोक्ष है इस प्रकार यह तीनों पुरुषार्थों के लिये उपयोगी है। नियमित और सम्मिलित प्रार्थना का उपयोग इससे भी अधिक है। किसी धर्माल्य में ऐसी प्रार्थनाएँ की जॉय तो मिलकर प्रार्थना करनेवालो में एक तरह की निकटता आयेगी परिचय बढेगा एक दूसरे की परिस्थिति का ज्ञान होगा इसलिये सहयोग मिल सकेगा किसी एक लक्ष्य से काम करनेवालों का सगठन होगा। पर प्रार्थनाऍ समभात्री होना चाहिये और ऐसी भाषा में होना चाहिये जिसे हम समझ सकें बहुत से लोग आज भी संस्कृत प्राकृत के विद्वान न होने पर भी उसी भाषा में प्रार्थनाएँ पढ़ा करते हैं । यह प्राचीनता की बीमारी है जो कि प्रार्थना को निष्फल बना देती है इसीलिये सन्यसात हिन्दी में लिखा गया है। पाठकों के लिये यह समह कितना उपयोगी होगा कह नहीं सकता पर मेरे लिये तो उमका निल उपयोग होता है। १७-१०-१९३८ --दरबारीलाल सत्यभक्त

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